हिंदी साहित्य में हिंदी कवियों और साहित्यकारों द्वारा लगातार उनकी रचनाओं में प्रकृति चित्रण किया गया है, आइए जानते हैं विस्तार से।
क्या है कवियों का प्रकृति का चित्रण
दरअसल, कई कवि और साहित्यकारों ने प्रकृति को मां भी माना है और प्रेमिका भी। वह पथ निर्देशिका भी हैं, तो कई कवियों ने अपनी पत्नी, देवी और सुंदरी कई रूप माने हैं। साथ ही अगर ऋग्वेद की बात करें तो उसमें भी परम्परा रही है प्रकृति चित्रण की। उनका उल्लेख दिखता है इसमें। दरअसल, प्रकृति को एक शक्ति का भी रूप माना गया है। कई रूपों में फिर हमारे कवि और साहित्यकारों ने इसे नये रूप में ढाल दिया। प्रकृति की यह खूबी रही है कि प्रकृति ने कभी भी मानव का साथ नहीं छोड़ा है। इसलिए गौर करें, तो हिंदी साहित्य पर प्रकृति सौंदर्य की छवि विशेष रूप से झलकती है।
कालिदास का प्रकृति चित्रण
कालिदास की अगर कृतियों की बात करें, तो कालिदास के मेघदूत में प्रकृति का अद्भुत चित्रण रहा है, जिसे आपको जरूर देखना और महसूस करना चाहिए। अगर बात महाकवि कालिदास की करें, तो वह यूं ही कालिदास नहीं बने। उन्होंने प्रकृति का चित्रण बहुत ही खूबसूरती से किया है। उनकी यह खासियत रही कि अपनी कविताओं में उन्होंने हमेशा प्रकृति को महत्व दिया। उनकी रचनाओं में प्राकृतिक सौंदर्य को दर्शाया है, जैसे उनके लिए हमेशा प्रकृति से प्रेम का का अद्भुत दृश्य नजर आये हैं। उन्होंने इंसान और प्रकृति को एक माना है। उन्होंने हृदय को भी खूबसूरती से पहचाना है। उन्होंने पर्वत, नदी, गुफा, वायु, वृक्ष, लता, पुष्प, हंस, मयूर, इंद्रधनुष और ऐसे कई रूप जो प्रकृति के हैं, उन्हें दर्शाया है। उनकी रचनाओं में आम्रकूट पर्वत जंगली आम के वृक्ष के बारे में बातचीत की है। वृक्षों में लगे फलों की चर्चा की है। उनके चित्रण में हिरण का जिक्र हमेशा है। उन्होंने पृथ्वी को भी स्त्री का एक अंग माना है। उन्होंने मेघ को खूबसूरत तरीके से दर्शाया है। उन्होंने जानवरों को भी जश्न मनाते, उन्हें नृत्य करते हुए दिखाया है। उन्होंने हाथी, सांप, मोर और ऐसे कई जवीओं को शाकुंतला का जीवन चित्रण माना है। कालिदास ने मेघदूत काव्य में मेघों को दूत के रूप में चित्रित किया।
सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति चित्रण
सुमित्रानंदन पंत को हमेशा प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में माना गया है। उनका जन्म उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के कौसानी में 20 मई 1900 को हुआ। पंत जी का बचपन में गोसाई दत्त नाम रखा गया था। उन्होंने 1921 में महात्मा गांधी के साथ असहयोग आंदोलन को प्राथमिकता दी। फिर उन्होंने महाविद्यालय जाना छोड़ दिया। फिर हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा साहित्य का स्वाध्याय किया। उन्होंने अपने लेखन में हमेशा प्रकृति को महत्व दिया है। बात उनकी अगर रचनाओं की की जाए तो युगांतर’, ‘स्वर्णकिरण’, ‘कला और बूढ़ा चाँद’, ‘सत्यकाम’, ‘मुक्ति यज्ञ’, ‘तारापथ’, ‘मानसी’, ‘युगवाणी’, ‘उत्तरा’, ‘रजतशिखर’, ‘शिल्पी’, ‘सौवर्ण’, ‘पतझड़’, ‘अवगुंठित’, ‘मेघनाद वध’ आदि उनके अन्य प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। आइए पढ़ें प्रकृति पर उनकी कुछ रचनाओं को।
सावन
झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के
छम छम छम गिरतीं बूँदें तरुओं से छन के।
चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,
थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।
ऐसे पागल बादल बरसे नहीं धरा पर,
जल फुहार बौछारें धारें गिरतीं झर झर।
आँधी हर हर करती, दल मर्मर तरु चर् चर्
दिन रजनी औ पाख बिना तारे शशि दिनकर।
पंखों से रे, फैले फैले ताड़ों के दल,
लंबी लंबी अंगुलियाँ हैं चौड़े करतल।
तड़ तड़ पड़ती धार वारि की उन पर चंचल
टप टप झरतीं कर मुख से जल बूँदें झलमल।
नाच रहे पागल हो ताली दे दे चल दल,
झूम झूम सिर नीम हिलातीं सुख से विह्वल।
हरसिंगार झरते, बेला कलि बढ़ती पल पल
हँसमुख हरियाली में खग कुल गाते मंगल?
दादुर टर टर करते, झिल्ली बजती झन झन
म्याँउ म्याँउ रे मोर, पीउ पिउ चातक के गण!
उड़ते सोन बलाक आर्द्र सुख से कर क्रंदन,
घुमड़ घुमड़ घिर मेघ गगन में करते गर्जन।
वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख गायन।
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन।
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन।
रिमझिम रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर,
रोम सिहर उठते छूते वे भीतर अंतर !
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर,
रज के कण कण में तृण तृण की पुलकावलि भर।
पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,
आओ रे सब मुझे घेर कर गाओ सावन !
इन्द्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन,
फिर फिर आए जीवन में सावन मन भावन !
आह्वान
बरसो हे घन!
निष्फल है यह नीरव गर्जन,
चंचल विद्युत् प्रतिभा के क्षण
बरसो उर्वर जीवन के कण
हास अश्रु की झड़ से धो दो
मेरा मनो विषाद गगन!
बरसो हे घन!
हंसू कि रोऊं नहीं जानता,
मन कुछ माने नहीं मानता,
मैं जीवन हठ नहीं ठानता,
होती जो श्रद्धा न गहन,
बरसो हे घन!
शशि मुख प्राणित नील गगन था
भीतर से आलोकित मन था
उर का प्रति स्पंदन चेतन था,
तुम थे, यदि था विरह मिलन
बरसो हे घन!
अब भीतर संशय का तम है
बाहर मृग तृष्णा का भ्रम है
क्या यह नव जीवन उपक्रम है
होगी पुनः शिला चेतन?
बरसो हे घन!
आशा का प्लावन बन बरसो
नव सौन्दर्य रंग बन बरसो
प्राणों में प्रतीति बन हरसो
अमर चेतना बन नूतन
बरसो हे घन!
विनोद कुमार शुक्ल का प्रकृति प्रेम
विनोद कुमार शुक्ल को भी कविताओं का ही प्रेमी माना जाता रहा है। दरअसल, विनोद कुमार शुक्ल बड़े ही सरल शब्दों में बातें कहने में माहिर रहे हैं और उन्होंने हमेशा प्रकृति की खूबसूरती को नजदीक से महसूस किया है। उन्होंने नदी से लेकर पहाड़ तक को दर्शाया है। उनकी यह कविता इस लिहाज से लोकप्रिय रही है।
आदिवासी, जो स्वाभाविक हैं
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक.
आदिवासी, जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक.
जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है.
महादेवी वर्मा भी रही हैं प्रकृति प्रेमी
महादेवी वर्मा भी उन हिंदी कवियों और साहित्यकारों की श्रेणी में आती हैं। महादेवी की यह खूबी भी खास रही है कि उन्होंने प्रकृति को अपनी कविताओं में तवज्जो दी है, दरअसल, यह हकीकत है कि गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में उनका मान-सम्मान हमेशा रहा है और उनकी खूबियां यह भी रहीं कि वे पशु पक्षी को अत्यधिक प्रेम करती थीं और खासतौर से गाय उन्हें बहुत प्यारी थीं। उन्होंने रजनी, संध्या, प्रभात, मेघ और वर्षा को अपनी कविताओं में दर्शाया है। उन्होंने कुछ पंक्तियों में कुछ यूं अपना प्रेम दर्शाया है। वह लिखती हैं।
तू भू के प्राणों का शतदल !
सित क्षीरफेन हीरक रज से
जो हुए चांदनी से निर्मित
पारद की रेखाओं में चिर
चांदी के रंगों से चित्रित
खुल रहे दलों पर दल झलमल
सीपी से नील्म से धुतिमय
कुछ पिंग अरुण कुछ सित श्यामल
फ़ैले तम से कुछ तूल विरल
मंडराते शत-शत अलि बादल