भारत की 50 सबसे यशस्वी महिलाओं में शामिल महादेवी वर्मा को जहां एक तरफ हिंदी के विशाल मंदिर की ‘सरस्वती’ की उपाधि मिली हुई है, वहीं लोग उन्हें ‘आधुनिक मीरा’ भी कहते हैं। आइए जानते हैं छायावाद युग के प्रमुख स्तंभों में से एक महादेवी वर्मा से जुड़ीं खास बातें।
शताब्दी की लोकप्रिय महिला साहित्यकार

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प्रतिभावान कवयित्री और लेखिका होने के साथ-साथ साहित्य और संगीत में निपुण महादेवी वर्मा कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। बतौर अध्यापिका अपना कार्यजीवन शुरू करनेवाली महादेवी वर्मा अपने अंतिम समय तक प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्रधानाचार्य के पद पर रहीं। हालांकि अपने अध्यापन कार्य के साथ-साथ साहित्य सृजन करते हुए उन्होंने जिस तरह का साहित्य रचा, उसकी बदौलत उन्हें शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में पहचान मिली हुई है। इसके अलावा, हिंदी साहित्य में छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत के साथ महत्वपूर्ण स्तंभ मानी जाती हैं।
इस तरह नाम पड़ा ‘महादेवी वर्मा’
26 मार्च 1907 को उत्तर प्रदेश के फ़र्रूख़ाबाद में एक संपन्न परिवार में जन्मीं महादेवी वर्मा का नाम महादेवी वर्मा क्यों रख गया, यह भी एक दिलचस्प कहानी है। दरअसल जिस परिवार में उनका जन्म हुआ था, वहां लगभग सात पीढ़ियों के बाद उनका जन्म हुआ था। ऐसे में इनके पिता गोविंद प्रसाद वर्मा ने इन्हें घर की देवी मानते हुए इनका नाम 'ख़ुशी' से महादेवी रखा। महादेवी वर्मा की माता का नाम हेमरानी देवी था। परिवार में महादेवी वर्मा के अलावा उनकी एक छोटी बहन और दो छोटे भाई भी थे, जिनका नाम क्रमश: श्यामा देवी, जगमोहन वर्मा एवं मनमोहन वर्मा था। अपने चार भाई बहनों में महादेवी वर्मा और उनके छोटे भाई जगमोहन वर्मा, जहां शांत एवं गंभीर स्वभाव के थे, वहीं श्यामा देवी तथा मनमोहन वर्मा चंचल, शरारती और हठी स्वभाव के थे। बचपन से कला के प्रति आकर्षित महादेवी वर्मा जीवों को लेकर भी काफी भावुक थीं, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी कई कहानियों में किया है।
बचपन में ही पड़ गए थे प्रतिभा के बीज

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साहित्य और कला के प्रति बचपन से समर्पित महादेवी वर्मा ने मात्र 7 वर्ष की उम्र से कविताएं लिखनी शुरू कर दी थी और जब 1925 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की तब तक वे एक सफल कवयित्री के रूप में स्थापित हो चुकी थीं। चित्रकारी की बात करें तो बचपन में वह जमीन पर कोयले से चित्र बनाया करती थीं, जिसके लिए कई बार उन्हें डांट भी पड़ती थी। सच पूछिए तो बचपन में अपनी सखी-सहेलियों की बजाय पशु-पक्षियों का लालन-पालन करते हुए उनके साथ खेलकूद में ही दिन बितानेवाली महादेवी वर्मा के साहित्य में जो पीड़ा, करुणा, वेदना, विद्रोहीपन, दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता है, उसकी जड़ें बचपन में ही मजबूत हो चुकी थीं। पाठशाला में हिंदी अध्यापक से प्रभावित होकर जहां वे ब्रजभाषा में महारत हासिल कर चुकी थीं, वहीं खड़ी बोली की कविता से प्रभावित होकर उन्होंने खड़ीबोली में रोला और हरिगीतिका छंदों में काव्य लिखना भी प्रारंभ कर दिया था। हालांकि उसी दौरान उन्होंने अपनी माँ से एक करुण कथा सुनी, जिसे लेकर उन्होंने सौ छंदों में एक खंडकाव्य लिख डाला, जो उनकी अनंत प्रतिभा का परिचायक है।
सुभद्रा कुमारी चौहान से थी पक्की मित्रता
1912 में इंदौर के मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई महादेवी वर्मा की शिक्षा 1916 में विवाह के कारण तीन वर्ष के लिए स्थगित हो गई थी, लेकिन विवाहोपरांत 1919 में बाई का बाग स्थित क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लेकर उन्होंने अपनी शिक्षा फिर शुरू कर दी थी। यहीं उनकी मुलाकात उस समय की प्रख्यात और प्रतिभावान कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान से हुई थी, जो इस कॉलेज में उनकी पहली सहेली थीं और अक्सर उनका हाथ पकड़कर अन्य लड़कियों को उनके कवयित्री होने का परिचय भी दिया करती थीं। यदि यह कहें तो गलत नहीं होगा कि उनकी कविताओं को निखारने में सुभद्रा कुमारी चौहान की बहुत बड़ी भूमिका रही है। गंभीर स्वभाव की महादेवी वर्मा के परिचितों की संख्या यूं तो काफी थी, लेकिन उनकी प्रगाढ़ता बेहद कम लोगों से थी। फिर भी रक्षाबंधन, होली और उनके जन्मदिन पर उनके घर जमावड़ा-सा लगा रहता था, जिनमें वह अपने मुंहबोले भाई सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के साथ सुप्रसिद्ध साहित्यकार गोपीकृष्ण गोपेश और सुमित्रानंदन पंत को राखी बांधती थीं और सुमित्रानंदन पंत उन्हें राखी बांधते थे। महादेवी वर्मा के लिए राखी रक्षा का नहीं, बल्कि स्नेह का प्रतीक था।
विवाहित होकर भी रहीं सन्यासिन सी

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रिश्तों की पारखी महादेवी वर्मा जिन परिवारों से अभिभावकों की भांति जुड़ी, उनसे ताउम्र बंधी रहीं। इनमें गंगा प्रसाद पाण्डेय का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, जिनकी पोती का कन्यादान स्वयं महादेवी वर्मा ने किया था। इसके अलावा, इलाहाबाद के लगभग सभी साहित्यकारों और परिचितों से उनके आत्मीय संबंध रहे, लेकिन मात्र 9 वर्ष की उम्र में हुए अपने विवाह को वह आजीवन स्वीकार न कर पाईं और न ही उन्होंने पति-पत्नी के रिश्ते को स्वीकारा। कारण आज भी रहस्य बना हुआ है। विवाहित जीवन के प्रति उनमें विरक्ति उत्पन्न हो गई थी, लेकिन अपने पति स्वरूप नारायण वर्मा से उनका कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बंध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा स्वरूप इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। हालांकि एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि वर्मा ने महादेवी वर्मा के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोया और कभी शीशा नहीं देखा। हालांकि अपने बाल-विवाह के अवसाद को झेलने वाली महादेवी वर्मा,बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थीं, लेकिन महात्मा गांधी के संपर्क और प्रेरणा से उनका मन सामाजिक कार्यों की ओर उन्मुख हो गया और वह उसी में रम गयीं।
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