हिंदी नाटकों में हमेशा से कई तरह के प्रयोग होते रहे हैं। फिर चाहे लेखन की दृष्टि से प्रयोग होता रहा है या फिर किरदारों को लेकर। यह कोई नयी बात नहीं है, बल्कि हिंदी नाटक के जन्म के बाद से कई प्रमुख कहानियों को लेकर हिंदी नाटकों में प्रयोग किया गया। ऐसे नाटक लिखे गए, जो कभी देशभक्ति से जुड़े रहें, तो कभी समाज के अनदेखे पहलू को प्रस्तुत करते रहे। कई बार ऐसे नाटक भी सामने आए हैं, जहां सामाजिक परिदृश्य को बखूबी दिखाया और बताया गया है। आइए प्रयोगात्मक हिंदी नाटक के बारे में विस्तार से जानते हैं।
तकनीकी तौर पर प्रयोग
हिंदी नाटकों में सबसे बड़ा मामला, हमेशा से तकनीकी पक्ष को लेकर रहा है। पहले जहां पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते रहे थे और उनके किरदारों को हिंदी रंगमंच के जरिए प्रस्तुत करते थे, वहीं वक्त के साथ महिलाओं ने अपनी जगह नाटकों में स्थापित की, जो कि रंगमंच की नजर में एक बड़ा प्रयोग माना गया है। महिलाओं को जहां केवल घर की चारदीवारी में कैद रखा जाता था, वहीं वक्त के साथ महिलाओं ने अपनी कला का विस्तार करते हुए रंगमंच पर खुद को खुलकर प्रस्तुत किया। शुरुआती दौर में इसे लेकर महिलाओं को कई तरह के विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन एक लंबे वक्त के साथ लोगों ने नाटकों में महिलाओं के होने के प्रयोग को स्वीकार किया और महिलाओं की कला का बखान भी किया। देखा जाए, तो किसी भी कला का उस समय के अनुसार सांस्कृतिक और सामाजिक बने रहना बहुत जरूरी होता है, तभी कला अपनी मौजूदगी को मजबूती से दिखा पाती है और खास तौर पर नाट्य विद्या में कला का प्रांसगिक होना और भी अधिक जरूरी हो जाता है।
कहानी में प्रयोग जरूरी
किसी भी तरह का नाटक प्रयोग की नजर से तब मजबूत बनता है, जब उसमें ऐसे प्रयोग किए जाए, जो दर्शकों को बौद्धिक, वैचारिक और यहां तक कि दार्शनिक स्तर पर सोचने और समझने पर विवश कर दे। अगर ऐसा होता है, तभी कोई नाटक अपने आप को पूर्ण महसूस करता है। यह भी माना गया है कि नाटक कला हमेशा से ही अपने आने वाले समय के लिए नई सीख लेकर आती है और लगातार प्रयोगात्मक नाटकों ने अपन पैर रंगमंच की दुनिया में पसारा है। आपको बता दें कि हिंदी रंगमंच डेढ़ सौ साल पुरानी कला है। इस दौरान सबसे अधिक प्रयोग लोकनाट्य परंपरा के दौरान रही है। लोकनाट्य पंरपरा ने ही भारतीय रंगमंच को जीवित रखा है। लोकनाट्य ने अपनी कई शैलियों के जरिए इसे जीवित रखा है। लोकनाट्य शैलियां इसलिए भी प्रचलित हुई हैं, क्योंकि किसी भी लिखित आलेख के बिना ही कलाकार मनोरंजन की नजर से कोई न कोई कहानी गढ़ कर, उस पर प्रयोग करते हुए अपनी नाट्य कला को प्रस्तुत कर देता है। खास तौर पर हिंदी नाटकों में संगीत पर आधारित नाटकों के साथ कई प्रयोग किए जाने लगें। जिसका दर्शकों द्वारा खुल कर स्वागत भी किया गया।
रामलीला और रासलीला से जुड़ी हैं जड़ें
यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि हिंदी रंगमंच की जड़ें रामलीला और रासलीला से निकलती हैं। प्रयोग की नजर से हिंदी रंगमंच पर संस्कृत नाटकों का भी प्रभाव रहा है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिंदी रंगमंच के पुरोधा रहे हैं। यह भी जान लें कि नाटक यानी कि नाट्य शब्द के मायने क्या हैं। हिंदी रंगमंच में नाट्यशास्त्र में खास तौर पर नाट्य शब्द का प्रयोग केवल नाटक के रूप में नहीं होता है, बल्कि इसके अंतर्गत रंगमंच, अभिनय, नृत्य, संगीत, रस, वेशभूषा भी शामिल होते हैं, जो कि एक नाटक को एक कहानी को कई तरह से प्रयोगात्मक बनाता है। हिंदी रंगमंच के विकास में ‘भारतेंदु नाटक मंडली’ की भूमिका प्रमुख मानी जाती है। भारतेंदु की मंडली ने मिलकर कई सारे नाटकों का मंचन किया और उसे प्रयोग की दृष्टि से लोकप्रिय भी माना गया है। ‘सत्य हरिशचंद्र’, ‘सुभ्रदा हरण’, ‘चंद्रगुप्त’ और ‘ध्रुवस्वामिनी’ प्रमुख नाटक रहे हैं। इस नाटक मंडली ने न केवल भारतेंदु के नाटकों को, बल्कि कई और लोकप्रिय लेखकों के भी नाटकों को सफलापूर्वक प्रस्तुत करते हुए हिंदी के अपने स्वतंत्र रंगमंच के विकास मार्ग को प्रशस्त किया है।
नाटकों का ऐसा बदला स्वरूप
वक्त के साथ नाटकों को प्रस्तुत करने के तरीके में भी कई तरह के प्रयोग किए गए। प्रेमचंद्र के साथ अन्य लेखकों की कहानी, जहां नुक्कड़ नाटक का प्रमुख केंद्र बन गयीं। इसके बाद एक के बाद एक कई सारे नाट्य लेखक इस तरह आगे बढ़ें। गुरुशरण सिंह, सफदर हाशमी और राधा-कृष्ण सहित कई अन्य नाटककार भी प्रयोगात्मक हिंदी नाटक की दिशा में तेजी से सक्रिय हुए। हिंदी नाटकों में प्रयोग के नजर से यह भी देखा गया कि 1980 के करीब हिंदी नाटक और रंगमंच में मौजूद सारी जटिलताओं विसंगतियों के बाद भी नाटकों में मौलिकता और मुहावरे का इस्तेमाल प्रयोग की दृष्टि से अधिक किया जाने लगा। इसी तरह से लगातार हिंदी नाटकों ने किसी न किसी तरह के नवीनीकरण के जरिए खुद को रंगमंच पर स्थापित करने के लिए और सतत बनाए रखने के लिए संघर्ष करता रहा है।
हिंदी के प्रयोगात्मक नाटक और नाटककार
‘अंधेर नगरी’ नाटक के नाटककार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने केवल एक रात में इस नाटक को लिखा है। आज भी अगर आप इस नाटक के पन्ने पलट कर देखते हैं, तो यह उतना ही सामयिक और समकालीन है। हर उम्र के लोगों को यह नाटक पसंदीदा रहा ही है। आप जान लें कि हिंदी रंगमंच पर सबसे अधिक ‘अंधेर नगरी’ नाटक का मंचन हुआ है। इस नाटक की लोकप्रियता इस कदर रही है कि भारत के 1976 के डाक टिकट पर अंधेर नगरी नाटक के लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र का चित्र भी छापा गया था। ‘ध्रुवस्वामिनी’ को जयशंकर प्रसाद ने लिखा है। इस नाटक का प्रमुख उद्देश्य एक महिला की स्वाधीनता और समता को बताना है। इस नाटक में ध्रुवस्वामिनी महिला किरदार का नाम है, जो कि अन्याय और अत्याचार को चुपचाप सह रही है। लेखक और नाटककार धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ में युधिष्ठिर के अर्धसत्य को आधार बनाकर सत्य की महिमा को दिखाया गया है। इस नाटक के पात्र महाभारत के समय का है। दिलचस्प है कि ‘अंधा युग’ में आकर ठीक वही नहीं रहते, जैसे कि वे महाभारत में दिखाए गए हैं। इस नाटक के लेखन में बड़ा प्रयोग किया गया है। ठीक इसी तरह लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लिखा हुआ नाटक ‘बकरी’ इतना लोकप्रिय हुआ है कि इसे सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया। बकरी नाटक की शैली इतनी प्रभावी है कि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लिखा हुआ यह नाटक रंगकर्मियों और दर्शकों में समान तौर पर लोकप्रिय है। इसके अलावा, कई सारे ऐसे लेखक रहे हैं, जिन्होंने लगातार अपने लेखन प्रयोग से हिंदी नाटकों को हमेशा जीवित रखने की कोशिश की है।
यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि भारतीय कला में भारतीय नाट्यकला की बहुत लंबी और समृद्ध परंपरा मिलती है, लेकिन हिंदी नाटकों में प्रयोग की रफ्तार वक्त के साथ कम होती दिख रही है। जानकारों का मानना है कि पहले के मुकाबले हिंदी नाटकों में लेखन और किरदार के नजरिए से प्रयोग कम हो रहे हैं, जो कि हिंदी नाटकों की कम होती लोकप्रियता के कारण हुआ है। जिस तरह फिल्मों के विषयों में प्रयोग कर दर्शकों को कॉन्टेंट की तरफ आकर्षित किया जाता रहा है। ठीक इसी तरह का प्रयोग हिंदी नाटकों को लेकर होना चाहिए, ताकि नाटकों में हिंदी की बिंदी कभी भी खो नहीं पाए और हिंदी नाटक अपनी गरिमा को बनाए रखें।