एक 'महाभारत' वेद व्यास ने रचा था और एक डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने। भारतीय जनमानस के दिलों में दोनों का स्थान खासा महत्वपूर्ण है। तो आइए जानते हैं मशहूर संवाद एवं पटकथा लेखक डॉक्टर राही मासूम रज़ा के बारे में।
कलियुगी महाभारत के रचैता
शायद ही कोई हो, जिसने 90 के दशक में दूरदर्शन पर प्रसारित महाभारत न देखा हो। महाभारत के लिए मेकर्स की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। लेकिन एक शख्स ऐसे भी हैं, जिन्होंने अपनी कृतियों के साथ जितनी लोकप्रियता अर्जित की, उससे कहीं ज्यादा नाम महाभारत ने उन्हें दिया। वह हैं मशहूर लेखक डॉक्टर राही मासूम रज़ा, जिन्होंने कई उपन्यास भी लिखे हैं।
जन्म और शिक्षा-दीक्षा
1 सितंबर 1925 को गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में जन्में डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एमए के साथ उर्दू में ‘तिलिस्म ए होशरुबा’ पर पीएचडी किया था। बता दें कि पीएचडी करने के बाद डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने उसी यूनिवर्सिटी में बतौर उर्दू प्राध्यापक की नौकरी कर ली थी। अगर उनकी सोच की बात की जाए तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे डॉक्टर रज़ा, साम्यवादी दृष्टिकोण वाले थे। अपने उसी दृष्टिकोण के साथ वो समाज में पिछड़े लोगों के साथ खड़े रहते थे। भारतीय साहित्य के मशहूर हिंदी-उर्दू कवि और लेखक डॉक्टर रज़ा के पिता पेशे से वकील थे और माँ नफीसा बेग़म एक गृहिणी थीं। तीन भाइयों में सबसे छोटे रज़ा के बड़े भाई मूनिस रज़ा एक शिक्षाविद थे, तो मेहदी रज़ा एक विद्वान थे। बचपन से संपन्नता के साथ पले बढ़े डॉक्टर रज़ा ने लेखन में अपना करियर बनाने से पहले काफी संघर्ष किया, लेकिन पीछे नहीं हटे।
उनके लेखन पर है कल्लू काका का प्रभाव
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्राध्यापक के तौर पर काम कर रहे डॉक्टर राही मासूम रज़ा को बचपन से ही साहित्य से लगाव हो गया था। हालांकि ये किस्सा भी काफी दिलचस्प है। माना गया है कि जब वह मात्र 11 वर्ष के थे, तब उन्हें टीबी हो गई थी। उन दिनों टीबी की कोई ख़ास दवाई नहीं हुआ करती थी। ऐसे में मरीज़ को हवा बदलने के साथ अधिक से अधिक आराम करने की सलाह दी जाती थी। पिता अपने काम में हमेशा व्यस्त रहते थे और माँ घर के कामों में। ऐसे में डॉक्टर रज़ा को घुमाने कौन ले जाता? हुआ यूं कि बचपन से पढ़ने के शौक़ीन डॉक्टर रज़ा का मन बहलाने के लिए, किताबों के साथ कल्लू काका को रखा गया, जो उन्हें कहानियाँ सुनाते थे। हालांकि साहित्य के शिखर पर विराजमान डॉक्टर रज़ा इस बात का ज़िक्र अक्सर करते थे कि उनके किस्सागोई और लेखन पर कल्लू काका से बचपन में सुनी कहानियों का काफी प्रभाव है।
एक डॉक्टर रज़ा के कई नाम थे
अध्यापन के दौरान डॉक्टर रज़ा इलाहाबाद से निकलनेवाली उर्दू पत्रिका ‘रूमानी दुनिया’ के लिए शाहिद अख्तर नामक एक अन्य नाम से लिखते थे। हालांकि इसके अलावा, कुछ उपन्यास उन्होंने आफ़ाक़ हैदर के नाम से तो कुछ आफ़ताब नासिरी के नाम से लिखे। नामों के अलावा उनके लेखन का जॉनर भी काफ़ी अलग अलग हुआ करता था। रूमानी कहानियाँ हों या जासूसी उपन्यास, कविताएँ हों या शायरी, डॉक्टर रज़ा की कलम कभी नहीं डगमगाती थी और अपना सर्वश्रेष्ठ देती थी। लेखन में क़िस्मत आज़माने के लिए मुंबई (उस वक्त बंबई) आने से पहले वह सिर्फ शायरी लिखा करते थे, लेकिन बाद में उन्होंने खुद को पूरी तरह कहानियों और उपन्यासों के सुपुर्द कर दिया था। ‘आधा गाँव’, ‘दिल एक सादा काग़ज़’, ‘ओस की बूँद’, ‘हिम्मत जौनपुरी’ (उपन्यास) और 1965 के भारत पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी ‘छोटे आदमी की बड़ी कहानी’ जैसी चर्चित कृतियाँ उसका सबूत है। गौरतलब है कि मुंबई आने से पहले डॉक्टर रज़ा अपना लेखन उर्दू में करते थे, लेकिन मुंबई आने के बाद उन्होंने खुद को पूरी तरह हिंदी को समर्पित कर दिया था। डॉक्टर रज़ा का उर्दू में लिखा महाकाव्य ‘1857’ काफी चर्चित हुआ था, जो बाद में हिंदी में ‘क्रांति कथा’ के नाम से प्रकाशित हुआ था।
बहुमुखी प्रतिभा के साथ बहु आयामी भी थे डॉक्टर रज़ा
डॉक्टर रज़ा, एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे, जो न सिर्फ एक साथ कई काम करते थे, बल्कि एक साथ काफी स्क्रिप्ट्स पर भी काम किया करते थे। अपने घर में तकिये पर लेटकर वो एक ऐसा संसार रच देते थे, जिससे हर कोई अभिभूत हो जाता था। कहते हैं डॉक्टर रज़ा की पत्नी नय्यरा को कव्वाली सुनने का बेहद शौक था, लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनका शौक डॉक्टर रज़ा के काम में बाधा बना हो। स्पष्टतावादी डॉक्टर रज़ा, कुछ मामलों में थोड़े अड़ियल भी थे, जो किसी भी सूरत में अपने उसूलों से समझौता नहीं करते थे। हालांकि इसकी वजह से कई बार उन्हें काफी मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने समझौते और संघर्ष में हमेशा संघर्ष को गले लगाया। उन्हें हिंदू-मुस्लिम भेदभाव से हमेशा परेशानी रहती थी, यही वजह है कि जब बीआर चोपड़ा के महाभारत लिखने के लिए उनका विरोध किया गया, तो इसे उन्होंने एक चुनौती की तरह लिया और इतिहास रच दिया। इससे पहले अपने उपन्यास ‘आधा गाँव’ में भी उन्होंने मुस्लिम राष्ट्रीयता को जन-जन तक पहुँचाने का सफल प्रयास किया था, जो कोई धर्म विशेष नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ भारतीय है।
पाठकों के साथ, महिला पाठकों में भी काफी चर्चित थे डॉक्टर रज़ा
जन्म से पोलियो का शिकार होने के कारण वो हल्का सा लंगड़ाकर चलते थे, लेकिन उनकी इस कमी में भी उनकी महिला प्रशंसकों ने हुस्न ढूंढ लिया था। लोगों का मानना है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मशहूर शायर मजाज़ के बाद डॉक्टर रज़ा थे, जो लड़कियों के बीच काफ़ी लोकप्रिय थे। गौरतलब है कि अपनी भावी पत्नी नय्यरा से डॉक्टर रज़ा की पहली मुलाक़ात यहीं हुई थी। ऐसा माना जाता है कि डॉक्टर रज़ा यारों के यार थे, तो दुश्मनों के दुश्मन भी थे। विशेष रूप से मनुष्य को धर्म के खांचे में बंद कर, संकीर्ण मानसिकतावादी लोगों से उनका छत्तीस का आंकड़ा रहता था।
फिल्मों में लेखन और ख्याति
फिल्मों के प्रति डॉक्टर रज़ा का झुकाव बचपन से ही था। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के दौरान भी वे फिल्मों के प्रति आसक्त थे और हर फिल्म को तीन से चार बार देखते थे और नोट्स बनाते रहते थे। मुंबई आने के बाद उनकी दोस्ती धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती और सारिका के संपादक कमलेश्वर से हो गई थी, जो स्वयं एक लोकप्रिय साहित्यकार थे। मुंबई जैसे अजनबी शहर में डॉक्टर रज़ा की रोज़ी रोटी का ख्याल रखते हुए, ये दोनों न सिर्फ उन्हें कहानी लिखने का अग्रिम भुगतान कर देते थे, बल्कि अपने फिल्मी कनेक्शन का उपयोग कर वे उन्हें निर्माता निर्देशकों से भी मिलवाते रहते थे। सच पूछिए तो बी आर चोपड़ा के साथ राज खोसला जैसे नामी निर्देशकों से मिलवाने और उनके साथ काम करने का श्रेय इन्हीं दोनों को जाता है।
उनकी उपलब्धियों में पैसों का मोल नहीं था
अपनी कहानियों के माध्यम से छोटे परदे के साथ रुपहले परदे पर अपनी अमिट छाप छोड़नेवाले डॉक्टर रज़ा को फिल्म ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ की पटकथा के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार और ‘मिली’ के लिए सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक का पुरस्कार मिला है। फिल्मों के अलावा, भारत सरकार की ओर से उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। हालांकि अपनी कृतियों के माध्यम से डॉक्टर रज़ा ने पुरस्कार और सम्मान काफी कमाया, लेकिन रुपये कमाने में वह सदैव पीछे रहे और उसकी वजह है रुपयों के प्रति उनकी अनासक्ति। कहते हैं, फिल्म इंस्टीट्यूट से जुड़ा कोई उनसे फिल्म लिखवाने आता था, तो वह उससे एक रुपया नहीं लेते थे। सिर्फ यही नहीं कितनी फिल्मों की कहानियाँ तो उन्होंने एक किलो कलाकंद, एक पान के बीड़े और रेड मार्लबोरो सिगरेट के एक पैकेट लेकर लिख दिए हैं। फिल्म लिखने की डिमांड लेकर अपने यहां आनेवालों को वह कभी निराश नहीं करते थे। मस्तमौला किस्म के डॉक्टर रज़ा की एक आदत ये भी थी कि उन्हें लोगों से घिरा रहना अच्छा लगता था। जहाँ दूसरे लेखक लिखने के लिए एकांत तलाशते थे, वहीं डॉक्टर रज़ा मुंह में पान दबाए, अपने गावतकिये( मसलंद/ तकिया ) पर कव्वाली सुनते और लोगों से बात करते हुए लिखते थे।
उनकी चर्चित फ़िल्में और कृतियाँ
64 वर्ष की आयु में 15 मार्च 1992 को हम सबको छोड़कर सुपुर्द-ए-ख़ाक़ होनेवाले डॉक्टर रज़ा ने 300 से अधिक फ़िल्में और दूरदर्शन के लिए 100 से अधिक धारावाहिक लिखे हैं। इनमें ‘नीम का पेड़’ और ‘महाभारत’ अविस्मरणीय है। फिल्मों में ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’, ‘डिस्को डांसर’, ‘किसी से न कहना’, ‘आलाप’, ‘गोलमाल’, ‘क़र्ज़’, ‘जुदाई’, ‘हम पाँच’, ‘अनोखा रिश्ता’, ‘बात बन जाए’, ‘नाचे मयूरी’, ‘अवाम’, ‘लम्हें’, ‘परम्परा’ और ‘आईना’ प्रमुख हैं। हिंदी साहित्य में डॉक्टर रज़ा के योगदान की बात करें तो ‘आधा गाँव’, ‘नीम का पेड़’, ‘कटरा बी आर्जू’, ‘टोपी शुक्ला’, ‘ओस की बूँद’ और ‘सीन 75’ उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।