कमलेश्वर का जन्म 6 जनवरी 1932 में हुआ था। वह 20 वीं शताब्दी के सबसे सशक्त लेखकों में से एक माने जाते रहे हैं। उन्होंने कई कहानियां, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा और ऐसी कई विधाएं लिखी हैं। उन्होंने अनेक हिंदी फिल्मों के लिए पटकथाएं भी लिखीं। साथ ही उन्होंने दर्पण, चंद्रकांता, बेताल पच्चीसी और विराट युग लिखे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर आधारित पहली प्रामाणिक और इतिहासपरक हिन्दुस्तां हमारा का भी लेखन किया। कमलेश्वर का पूरा नाम कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना है, इनका जन्म उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में 6 जनवरी 1932 को हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने सारिका, कथा यात्रा और ऐसे कई लेखन किये। आइए पढ़ते हैं उनकी कुछ रचनाएं।
अदालती फैसला
अदालत में एक संगीन फ़ौजदारी मुकद्दमे के फ़ैसले का दिन। मुकद्दमा हत्या की कोशिश का था, क्योंकि जिसे मारने की साजिश की गई थी, वह गहरे जख्म खाकर भी अस्पताल की मुस्तैद देखभाल और इलाज की बदौलत जिन्दा बच गया था।
इस मुकहमे में पाँच अभियुक्त थे। जज ने फैसला सुनाया :
-अभियुक्त नं. 1 को पर्याप्त सबूत न होने के कारण बरी किया जाता है, लेकिन हालात और साक्ष्यों से जो कुछ इस अदालत के सामने आया है, उसे देखते हुए अभियुक्त नं. 1 पर जख्मी फर्द के इलाज और दवा-दारू के लिए एक लाख रुपया जुर्माना किया जाता है!
अदालत के फ़ैसले के बाद अभियुक्त नं. 1 जुर्माना चुकाकर राजनीति में चला गया और एक बड़ा राजनेता बन गया।
अदालत ने अभियुक्त नं. 2 का फ़ैसला सुनाया-इस अभियुक्त नं. 2 ने जख्मी फर्द पर गँड़ासे जैसे धारदार हथियार से वार किया, इसलिए इसे सात साल की बामशक्कत कैद की सजा दी जाती है।
अदालत के फैसले के मुताबिक अभियुक्त नं. 2 ने सजा काटी और बाहर आकर वह पेशेवर हत्यारा बन गया।
अदालत ने अभियुक्त नं. 3 की सजा सुनाई-लगता है कि जुर्म के हालात को यह शख्स बखूबी तैयार कर सकता है और उन्हें लागू करने के फर्जी सबूत भी दे सकता है, इसलिए इसे एक साल की सजा और एक हजार रुपया जुर्माना किया जाता है!
अदालत के फैसले के मुताबिक अभियुक्त नं. 3 ने जुर्माना अदा किया, एक साल की सजा काटने के बाद वह सरकारी संस्थानों के निर्माणों का ठेकेदार बन गया।
अदालत ने अभियुक्त नं. 4 की सजा सुनाई-5000 रु. जुर्माने के साथ इसे साक्ष्य के अभाव में बरी किया जाता है।
पाँच हजार जुर्माना अदा करने के बाद अभियुक्त नं. 4 ने किराने की दुकान खोली और वह एक जनरल स्टोर का मालिक बन गया।
अदालत ने अभियुक्त नं. 5 को बेदाग बरी कर दिया।
अभियुक्त नं. 5 बरी होने के बाद भी जानता था, उसका निकटतम समाज उसे बरी नहीं करेगा। वह सन्यासी बन गया।
अपनी-अपनी दौलत
पुराने ज़मींदार का पसीना छूट गया, यह सुनकर कि इनकमटैक्स विभाग का कोई अफसर आया है और उनके हिसाब-किताब के रजिस्टर और बही-खाते चेक करना चाहता है।
अब क्या होगा मुनीम जी ? ज़मींदार ने घबरा कर कहा-कुछ करो मुनीम जी...
-हुजूर ! मैं तो खुद घबरा गया हूँ....मैंने इशारे से पेशकश भी की...चाहा कि बला टल जाए। एक लाख तक की बात की, लेकिन वह तो टस-से-मस नहीं हो रहा है...मुनीम बोला।
-तो ? हे भगवान...मेरी तो साँस उखड़ रही है....
तब तक रमुआ पानी ले आया। ज़मींदार ने पानी पिया...पर घबराहट कम न हुई।
-हिन्दू है कि मुसलमान ?
सिख है !
-तो अभी लस्सी-वस्सी पिलाओ। डिनर के लिए रोको। सोडा-पानी का इन्तज़ाम करो, फकीरे से बोल तीन-चार मुर्गे कटवाओ और उनसे कहो, हम सारा हिसाब दिखा देंगे, पर आप शहर से इतनी दूर से आए हैं...हमारे साथ ड़िनर करना तो मंजूर करें...
मुनीम घबराया हुआ चला गया। पाँच मिनट बाद ही मुनीम अफसर को लेकर ज़मींदार साहब के प्राइवेट कमरे में आया। ज़मींदार साहब ने घबराहट छुपा कर, लपकते हुए उसका स्वागत किया। उसे खास चांदी वाली कुर्सी पर बैठाया।
—आइए हुज़ूर ! तशरीफ रखिए...यहाँ गाँव आने में तो आपको बड़ी तकलीफ होगी....ज़मींदार साहब ने अदब से कहा।
—अब क्या करें ज़मींदार साहब, हमें भी अपनी ड्यूटी करनी होती है। आना पड़ा...अफसर बोला।
तब तक लस्सी के गिलास आ गए।
-यह लीजिए हुज़ूर ! ज़मींदार साहब बोले—शाम को हम और आप ज़रा आराम से बैठेंगे...आप पहली बार तशरीफ लाए हैं...
-जी हाँ, जी हाँ....लेकिन मुनीम से कहिए, पिछले तीन सालों के हिसाब-किताब के कागजात तैयार रखें ...ज़मींदार के फिर पसीना छूट गया। उसने खुद को संभाला। पसीना पोंछ कर बोला—अरे हुज़ूर पहले शाम तो गुज़ारिए....फिर रात को आराम फरमाइए...सुबह आप जैसा चाहेंगे, वैसा होगा....
तभी नौकर ने आकर मालिक को जानकारी दी-मालिक ! रात के लिए फकीरे के यहाँ से कटे मुर्गे आ गए हैं...मालकिन पूछ रही हैं कि चारों शोरबे वाले बनेंगे या आधे भुने हुए और आधे शोरबे वाले ?
-बताइए हुजू़र; कैसा मुर्ग पसन्द करेंगे ? शोरबे का या भुना हुआ, या दोनों ! ज़मींदार साहब ने पूछा।
इनकमटैक्स अफसर एकदम कच्चा पड़ गया। कहने लगा-ज़मींदार साहब मैं चलता हूँ...
-अरे क्यों ? कहाँ ? हमसे कोई गलती हो गई क्या ?
-नहीं, नहीं, लेकिन आपके साथ बैठकर मुर्ग खाने की मेरी औकात नहीं है। वैसे आपके मुनीम जी ने मुझे एक लाख देने की पेशकश की थी। लेकिन मैं अब आप से अपना इनाम लेकर जाना चाहता हूँ !
ज़मींदार और सारे कारकुन चौंके कि आखिर यह माजरा क्या है?
ज़मींदार साहब भी चौंके ।
-लेकिन आप...?
-हुजू़र ! मैं एक लाख रुपये की रिश्वत लेकर भी जा सकता था। पर नहीं, मुझे तो आपसे बस अपना इनाम चाहिए !
-इनाम !
-जी हुज़ूर! मैं इनकमटैक्स अफसर नहीं, मैं तो आपकी रियासत का बहुरूपिया किशनलाल हूँ। सोचा, अपनी कला दिखाकर आपसे ही कुछ इनाम हासिल किया जाए....
ज़मींदार भड़क गया-तो तू किशनू धानुक है...रामू धानुक का आवारा बेटा! अरे हरामजादे, तेरी वजह से मुझे हार्ट-अटैक भी हो सकता था....तेरा इनाम-विनाम तो गया भाड़-चूल्हे में। अगर सदमे से मुझे कुछ हो जाता तो?...मैं हुक्म देता हूँ, हमारी रियासत छोड़ कर कहीं भी चला जा। यहाँ दिखाई दिया तो मैं तेरे हाथ-पैर तुड़वा दूँगा!
बहुरूपिये कलाकार किशनलाल को इनाम तो नहीं ही मिला, डर के मारे उसे वह कस्बा भी छोड़ना पड़ा।
फिर कई बरस बाद ज़मींदार के उसी गाँव में एक बूढ़ा साधु आया। वह एक पीपल के पेड़ के नीचे धूनी रमा के बैठ गया। वह किसी से कुछ माँगता नहीं था। उसके प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ने लगा। वह थोड़ा प्रवचन भी देने लगा। लोगों ने उसकी कुटिया बनवाने की बात की तो उसने मना कर दिया। वह जाड़े, गर्मी, बरसात में वहीं पीपल के नीचे बैठा ध्यान, भजन, प्रवचन में खोया रहता। उसकी कीर्ति फैलने लगी। दूर-दूर क्षेत्रों से लोग उसके दर्शन करने आने लगे।
एक दिन ज़मींदारिन भी उसके दर्शन करने आईं। उन्होंने श्रद्धा से दक्षिणा दी। साधु ने वह धन ग्राम पंचायत को दान में दे दिया। प्रवचन देते समय उसने कहा-यह धन मेरा अर्जित धन नहीं था। मैंने इसे अपने श्रम से नहीं कमाया था...यह समाज का धन है, उसी तरह समाज के पास लौट जाना चाहिए जैसे वर्षा का जल सागर में लौट जाता है......
श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ने लगी। ज़मींदारिन रोज उसके दर्शन करने आने लगीं। एक दिन उन्होंने ज़मींदार साहब से कहा-क्यों न हम साधु जी को हवेली में ले आएं। वे जाड़े, गर्मी, बरसात में वहीं पीपल के नीचे बैठे रहते हैं, बारिश के दिनों में वहाँ बहुत कीचड़ हो जाती है। भक्तों को बड़ी असुविधा होती है।
ज़मींदार साहब ने हां कर दी, बड़ी धूम-धाम से ज़मींदारिन साधु महाराज को हवेली में ले आईं। भक्त वहीं आने लगे।
ज़मींदारिन ने भक्तों के लिए भण्डारा शुरू करवा दिया। प्रवचन देते समय साधु महाराज ने कहा...पेट तो पशु भी भर लेता है...पर मनुष्य के पास एक और पेट होता है, वह है विद्या और ज्ञान का खाली पेट! यदि वह नहीं भरता तो भण्डारे का भोजन व्यर्थ चला जाता है।
ज़मींदार-ज़मींदारिन ने साधु की बात को समझा। उन्होंने ग्राम पंचायत को धन दे कर गाँव में एक पाठशाला खुलवा दी। पर एक समस्या सामने आई। उसमें पढ़ने के लिए बच्चे आते ही नहीं थे। तब साधु ने एक दिन प्रवचन में कहा-जो भक्त मेरे दर्शनों के लिए आते हैं, यदि वे अपने बच्चों को पाठशाला में नहीं भेजते तो उनसे मेरा निवेदन है कि वे मेरे दर्शन के लिए न आएँ!
साधु महाराज की बात का असर हुआ। पाठशाला में बच्चे पहुँचने लगे। भक्तों की भीड़ भी और बढ़ने लगी।
ज़मींदार और ज़मींदारिन ने दुनिया का दूसरा चेहरा देखा। और एक रात, जब सारे भक्त जा चुके थे, उन्होंने अपनी सारी धन-सम्पदा लाकर साधु महाराज के चरणों में रख दी-महाराज! आप जैसे चाहें, हमारी इस अकूत सम्पदा और सम्पत्ति का उपयोग करें।
दूसरे दिन सुबह भक्त आने लगे पर साधु का कहीं पता नहीं था। ज़मींदार और ज़मींदारिन सकते में आ गए। पूरी हवेली की तलाशी ली गई। उस साधु की परछाईं तक वहाँ नहीं थी। वह साधु सारी धन-सम्पदा लेकर चम्पत हो चुका था। ज़मींदार और ज़मींदारिन के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ था। तभी भक्तों की उत्तेजित और नाराज भीड़ में वही पुराना बहुरूपिया किशनलाल दिखाई दिया। ज़मींदार का गुस्सा तो सातवें आसमान पर था ही। वे भड़क उठे-
-इतने बरसों बाद किशनू तू यहाँ! मैंने तो तुझे देश निकाला दिया था। तू यहाँ क्या करने आया है?
-हुज़ूर! मैं अपना इनाम लेने आया हूँ!-किशनलाल ने अदब से कहा।
-कौन सा इनाम? किस बात का इनाम?
-हुजूर! पिछला इनाम भी, जो आपने नहीं दिया था और इस बार का इनाम भी!
-इस बार का इनाम!-लोग भौंचक्के थे।
-जी हुज़ूर! वो साधु मैं ही तो था, जिसे कल रात आपने सारा खजाना सौंप दिया था!
लोगों को विश्वास नहीं हुआ। ताज्जुब से ज़मींदार ने पूछा-तू ही वह साधु था?
-जी हुज़ूर!
-तो वो सारी धन-दौलत कहाँ है जो मैंने तेरे हवाले की थी।
-हुज़ूर! वो सारी दौलत हवेली की पिछवाड़े वाली कोठरी में सही- सलामत रखी है!
नौकर-चाकर दौड़ पड़े। वे खजानेवाली गठरी उठा के ले आए। वह उसी की साधुवाली धोती में बँधी थी। गठरी खोल के देखी गई। सारी दौलत के साथ ही उस में उसकी दाढ़ी-मूंछ भी रखी थी। उसका गेरुआ कुर्ता और रुद्राक्ष की माला और अन्य मालाएँ भी, जो वह साधु के रूप में पहनता था।
भक्तों की पूरी भीड़ ने राहत की साँस ली। ज़मींदार-ज़मींदारिन उसे ताज्जुब से देख रहे थे।
-अरे पागल! तब तू इनाम क्यों माँग रहा था? तू तो यह सारी दौलत लेकर भाग भी सकता था।
-भाग तो मैं जरूर सकता था हुज़ूर...लेकिन तब साधुओं पर से लोगों का विश्वास उठ जाता हुज़ूर...
लोगों ने उसे आँखें फाड़-फाड़ कर आश्चर्य से देखा। ज़मींदार और ज़मींदारिन ने भी। सबकी आंखों में अचरज था। कितना बेवकूफ आदमी है यह...अपनी सच्चाई न बताता और सारा खजाना लेकर भाग जाता तो ज़मींदार भी क्या कर लेता...
किशनू बहुरूपिया अपने इनाम के इन्तज़ार में चुपचाप खड़ा था।
तभी ज़मींदार साहब ने कहा-किशनू! यह जो तेरे साधु के कपड़े, मालाएँ वगैरह पड़ी हैं, इन्हें तो उठा ले!
-वो तो मैं उठा लूँगा....पर मेरा इनाम? वह तो दे दीजिए!
-सचमुच हमें तेरी अकल पर बड़ा तरस आ रहा है किशनू.... ज़मींदार साहब बोले-तू सचमुच मूरख है।-
-हुजूर! आखिर मैं कलाकार हूँ न...हम मूरखों से ही यह दुनिया चलती है.... मुझे तो सिर्फ अपना इनाम चाहिए! आपकी धन-दौलत नहीं...