लम्बे समय बाद अपने ननिहाल आया हूं. और वो भी अपनी नानी की मृत्यु पर. अंततः नानी के साथ उनके अनंत असमाप्त दुःखों को भी कहीं कोई ठौर मिल ही गया.
मेरी नानी अंधी थी लेकिन उसने दुनिया देखी थी. साठ की उम्र में उनकी आंखों में आया मोतियाबिंद उनकी आंखों की रोशनी लेकर ही गया और शेष उम्र उन्होंने इसी अंधत्व में काटी. अस्सी की उम्र तक भी वह तन से हट्टी-कट्टी रही. और यदि ईश्वर ने इस बुढ़ापे में उनकी आंखों की रोशनी नहीं छीनी होती तो वह किसी वजह से ईश्वर को नहीं कोसतीं. जबकि उनका जीवन दुःखों का एक पहाड़ रहा था, लेकिन अपने उन दुःखों के लिए वे ईश्वर को कभी नहीं सरापती थीं. क्योंकि उन दुःखों की वे आदी थीं, लेकिन साठ की उम्र में आए इस अंधत्व ने उन्हें लगभग असहाय बना दिया था जबकि शरीर से वे स्वस्थ थीं. ख़ैर यदि साठ की उम्र में जब उनकी आंखों में मोतियाबिन्द आया था, उनकी आंखों का ऑपरेशन सफल हो गया होता, तब भी वह ईश्वर को धन-धन आशीषतीं ही. लेकिन ईश्वर के खाते में शायद मेरी नानी की गालियां लिखी थीं. मेरी नानी के उलाहने लिखे थे. और फिर ईश्वर के नीचे भी कोई अंधेरा होगा, वो मेरी नानी की गालियां पिछले बीस बरसों से सुनता आ रहा था, मगर उन पर और किसी तरह की आपद या विपद नहीं ला पाया था.
नानी की आंखों में मोतियाबिन्द शायद मेरे जन्म के पहले आया होगा लेकिन ऑपरेशन मेरे जन्म के बाद हुआ यानी अंधत्व बाद में आया. कुल मिलाकर यह साबित करना चाहता हूं कि मेरी नानी ने मुझे पैदा होने के बाद देखा था. बाद में वह मुझे अपने मन की आंखों से देखती रहीं. और यक़ीनन उसके अनुभवी मन ने उसे दर्पण की तरह मेरा यही चेहरा दिखाया होगा.
मैं नानी का लाड़ला था. बहुत लाड़ला. इतना कि मुझे भ्रम हो गया था कि मेरी दोनों बहनें और ननिहाल के दूसरे ममेरे भाई-बहन इस वजह से मुझसे जलते हैं. छुट्टियों में या रक्षाबन्धन के त्यौहार पर या किसी ब्याह-शादी जैसे अवसर पर जब भी हम अपने ननिहाल में होते थे, हमारी ख़्वाहिशों को पंख लग जाते थे. हमारा ननिहाल था तो गांव में लेकिन वह एक भरा-पूरा गांव था. यदि आबादी थोड़ी और होती, तो वह किसी छोटे-मोटे क़स्बे का भ्रम देता.
हमें अपने ननिहाल से प्यार था. बहुत प्यार. इतना कि बचपन में हम ननिहाल में ही रहना चाहते थे. और जब छुट्टियों के बाद ननिहाल से लौटते थे. हमारे चेहरों की वो बेख़ौफ़ और प्राकृतिक हंसी वहीं छूट जाती थी. मेरी तरह शायद मेरी बहनें भी इस भ्रम का शिकार रही होंगी कि हमारी हंसी अपने ननिहाल में हमसे कहीं छूट जाती थी. हर बार. वहां बिट्टू था, माधव था, देवकरण था, रोशनी और कल्याणी थे. सब मेरे हम उम्र या उसके आसपास के होगे. बड़ी बहनों की हमउम्र ममेरी बहनें और भाई भी थे. कुल मिलाकर मेरा ननिहाल एक भरा-पूरा परिवार था. चार मामा और उनके तेरह बच्चे. और दो मौसियां भी थीं, जिनमें से एक ब्याह के लायक थी, जबकि मेरे नाना दोनों के लिए अच्छा वर-घर तलाश रहे थे.
हम सारे बाल-गोपाल तब नानी के उस लम्बे-चौड़े आंगन में दिन भर धमा-चौकड़ी करते थे और रात में इकट्ठे सोते थे. नानी का आंगन इतना बड़ा था कि हम सारे बच्चे, नाना-नानी और दूसरे मेहमान भी उसमें पैर पसारकर सो जाएं, तब भी वह आधा ख़ाली रह जाए.
मैं जब तक ननिहाल में रहता, नानी के पास ही सोता था और देवकरण भी. नानी के एक तरफ़ मैं तो दूसरी तरफ़ देवकरण. नानी हमें सोने से पहले रोज़ कोई कहानी सुनाती थीं. अगर वह नहीं सुनातीं तो हम सब ज़िद करके उससे सुनते. नानी के पास भी न जाने कितनी कहानियों का जखीरा था. आज सोचता हूं तो लगता है नानी में कहानियां बनाने की अद्भुत विद्या थी. कईं बार तो वह जीवन से क़िस्सों को उठाती थी और उन्हें कहानियों की तरह सुना देती थी.
मुझे उसकी सुनाई हुई अधिकांश कहानियां समय के साथ अब याद नहीं रहीं, लेकिन जो याद हैं, उनमें से एक काबर की कहानी आज भी स्मृति में कौंधती रहती है.
नानी हम दोनों के ललाट और सिर के बालों में हल्के-हल्के हाथ फिराते हुए अपनी कहानी शुरू करती,
-‘किस्सा मऽ किस्सो
देव भाई को हिस्सो
पप्पू भाई को पिस्सो
बिट्टू भाई मांगऽ पाणी
अब शुरू वेरी कहाणी.’
बहुत साल पहले की बात है. सुन्दर नगर नाम का एक नगर था. वहां का राजा बहुत तेजस्वी, प्रजापालक और धर्मवीर था. उसके राज्य में यज्ञ, कथाएं, पूजा-पाठ, मंदिरों का निर्माण जैसे धर्म कर्म के कार्य निरंतर चलते रहते थे. राजा रोज़ दरबार लगाता था और बहुत न्यायपूर्वक लोगों की समस्याएं हल करता था. ऐसा कभी नहीं हुआ था कि राजा के फ़ैसले से किसी के साथ अन्याय हुआ हो. राजा बहुत दानशील और संयमित जीवन जीता था. राजा के तीन पुत्र थे. दो का विवाह हो चुका था और एक विवाह योग्य था. विवाह योग्य राजकुमार का नाम वीर प्रताप था. वीर प्रताप अपने पिता रूद्र प्रताप की तरह तेजस्वी और जनसेवक था.
दोनों पिता-पुत्र रोज़ सवेरे भोर होने से पहले नगर की कांकड़ से होकर बहने वाली नदी सन्तधारा के किनारे बने प्राचीन शिवमंदिर में दर्शन के लिए आते थे. पहले वे सन्तधारा के शीतल और पवित्र जल में स्नान करते फिर शिवपिण्डी के दर्शन कर पूजा पाठ करते थे. रोज़ यही क्रम चलता था.
मगर एक दिन कुछ अजीब घटा.
हुआ यह कि रोज़ की तरह राजा और उसका पुत्र मंदिर में दर्शन के लिए आए. पूजा-पाठ के उपरांत जब अपने विशाल रथ में बैठकर महल की ओर लौट रहे थे, तब रास्ते में एक झोपड़ी में से उन्हें एक स्त्री स्वर सुनाई दिया,
-‘राजा तू महान है
तेरी बड़ी शान है
सब करते तेरा गुणगान है
मगर तू इस बात से अंजान है
कि तेरे बेटे में मेरी जान है.’
राजा और राजकुमार दोनों वह कोमल स्त्री स्वर सुनकर हैरान रह गए. राजा ने आसपास देखा तो उसे कोई नज़र नहीं आया. तब राजा ने झोपड़ी की सांकल खटखटाई और मकान मालिक को उठाया. मकान मालिक अपने राजा को अपने सामने प्रत्यक्ष देख सकपकाकर रह गया और विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर खड़ा हो गया.
राजा ने मकान मालिक को बताया कि उन्होंने अभी-अभी उसकी झोपड़ी से किसी स्त्री स्वर को सुना. मकान मालिक यह सुनकर हैरान रह गया. उसने बताया कि उसकी स्त्री इन दिनों अपने मायके में है और इस समय घर में उसके अलावा और कोई नहीं है. राजा भी यह सुनकर पसोपेश में पड़ गया.
राजा और राजकुमार दोनों हैरान-परेशान अपने महल में लौटे. और राजमहिर्षी से इस बारे में चर्चा की. मगर वे भी कोई ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगा पाए.
दूसरे दिन प्रातः जब दोनों पिता-पुत्र शिवपूजन के बाद मंदिर से लौट रहे थे, तब रास्ते में उसी झोपड़ी के निकट उन्होंने फिर उसी स्त्री स्वर को सुना,
-‘राजा तू महान है
तेरी बड़ी शान है
सब करते तेरा गुणगान है
मगर तू इस बात से अंजान है
कि तेरे बेटे में मेरी जान है.’
राजा फिर हैरान होकर इधर-उधर देखने लगा. उस झोपड़ी में आज भी कोई स्त्री नहीं थी. आसपास भी कोई और नहीं था. राजा और राजकुमार दूसरे दिन भी हैरान-परेशान महल में लौटे और पूरे दिन इस विषय पर मंत्रीगणों और अन्य विद्वानों से चर्चा करते रहे. मगर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए.
यही क्रम लगभग अगले सात दिनों तक चलता रहा. दोनों पिता-पुत्र मंदिर दर्शन से लौटते और रास्ते में उसी झोपड़ी के पास उस स्त्री स्वर को सुनते. लेकिन एक दिन कुछ यूं हुआ.
राजा और राजकुमार दोनों जब लौट रहे थे, उस झोपड़ी के पास आकर ख़ुद ही ठहर गए और उस स्त्री स्वर को ध्यान से सुनने लगे. राजा को यक़ीन था कि यह स्वर इसी झोपड़ी के आसपास से आता है. तब राजा उस झोपड़ी के पास आकर हैरानी से सारी चीज़ों और झोपड़ी को देखने लगा. तब राजा को पिंजरे में बंद एक काबर दिखाई दी. राजा ने संदेह के साथ उस काबर को देखा. काबर देखने में बहुत सुन्दर थी और उसके पंख स्वर्ण के समान अद्भुत आभा वाले थे. राजा को देखकर काबर विनम्रतापूर्वक बोली, -‘‘प्रणाम राजन्.’’
राजा काबर को बोलते हुए सुनकर दंग रह गया. राजकुमार भी पास में खड़ा लगभग अचरज से आंखें फाड़े उस काबर को देख रहा था. काबर ने राजकुमार को भी बड़े सम्मान के साथ देखा और अपने पंख फड़फड़ाते हुए बोली, ‘‘प्रणाम युवराज !’’
राजा ने उस काबर के अभिवादन के उत्तर में मुस्कराकर उसे आशीष दिया. फिर बोले, ‘‘काबर रानी! आप कौन हैं ? और आप मेरे बेटे को लेकर यह क्या बोलती हैं ?’’
काबर बोली, ‘‘राजन! मैं दक्षराज की पुत्री अनुपमा हूं. एक महर्षि के श्राप के कारण पक्षी बन गई हूं.’’
राजा ने काबर की बात सुनकर दुःख और अचरज प्रकट किया, फिर विस्मय से पूछा, ‘‘कैसा श्राप बेटी?’’
‘‘दरअस्ल राजन्! मेरे पैरों की ठोकर से एक महर्षि के कमंडल का जल गिर गया था. तब उस महर्षि ने क्रोधित होकर मुझे काबर में तब्दील होने का श्राप दे दिया. मैं बहुत रोई, गिड़गिड़ाई और उनसे क्षमा मांगी तब उन्होंने बताया कि वे अपना श्राप वापस तो नहीं ले सकते लेकिन उसे कम कर सकते हैं और श्राप से मुक्ति का उपाय बता सकते हैं.’’
राजा अचरज से काबर की बात सुन रहा था. राजकुमार के चेहरे पर भी वैसा ही अचरज था.
काबर आगे बोली, ‘‘उस महर्षि ने मुझे बताया कि सुन्दर नगर में एक धर्मपरायण राजा है. यदि उसके पुत्र के साथ तुम्हारा विवाह हो जाए और वह अगले तीन वर्ष तक तुम्हारी सेवा करते हुए अपने विवाह को गोपन रख सके तो तुम वापस अपने इस शरीर को प्राप्त कर लोगी और तुम्हारा शेष जीवन सुखमय होगा.’’
राजा काबर की बात सुनकर चिंता में पड़ गया. तब राजकुमार वीर प्रताप ने आगे होते हुए अपने पिता से विनम्रतापूर्वक कहा कि, ‘‘पिताश्री मुझे इस काबर की बात पर पूर्णतः विश्वास है. यदि आप आज्ञा दें तो मैं इससे विवाह करूंगा. और इस विवाह को तीन वर्ष तक गोपन रखूंगा.’’
राजा ने भी अपने पुत्र के प्रस्ताव से सहमत होते हुए कहा, -‘‘जैसी तुम्हारी इच्छा पुत्र. मैं भी तुम्हारे इस विवाह को रहस्य ही रखूंगा, जब तक कि काबर, वापस अपने शरीर को प्राप्त नहीं कर लेती.’’
नानी की सुनाई हुई यह कहानी लगभग यहीं कहीं तक आती और हम नींद के आगोश में होते थे. कहानी हमारे सपनों में अपनी-अपनी कल्पनाशक्ति से आगे बढ़ती.
लेकिन नानी की आंखों में कहानी के बाद एक ठहरी हुई चुप्पी होती और जमे हुए आंसू भी. नानी अपनी कही हुई कहानी में अपने असमाप्त दुःखों को तलाशती. नानी की स्मृतियां उसे उठाकर अपने अतीत में बहुत पहले अपने बचपन में कहीं छोड़ आती, जहां वे देखतीं कि महज़ एक रोटी ज़्यादा खा लेने पर उनकी मां उन्हें कच्चे मसाले की तरह कूट रही होतीं.
नानी की देखतीं कि उन्होंने एक दफ़ा अपने भाई के दूध के गिलास से बचा हुआ दूध पी लिया और ऐसा करते हुए उनके पिता ने देख लिया था. फिर क्या था, वे थरथर कांप रही थी और उनके पिता के हाथ में पीलू के पेड़ की हरीकच्च सोंटी चमचमा रही थी.
नानी देखतीं कि वे शौच के लिए रात में अपनी काकी के साथ जा रही थी और रास्ते में उन्हें गांव के दो लड़कों ने छेड़ दिया. घर आकर युवा होती नानी की सुताई हो गई, यह कहकर कि ज़रूर इसने ही उन लड़कों को देखकर देखा-मुस्कराया होगा वर्ना कोई इस तरह किसी को छेड़ने की हिम्मत कैसे कर सकता है ?
नानी के असमाप्त दुःखों के चलचित्र उनकी आंखों के सामने से होकर गुज़र रहे थे. हर दृश्य में दुःख की अनंत चलित तस्वीरें थीं, जो आंसुओं से धुंधली पड़ती जा रही थीं. नानी अपने पल्लू से उन्हें पोंछती और अंधेरे के किसी कोने में जो कि दिन में भी उनके लिए काला ही होता था, फेंक देती थी. नानी किसी दृश्य में देखतीं कि उनके सपनों में एक राजकुमार आता था, जो एक शाही घोड़े पर सवार होता था. वह नानी को उनके नाम ‘जानकी’ से सम्बोधित करता और उन्हें अपने घोड़े पर बैठाकर दूर कहीं ले जाता. युवा जानकी उस हवा में उड़ने वाले घोड़े पर बैठकर उस राजकुमार के साथ अपने पिता के घर की तरफ़ दोबारा न देखती हुई, कहीं चली जा रही थी. फिर कभी न वापस लौटने के लिए.
तभी युवा जानकी के गालों पर तड़ऽ से कोई तमाचा पड़ा और उनकी नींद खुल गई. वह कुछ और समझ पाती, तब तक दो चांटे और खा चुकी थीं. यह महज़ पांच-दस मिनट ज़्यादा सो लेने की सज़ा थी या नींद में उनके मुस्कराने की, नानी कभी नहीं जान सकी थीं. लेकिन उसी दिन शाम होते न होते तक युवा जानकी का विवाह उनसे दस वर्ष अधिक उम्र के रामदीन के साथ तय कर दिया गया था. युवा जानकी के सपनों में फिर कोई राजकुमार नहीं आया.
नानी की आंखों के सामने से अतीत की स्मृतियों के हिस्से रील-बाय-रील फिसल रहे थे. युवा जानकी जब ब्याह होकर ससुराल आई तो उसे तीन-तीन ननदों के तानों से युक्त ससुराल मिला और सास की जली-कटी-भुनी अलग से.
नवविवाहित जानकी के हाथों की मेहंदी भी फीकी नहीं पड़ी थी, जब उसके मध्यम रंग के बदन को गरम सरिए से महज़ इसलिए दाग दिया गया था कि उसने ज़्यादा आटा माढ़ दिया था और उस दिन घर में दो लोगों का उपवास था.
एक दिन जानकी के पति ने गरम दूध का गिलास उसके मुंह पर फेंक मारा था सिर्फ़ इसलिए कि वह दूध को ठंडा करके नहीं लाई थी.
क्रूर सास ने कई दफ़ा जानकी को इसलिए भी पिटवाया था कि वह दो से अधिक बार शौंच चली गई थी.
नानी की बूढ़ी और अंधी आंखों से ऐसे कईं असमाप्त दुःखों के क़िस्से बह रहे थे. वह उन्हें पूरी तरह साफ़-साफ़ देख पा रही थी. वे क़िस्से दिन के उजाले से भी साफ़ थे, मगर नानी की आंखों में आए आंसू उन्हें धुंधला कर देते. और वह धुंध जब नानी अपनी साड़ी के पहले से भीगे पल्लू से पोंछतीं तो फिर कोई दृश्य उजला होकर उन अनंत क़िस्सों में से उभरकर बाहर आता था.
चूंकि हम बच्चे थे. सुबह जागते ही कहानी को लगभग वहीं छोड़ देते और अपने रोज़मर्रा की मटरगश्तियों में लग जाते. नानी भी अपने दुःखों के साथ बची हुई कहानी को रात के लिए अपनी खटिया के सिरहाने कहीं दबा देतीं.
रात को फिर कहानी शुरू होती. शुरू से और लगभग वहीं कहीं तक आकर जब पहुंचती तब तक हम नींद में कहीं सैर कर रहे होते थे. इस तरह कहानी असमाप्त ही रह जाती.
आख़िर एक दिन मेरी बड़ी बहन सुरेखा और मैं पीछे पड़ गया कि आज तो नानी से पूरी कहानी हम सुनकर ही रहेंगे और जब तक कहानी ख़त्म नहीं होगी, हम नहीं सोएंगे.
नानी की कहानी जब उसकी जगह तक पहुंची, जहां वह छूटी थी तब तक छः सात बच्चे सो चुके थे लेकिन कल्याणी, मैं, मेरी बहन सुरेखा, देवकरण और शुभम् जाग रहे थे. कहानी के अंत को जानना जैसे हमने तय कर रखा था. गोया कोई संकल्प का जल हाथों में लेकर बैठे थे.
नानी कहानी को आगे बढ़ाती,
- तो इस तरह राजा ने उस काबर को वचन दिया कि वह उसे अपनी बहू बनाकर लाएगा और राजकुमार से विवाह भी करवाएगा. और इस पूरे प्रकरण को गुप्त रखेगा.
हम बीच-बीच में कहानी को सुनते हुए ‘हूं’, हां’ करते रहते थे, जिससे नानी को मालूम पड़ जाता था कि हम या हममें से कोई जाग रहा है. उनकी कहानी को सुन रहा है. नानी ने कहानी के सिरे को पकड़कर आगे कहा,
- राजा ने काबर को वचन तो दे दिया मगर यह इतना आसान नहीं था. एक पक्षी से अपने पुत्र का विवाह कैसे होगा और उसे वह गुप्त कैसे रखेगा? यह एक बड़ी समस्या थी. दोनों पिता-पुत्र वहीं काबर के पिंजरे के पास बैठ इस विषय पर सोच-विचार करने लगे. तब वीर प्रताप ने अपने पिता को सुझाया कि वह काबर से यहीं शिवमंदिर में गंधर्व विवाह करेगा और काबर को एक डोली में बिठाकर ले जाएगा. डोली सीधी महल में उसके कमरे तक जाएगी और फिर वह काबर को अपने कमरे में उतार लेगा. इस तरह कोई यह जान नहीं पाएगा कि डोली में कौन बैठा था.
पिता ने बताया कि यह सब इतना आसान नहीं है पुत्र! और फिर महल में परिवार के लोग भी तो हैं, उन्हें क्या जवाब दिया जाएगा? उन्हें क्या कहेंगे हम? पिता रूद्र प्रताप का तर्क भी उचित था लेकिन वीर प्रताप ने कहा कि पिताजी जहां चाह है, वहां राह है. हम परिवार के लोगों से कह देंगे कि राजकुमारी की कुंडली में कोई दोष है इसलिए अभी उसे किसी के सामने नहीं लाया जा सकता. यदि किसी ने उसका चेहरा देख लिया तो अपशकुन हो जाएगा.
पिता रूद्रप्रताप को बेटे की बात उचित जान पड़ी. उन्होंने कहा, ‘‘तो फिर ठीक है. ऐसा ही करते हैं.’’ और राजा रूद्रप्रताप उस काबर को लेकर मंदिर पहुंचे और मंदिर में ईश्वर के समक्ष राजकुमार वीर प्रताप और काबर का विवाह कर दिया. काबर को पिंजरे में बंद कर उसे एक डोली में रखकर जैसा कि उन्होंने तय कर रखा था महल में राजकुमार के कमरे तक पहुंचा दिया गया.
राजा ने अपने पूरे परिवार को बताया कि उन्होंने एक सुन्दर कन्या से राजकुमार वीर प्रताप का विवाह कर दिया है और कन्या की कुंडली में दोष होने के कारण उसे अभी किसी के सामने नहीं लाया जा सकता.
यह जानकर परिवार के सभी लोगों को अचरज हुआ और संदेह भी. मगर वे राजा के निर्णय के आगे विवश थे. वीर प्रताप के दो बड़े भाइयों का विवाह हो चुका था और दोनों भाभियां अपनी देवरानी को देखना चाहती थी. वीरप्रताप की बहन राजुला भी अपनी छोटी भाभी से मिलना और बात करना चाहती थी, लेकिन वे सब यह सुनकर चुप रह गए.
वीर प्रताप अपने कमरे में आता और उस काबर की मन से सेवा करता. उसे समय पर पानी देता. समय पर खाने को देता. उससे पहुंचा बतियाता रहता. उसे सब तरह से प्रसन्न रखता. काबर कईं बार रोने लगती कि राजकुमार को उसके लिए कितना कष्ट सहना पड़ रहा है.
राजकुमार और काबर का विवाह हुए अभी सप्ताह भर भी नहीं हुआ था कि वीर प्रताप की दोनों भाभियों ने एक दिन उसे ताना मारते हुए कहा, ‘‘ऐसी कौन-सी स्वर्ग की अप्सरा ले आए देवरजी, जो सबसे छिपाए फिर रहे हो ?’’ और दोनों साथ ही साथ हंसने भी लगी जिससे कि बात में छुपा व्यंग्य थोड़ा कम चुभे.
वीर प्रताप क्या कहता ? जवाब में सिर्फ़ मुस्करा दिया और चुप हो गया.
भाभियों ने राजकुमार को फिर छेड़ा, ‘‘दिनभर बिस्तर पर पड़ी रहेगी तो मुटिया जाएगी दुल्हन. फिर न कहना कि भाभियों ने पहले बताया नहीं.’’ और वे बेवजह फिर हंस पड़ी. जैसे उनकी हंसी उनके पल्लू में ही बंधी थी.
राजकुमार इस बात पर भी चुप रहा और गर्दन नीची किए भाभियों की कड़वीं बातें सुनता रहा. उनकी बातें उसे दिल ही दिल में चुभ रही थी, मगर वह बेचारा कुछ कर भी नहीं सकता था.
बाद में जब राजकुमार अपने कमरे में आया तब बातों-बातों में उसने काबर को अपनी भाभियों की कहीं इन बातों के बारे में बता दिया. यह सुनकर पहले तो काबर रो पड़ी. और देर तक रोती रही. फिर राजकुमार से बोली, ‘‘देखिए, परिवार के लोग सही तो कह रहे हैं. उनकी भी नई बहू को लेकर कुछ उम्मीदें हैं. कुछ आशाएं हैं. आप निराश न होइए. यह समय भी निकल जाएगा.’’
राजकुमार को काबर की बातों से हौसला मिला. और वह इस दुःख से उबरने लगा. मगर फिर एक दिन राजकुमार की बहन राजुला ने टोक दिया कि, ‘‘भैया, घर का सारा काम मुझपर ही थोपा जाता है. दोनों बड़ी भाभियां मुझे ही काम में पीसती रहती हैं. छोटी भाभी अगर थोड़ी मदद कर दिया करे तो मेरा बोझ हल्का हो जाए.’’
राजकुमार ने अपनी बहन को बहला-फुसलाकर कुछ समय धैर्य रखने को कहा. मगर फिर जब राजकुमार की मां ने अपने बेटे के कान भरते हुए कहा, ‘‘बेटा इस तरह जोरू का गुलाम बनना कोई ठीक बात नहीं. औरत से घर के काम-काज करवाना चाहिए. नहीं तो वह सर पर चढ़ जाती है.’’
राजकुमार अपनी मां के सामने कुछ नहीं बोल पाया. बेचारा सिर्फ़ सुनता रहा. इन सब बातों को वह काबर से नहीं कहना चाहता था लेकिन फिर भी बातों-बातों में उसने बता ही दिया. तब काबर ने राजकुमार से कहा कि, ‘‘क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि आप मेरे हिस्से का काम मेरे कमरे में ले आए और मैं उसे यहीं कर दिया करूं. इस तरह परिवार के लोगों की सहायता भी हो जाएगी और किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा.’
राजकुमार को काबर की बात भा गई परन्तु फिर वह चिंतित होते हुए बोला, ‘‘लेकिन तुम काम करोगी कैसे? तुम्हारे हाथ तो है नहीं. और उसपर तुम बहुत छोटी भी हो.’’
काबर मुस्कराते हुए बोली, ‘‘आप चिंता न करे. मैं सब कर दिया करूंगी.’’
राजकुमार ने अपनी मां को जाकर बताया कि नई दुल्हन के लिए कुछ काम हो तो उसके कमरे में पहुंचा दिया करे. वह सारे काम कर दिया करेगी. अभी वह किसी के सामने नहीं आ सकती. लेकिन जैसे ही उसकी कुंडली का दोष हट जाएगा. वह सबके साथ मिलकर काम करेगी.
रानी मां यह सुनकर बहुत ख़ुश तो नहीं हुई लेकिन नई बहू के कुछ काम करने की तत्परता और उत्साह ने उसके मन का बोझ ज़रूर कुछ कम किया. रानी मां ने अगले दिन ही गेहूं की दो-तीन बोरियां राजकुमार के कमरे में पहुंचवा दी कि नई दुल्हन इनमें से कंकड़-पत्थर बिन कर साफ़ कर दे.
काबर ने जब उन बोरियों को देखा तो राजकुमार से कहा कि वह बस इन्हें साफ़ फ़र्श पर खोलकर रख दे, बाक़ी काम वह कर लेगी.
राजकुमार ने वैसा ही किया.
फिर काबर उड़कर कहीं आकाश में ओझल हो गई और कुछ ही पलों बाद जब लौटी तो उसके साथ सैकड़ों काबर थीं. काबर ने राजकुमार को बताया कि ये सब उसकी सहेलियां हैं और उसके काम में हाथ बटाने के लिए आई हैं. फिर राजकुमार ने देखा कि कुछ ही पहुंचा में उन सब काबर ने मिलकर उन गेहूं की बोरियों से देखते-देखते सारे कंकड़-पत्थर बिन कर साफ़ कर दिए.
दूसरे दिन सुबह राजकुमार ने उन बिन कर साफ़ किए हुए गेहूं की बोरियों को भण्डार गृह में भिजवा दिया. राजकुमार की मां और भाभियों को यह जानकर हैरानी हुई कि नई दुल्हन ने महज़ एक दिन में इतना सारा गेहूं साफ़ कर दिया. बाद में रानी मां ने घर के फटे कपड़ों का ढेर निकालकर उसे राजकुमार के कमरे में भिजवा दिया कि इनकी सिलाई कर इन्हें दुरुस्त कर दे. काबर ने अपनी सहेलियों की मदद से उन सारे कपड़ों की बहुत सफ़ाई और बारीक़ी से सिलाई की और दुरुस्त कर दिया. जब दूसरे दिन रानी मां तक वे कपड़े पहुंचे तो वह उन फटे हुए कपड़ों पर इतनी बढ़िया और बारीक़ सिलाई का काम देखकर दंग रह गई. अधिकांश कपड़े एकदम नए जैसे हो गए थे.
दोनों बड़ी भाभियां यह जानकर भीतर ही भीतर कुढ़तीं कि यह नई दुल्हन क्या कोई जादूगरनी है, जो इतना सारा काम एक दिन में और वो भी इतनी सफ़ाई से कर देती है. लेकिन वे असहाय थीं. आख़िर कर भी क्या सकती थीं.
नानी की कहानी जब यहां तक पहुंची तब तक कल्याणी और मुझे छोड़कर सारे बच्चे सो चुके थे. फिर नानी ने मुझसे कहा कि, ‘‘अब तुम भी सो जाओ पप्पू. बाक़ी कहानी कल सुन लेना. रात भी बहुत हो गई होगी.’’ नानी ने समय का अंदाज़ा लगाते हुए कहा और शायद अंधेरे में नानी ने अपनी आंखें पोंछी.
मैंने बची हुई कहानी सुनने की ज़िद की, मगर नानी नहीं मानीं. वे बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘सो जा बेटा. कल इसके आगे से सुना दूंगी.’’
मुझे नानी की यह बात जंच गई. मैंने फिर कोई ज़िद नहीं की और कुछ देर खटिया पर कसमसाने के बाद सो गया.
मेरे लिए नानी की कहानी यहां रुक गई थी लेकिन नानी के लिए शायद उनकी यह कहानी अभी उनकी आंखों के पर्दों पर चल रही थी, उन्हीं पर्दों पर जिन पर उन्हें दिन की रोशनी में भले ही कुछ नज़र न आता हो मगर अतीत की स्मृतियों के दृश्य बेहद स्पष्टता के साथ उभरते थे.
नानी किसी दृश्य में देखती हैं कि वह पहले बच्चे की मां बनने वाली थीं. घर भर के तमाम लोगों ने यह सुनकर ख़ुशी ज़ाहिर की और घोषणा की कि शर्तिया लड़का होगा और उसका नाम ‘रघुवीर’ रखा जाएगा. क्योंकि रघुवीर होने वाले बच्चे के स्वर्गीय दादाजी का नाम था और उनकी यह तमन्ना थी कि उनके पोते का नाम उनके नाम पर ही रखा जाए. तो इस तरह पूरा घर ‘रघुवीर’ के आने की प्रतीक्षा करने लगा. मगर जब महीने पूरे हुए और ‘रघुवीर’ की जगह ‘राधिका’ आई तो घर-भर के चेहरों पर जैसे चील की छाया-सी मुर्दिनी उतर आई. सब ऐसे उदास और दुखी हो गए जैसे घर में कोई मातम हो. नवजात बच्ची को देखने में किसी की कोई विशेष रुचि नहीं थी. सब अपने अपने काम-काज में वापस जुट गए. अभी अभी मां बनी जानकी ने अपनी नवजात बेटी को सीने से लगा लिया और जी हल्का होने की हद तक रोती रही.
एक अन्य दृश्य में अंधी नानी को दिखाई देता है कि, उनकी सास की पार्थिव देह घर के आंगन में पड़ी हुई थी. घर बाहर में लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था. आसपास की औरतें और रिश्तेदारी की आई हुई औरतें लम्बे-लम्बे घूंघट काढ़े रो रही थीं. नानी ने भी लम्बा घूंघट खींचा हुआ था मगर वे रो नहीं रही थी. ऐसा नहीं था कि वे रोना नहीं चाहती थीं बल्कि वे चाहकर भी रो नहीं पा रही थी. वे भीतर ही भीतर ख़ूब दुखी होने की कोशिश करने लगीं. पुराने दुःखों को याद करने लगीं. लेकिन इस समय जब पूरा माहौल ग़मगीन था बावजूद इसके उनकी आंखों से आंसू नहीं बाहर आ पा रहे थे. उन्होंने ख़ुद को चिकोटी भी भरी अपनी पूरी ताक़त के साथ मगर फिर भी कमबख़्त आंसू न जाने कहाँ गायब हो गए थे या कि शायद सूख कर ख़त्म चुके थे. नानी को रुलाई न आ पाने की अपनी मूर्खतापूर्ण कोशिशों पर हंसी आ गई. और वे घूंघट के भीतर दबी हुई हंसी हंसती रहीं. वे इतना हंसी की उनकी आंखों में आंसू आ गए. वो तो भला हो कि उन्होंने लम्बा घूंघट किया हुआ था और चारों तरफ़ रोने की आवाजें थीं जिसके शोर में उनकी हंसी कहीं दबकर खप गई.
नानी ने अपनी भीगी हुई आंखों की कोरों को पहले से लगभग भीग चुके अपने पल्लू से पोंछा तो दृश्य पर धुंध चढ़ गई लेकिन दृश्यों की शृंखला ख़त्म नहीं हुई. एक अन्य दृश्य उनकी आंखों के आगे तैरने लगा, नानी यानी युवा जानकी तब पचीसेक साल की रही होगी और तब तक वह दो बच्चों क्रमश: राधिका और रघुवीर की मां बन चुकी थीं. दो बच्चों के जन्म के बाद भी वे एक भरे पूरे शरीर की मालकीन थीं और समय के साथ उनका रंग भी निकल आया था. उनके घर में वरसुद पर रखे नौकर आशाराम से एक दिन गवाण में चारा-पानी करते हुए हंसकर बात कर ली. बात करना शायद अपराध न होता लेकिन ऐसा करते हुए देख ली गई. अब दिखाई दे जाना तो अपराध ही हुआ ना ! उस दिन जानकी के पति यानी नाना पर न जाने कौन-सा भैरव सवार था, वह जानकी को तब तक लात-घूसों से पीटता रहा जब तक कि वह ख़ुद नहीं थक गया.
पिटाई से बेदम हुई जानकी घर के आंगन में पड़ी थी और घर के किसी सदस्य ने, न इतनी हिम्मत दिखाई, न दया कि उस बेचारी को उठाकर कम से कम बिस्तर पर डाल दे. दोनों छोटे-छोटे बच्चे अपने पिता की इस क्रूरता से सहमें और डरे-डरे एक कोने में सिसक रहे थे. पिता के जाने के बाद मां के मूर्छित शरीर पर आकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे, जैसे उनकी मां उन्हें छोड़कर हमेशा के लिए चली गई हो.
नानी अतीत की स्मृति से उठकर आए इन दृश्यों से गुज़रती रही, और रोती रही.
सुबह जब हम उठे तो हमारे लिए फिर एक नया दिन था. एक नई सुबह थी. हम नानी की कहानी को उसी की जगह पर छोड़ चुके थे. और अपनी खेल-कूद की दुनिया में उतर चुके थे. दोपहर में खोदरे पर नहाने चले जाते या हतई के पास इमली के पेड़ों के पत्तों को कूटकर उसकी चटनी बनाकर खाते और एक-दूसरे को खिलाते. या ऐसे दूसरे कोई खेल खेलते रहते, मगर दिन के किसी समय नानी की यह कहानी या कोई कहानी हमारे साथ नहीं होती थी.
मित्र पाठकों यहां तक कहानी में आने के बाद यह लेखक एक छोटा-सा लेखकीय हस्तक्षेप चाहता है. यक़ीन जानिए यदि यह हस्तक्षेप इस कहानी के गंतव्य तक जाने और इसके लिखे जाने के मंतव्य तक पहुंचने में आवश्यक न होता, तो ऐसा दुस्साहस यह लेखक कभी न करता.
बात यह है कि नानी की काबर वाली इस कहानी के दो अंत हैं. एक जो मेरी मां ने कभी मुझे बताया था. दूसरा वह जो नानी ने अपनी कहानी में हमें सुनाया था. मां ने जो कहानी सुनाई वह अब तक सुनाई जा चुकी कहानी से ज़्यादा भिन्न नहीं थी. मां ने आगे की कहानी सुनाते हुए बताया था कि,
-‘इस तरह काबर घर के सारे कामकाज राजकुमार के कमरे में बैठकर ही पूरे कर देती थी. घर की दूसरी औरतों भाभियों को, ननद को और यहां तक की उसकी सास को भी यह सब भाता तो नहीं था लेकिन वे विवश थीं क्योंकि वे राजा की आज्ञा की अह्वेलना नहीं कर सकती थीं.
धीरे-धीरे समय गुज़रता रहा. और तीन वर्ष भी बीत गए. तब एक सुबह जब राजकुमार वीरप्रताप जागा, तो देखा कि एक सुन्दर कन्या सुबह सुबह स्नान करके उसके कमरे में ईश्वर की पूजा में तल्लीन बैठी है. राजकुमार उस कन्या की सुन्दरता को देखकर मुग्ध हो गया और उसके पास आया तो वह कन्या, राजकुमार को देखकर मुस्कराई और बोली, ‘‘पहचाना नहीं अपनी अनुपमा को.’’
राजकुमार यह जानकर बेहद प्रसन्न हुआ कि उसकी पत्नी, काबर से फिर अपने वास्तविक रूप में आ गई है. वह अनुपमा को लेकर अपनी मां और पिताजी के पास गया और घर के तमाम लोगों से मिलवाया.’’
मां की सुनाई इस काबर की कहानी का अन्त मुझे कभी पसंद नहीं आया. मुझे तो रह-रह कर काबर वाली इस कहानी का वही अंत याद आता है, जो नानी ने मुझे सुनाया था. अगले दिन रात में जब मैं नानी के पास सोने के लिए लेटा तो मेरे दिमाग़ में फिर वही कहानी उमड़ने-घुमड़ने लगी. मैंने नानी से कहा कि मुझे वो बताएं, ‘‘फिर आगे क्या हुआ? वह काबर वापस कन्या बनी या नहीं? राजकुमार और उसका मिलन हुआ कि नहीं?’’ तब नानी ने कहानी को उसी सिरे से पकड़ते हुए आगे सुनाना शुरू किया,
काबर सारा काम जो उसे सौंपा जाता समय से पहले करके रख देती. इससे राजकुमार भी ख़ुश रहने लगा. उसे चेहरे पर खोई हुई प्रसन्नता फिर लौटने लगी. राजकुमार को ख़ुश देखकर काबर भी प्रसन्न रहती. वे दोनों अपने कमरे में बैठकर खूब हंसी-ठिठोली और बातें करते. इस तरह जीवन प्रसन्नतापूर्वक बीतने लगा. और देखते देखते ढाई साल बीत गए. अब सिर्फ़ आधा साल और बचा था. यदि यह छः महीने भी इसी तरह बीत गए और काबर का रहस्य बरकरार रहा तो वह काबर फिर अपने स्त्री शरीर को पा लेगी और राजकुमार के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकेगी. मगर होनी को कुछ और मंजूर था.
राजकुमार की भाभियां और बहन राजुला नई दुल्हन से ईर्ष्या करने लगे थे और समय के साथ उनकी यह ईर्ष्या बढ़ती जा रही थी. ऊपर से उन्हें यह बात खाए जाती कि नई दुल्हन अपने कमरे से कभी बाहर भी नहीं निकलती थी. दिनभर अपने कमरे में ही रहती थी.
तब दोनों भाभियों और ननद ने मिलकर एक षडयंत्र रचा कि यदि किसी तरह राजकुमार वीर प्रताप को नगर से बाहर या महल से बाहर भेज दिया जाए तो वे राजकुमार के कमरे में जाकर उस नई दुल्हन को देख सकेंगी.
अपने षडयंत्र के तहत राजकुमार की बहन राजुला ने अपने भाई को उसके कमरे से बाहर बुलवाया और बताया कि महल के बाहर कोई पहुंचे हुए सिद्ध महात्मा पधारे हैं. उनके दर्शनों को जनता लालायित हो रही है. मगर वे काशी से इतनी दूर पैदल चलकर सिर्फ़ महाराज और उनके बेटों के दर्शन के लिए आए हैं. भैया हो सके तो आप भी जाकर उनका आशीर्वाद ले लीजिए.
राजुला की बात में आकर राजकुमार उस तेजस्वी महात्मा के दर्शन के लिए निकल पड़ा और जाने से पहले राजुला को सख्त हिदायत दे गया कि जब तक वह वापस न लौटे. न तो वह ख़ुद भीतर जाएगी और ना ही किसी दूसरे को भीतर जाने देगी. राजुला ने राजकुमार से वादा किया कि वह ऐसा ही करेगी.
राजकुमार वीर प्रताप के जाते ही राजुला ने दोनों बड़ी भाभियों को जो वहीं-कहीं आस-पास छिपकर खड़ी थी, आवाज़ लगाकर बुलाया. फिर वे तीनों राजकुमार के कमरे में गईं ताकि नई दुल्हन के बारे में पता लगा सके और उसे देख सकें.
दोनों भाभियां और ननद जब राजकुमार के कमरे में दाख़िल हुई तो उन्हें कोई नज़र नहीं आया. बिस्तर पर सिवा एक सोने के पिंजरे के जिसमें एक काबर बंद थी.
अपने कमरे में अजनबियों को आते देख काबर भय और हताशा से थर-थर कांपने लगी. उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे. काबर दुखी हुई कि अब वह इस जन्म में कभी अपने शरीर को पा नहीं सकेगी. वह राजकुमार के लिए भी दुखी थी कि राजकुमार अब कभी उसे कन्या रूप में नहीं पा सकेगा. महर्षि के श्राप से उसे मुक्ति नहीं मिल पाई थी. काबर यह सोचकर और अधिक दुखी होने लगी कि यदि वह अब और राजकुमार के साथ रही तो उस बेचारे को सारी ज़िंदगी उसकी सेवा-सुश्रुषा करनी पड़ेगी और बदले में वह उसे कुछ भी नहीं दे पाएगी. यह सोच-सोचकर काबर दुःखी होने लगी.
तभी एक गहरे झटके के साथ काबर पिंजरे में मूर्छित होकर गिर पड़ी. और थोड़ी ही देर में उसकी देह ढीली पड़ गई और गर्दन लटक गई.
दोनों भाभियां और राजुला यह देखकर भयभीत हो गई और कमरे से भाग गईं.
इस तरह काबर मर गई और राजकुमार से उसका मिलन इस जन्म में नहीं हो सका.
नानी की कहानी जब ख़त्म हुई तो हम सब बच्चे काबर के उस दुःख में कहीं खो गए. कल्याणी और सुरेखा दीदी तो लगभग सुबकने लगी थीं. मेरी भी आंखों में गीलापन भर आया था. हममें से कोई कुछ नहीं बोला. और लगभग सोते हुए होने का नाटक करते हुए सो गए.
और नानी की आंखों में फिर अपने अंतहीन दुःखों की कोई फ़िल्म तैर रही थी जिसे मैं उनके गीले पल्लू से जान गया था.
आज जब मैं नानी के अंतिम संस्कार में आया हूं तो एक बात रह-रहकर मन को सता रही है कि क्योंकर नानी ने काबर वाली उस कहानी के अन्त को दुखान्त बनाया था?