इस्मत आपा के नाम से इस्मत चुगताई ने उर्दू साहित्य को नए मुकाम पर पहुंचाया। खासकर महिलाओं को अपनी कहानी में एक प्रबल स्थान देकर उन्होंने साहित्य की दुनिया में महिलाओं का कद बढ़ाया है। महिलाओं से जुड़े जरूरी सवालों को इस्मत ने अपने लेख के जरिए नए सिरे से प्रकाश में लाया है। आइए पढ़ते हैं उनकी रचनाएं।
कहानी : घूंघट
सफ़ेद चांदनी बिछे तख़्त पर बगुले के परों से ज़्यादा सफ़ेद बालों वाली दादी बिल्कुल संगमरमर का भद्दा-सा ढेर मालूम होती थीं। जैसे उनके जिस्म में ख़ून की एक बूंद ना हो। उनकी हल्की सुरमई आंखों की पुतलियों तक पर सफ़ेदी रींग आई थी और जब वो अपनी बेनूर आंखें खोलतीं तो ऐसा मालूम होता, सब रौज़न बन्द हैं। खिड़कियां दबीज़ पर्दों के पीछे सहमी छिपी बैठी हैं। उन्हें देखकर आंखें चौंधियाने लगती थीं, जैसे इर्द-गिर्द पिसी हुई चांदी का ग़ुबार मुअल्लक़ हो। सफ़ेद चिंगारियां-सी फूट रही हों। उनके चेहरे पर पाकीज़गी और दोशीज़गी का नूर था। अस्सी बरस की इस कुंवारी को कभी किसी मर्द ने हाथ नहीं लगाया था।
जब वो तेराह-चौदह बरस की थी, तो बिल्कुल फूलों का गुच्छा लगती थीं। कमर से नीचे झूलते हुए सुनहरी बाल और मैदा शहाब रंगत। शबाब ज़माने की गर्दिश ने चूस लिया, सिर्फ़ मैदा रह गया है। उनके हुस्न का ऐसा शोहरा था कि अम्मा बावा की नींदें हराम हो गई थीं। डरते थे कहीं उन्हें जिन्नात ना उड़ा के लिए जाएं, क्योंकि वो इस धरती की मख़लूक़ नहीं लगती थीं।
फिर उनकी मंगनी हमारी अम्मा के मामूं से हो गई, जितनी दुल्हन गोरी थी, उतने ही दूल्हा मियां स्याह भट्ट थे। रंगत को छोड़कर हुस्न-ओ-मर्दानगी का नमूना थे- क्या डसी हुई फटारा आंखें, तलवार की धार जैसी खड़ी नाक और मोतियों को मांत करने वाले दांत, मगर अपनी रंगत की स्याही से बे तरह चिड़ते थे। जब मंगनी हुई तो सबने ख़ूब छेड़ा,“हाय दूल्हा हाथ लगाएगा तो दुल्हन मैली हो जाएगी।”“चांद को जानो गरहन लग जाएगा.”
काले मियां उस वक़्त सतरह बरस के ख़ुद-सर बिगड़े दिल बिछड़े थे। उन पर दुल्हन के हुस्न की कुछ ऐसी हैबत तारी हुई कि रात ही रात जोधपुर अपने नाना के यहां भाग गए। दबी ज़बान से अपने हमउम्रों से कहा,“मैं शादी नहीं करूंगा।”
ये वो ज़माना था जब चूं चरा करने वालों को जूते से दुरुस्त कर लिया जाता था। एक दफ़ा मंगनी हो जाएगी तो फिर तोड़ने की मजाल नहीं थी। नाकें कट जाने का ख़दशा होता था और फिर दुल्हन में ऐब क्या था? यही कि वो बेइंतेहा हसीन थी। दुनिया हुस्न की दीवानी है और आप हुस्न से नालां, बद मज़ाक़ी की हद।
“वो मग़रूर है,” दबी ज़बान से कहा।
“कैसे मालूम हुआ?”
जबकि कोई सबूत नहीं मगर हुस्न ज़ाहिर है मग़रूर होता है और काले मियां किसी का ग़ुरूर झेल जाएं ये ना-मुमक़िन। नाक पर मक्खी बिठाने के रवादार ना थे।
बहुत समझाया कि मियां, वो तुम्हारे निकाह में आने के बाद तुम्हारी मिल्कियत होगी।तुम्हारे हुक़्म से दिन को रात और रात को दिन कहेगी।जिधर बिठाओगे बैठेगी, उठाओगे उठेगी।
कुछ जूते भी पड़े और आख़िर-ए-कार काले मियां को पकड़ बुलाया गया और शादी कर दी गई.डोमनियों ने कोई गीत गा दिया। कुछ गोरी दुल्हन और काले दूल्हा का। इस पर काले मियां फनफना उठे। ऊपर से किसी ने चुभता हुआ एक सहरा पढ़ दिया। फिर तो बिल्कुल ही अलिफ़ हो गए। मगर किसी ने उनके तंतना को संजीदगी से ना लिया। मज़ाक़ ही समझे रहे और छेड़ते रहे। दूल्हा मियां शमशीर-ए-बरहना बने जब दुल्हन के कमरे में पहुंचे तो लाल-लाल चमकदार फूलों में उलझी-सुलझी दुल्हन देखकर पसीने छूट गए। उसके सफ़ेद रेशमी हाथ देखकर ख़ून सवार हो गया। जी चाहा अपनी स्याही इस सफ़ेदी में ऐसी घोट डालें कि इम्तियाज़ ही ख़त्म हो जाए।
कांपते हाथों से घूंघट उठाने लगे तो वो दुल्हन बिलकुल औंधी हो गई।
“अच्छा तुम ख़ुद ही घूंघट उठा दो। ”
दुल्हन और नीचे झुक गई।
“हम कहते हैं।घूंघट उठाओ!” डपटकर बोले।
दुल्हन बिल्कुल गेंद बन गई।
“अच्छा जी इतना ग़रूर!” दूल्हे ने जूते उतारकर बग़ल में दबाए और पाइंबाग़ वाली खिड़की से कूदकर सीधे स्टेशन, फिर जोधपुर।
इस ज़माने में तलाक़ वलाक का फ़ैशन नहीं चला था। शादी हो जाती थी। तो बस हो ही जाती थी। काले मियां सात बरस घर से ग़ायब रहे। दुल्हन ससुराल और मीका के दरमयान मुअल्लक़ रहीं। मां को रुपया-पैसा भेजते रहे। घर की औरतों को पता था कि दुल्हन अनछुई रह गई। होते-होते मर्दों तक बात पहुंची। काले मियां से पूछग़ाछ की गई।
“वो मग़रूर है.”
“कैसे मालूम?”
“हमने कहा घूंघट उठाओ, नहीं सुना.”
“अजब गाऊदी हो, अमां कहीं दुल्हन ख़ुद घूंघट उठाती है। तुमने उठाया होता। ”
“हरगिज़ नहीं, मैंने क़सम खाई है। वो ख़ुद घूंघट नहीं उठाएगी तो चूल्हे में जाए। ”
“अमां अजब नामर्द हो। दुल्हन से घूंघट उठाने को कहते हो।फिर कहोगे वो आगे भी पेश-क़दमी करे, अजी लाहौल वलाक़ुव्वा.”
गोरी बी के मां-बाप इकलौती बेटी के ग़म में घुनने लगे। बच्ची में क्या ऐब था कि दूल्हे ने हाथ ना लगाया। ऐसा अन्धेर तो ना देखा, ना सुना.
काले मियां ने अपनी मर्दानगी के सबूत में रंडीबाज़ी, लौंडेबाज़ी, मुर्ग़बाज़ी, कबूतरबाज़ी ग़रज़ कोई बाज़ी ना छोड़ी और गोरी बी घूंघट में सुलगती रहीं।
नानी अम्मा की हालत ख़राब हुई तो सात बरस बाद काले मियां घर लौटे। इस मौक़ा को ग़नीमत समझकर फिर बीवी से उनका मिलाप कराने की कोशिश की गई। फिर से गोरी बी दुल्हन बनाई गईं। मगर काले मियां ने कह दिया, “अपनी मां की क़सम खा चुका हूँ, घूंघट मैं नहीं उठाऊंगा। ”
सब ने गोरी बी को समझाया,“देखो बनू सारी उम्र का भुगतान है। शर्म-ओ-हया को रखो ताक़ में और जी कड़ा करके तुम आप ही घूंघट उठा देना। इसमें कुछ बे-शरमी नहीं, वो तुम्हारा शौहर है।ख़ुदा-ए-मजाज़ी है। उसकी फ़रमांबर्दारी तुम्हारा फ़र्ज़ है। तुम्हारी निजात उसका हुक्म मानने ही में है.”
फिर से दुल्हन सजी, सेज सजाई, पुलाव ज़र्दा पका और दूल्हा मियां दुल्हन के कमरे में धकेले गए। गोरी बी अब इक्कीस बरस की नौख़ेज़ हसीना थीं। अंग-अंग से जवानी फूट रही थी। आंखें बोझल थीं। सांसें भरी थीं। सात बरस उन्होंने इसी घड़ी के ख़ाब देखकर गुज़ारे थे। कमसिन लड़कियों ने बीसियों राज़ बताकर दिल को धड़कना सिखा दिया था। दुल्हन के हिना आलूदा हाथ पैर देखकर काले मियां के सर पर जिन मंडलाने लगे। उनके सामने उनकी दुल्हन रखी थी। चौदह बरस की कच्ची कली नहीं, एक मुकम्मल गुलदस्ता। राल टपकने लगी। आज ज़रूर दिन और रात को मिलकर सर्मगीं शाम का समां बंधेगा। उनका तजर्बेकार जिस्म शिकारी चीते की तरह मुंह-ज़ोर हो रहा था।उन्होंने अब तक दुल्हन की सूरत नहीं देखी थी। बदकारियों में भी इस रस-भरी दुल्हन का तसव्वुर दिल पर आरे चलाता रहा था.
“घूंघट उठाओ। ” उन्होंने लरज़ती हुई आवाज़ में हुक्म दिया।
दुल्हन की छंगुली भी ना हिली.
“घूंघट उठाओ.” उन्होंने बड़ी लजाजत से रोनी आवाज़ में कहा।
सुकूत तारी है…
“अगर मेरा हुक्म नहीं मानोगी तो फिर मुंह नहीं दिखाऊंगा ”
दुल्हन टस से मस ना हुई
काले मियां ने घूंसा मारकर खिड़की खोली और पाइंबाग़ में कूद गए
इस रात के गए वो फिर वापिस ना लौटे
अनछूई गोरी बी तीस साल तक उनका इंतेज़ार करती रहीं। सब मर-खप गए। एक बूढ़ी ख़ाला के साथ फ़तहपुर सीकरी में रहती थीं कि सुनावनी आई-दूल्हा आए हैं।
दूल्हा मियां मोरियों में लोट-पीटकर अमराज़ का पुलंदा बने आख़िरी दम वतन लौटे। दम तूरने से पहले उन्होंने इल्तिजा की कि गोरी बी से कहो आ जाओ कि दम निकल जाए।
गोरी बी खम्भे से माथा टिकाए खड़ी रहीं। फिर उन्होंने संदूक़ खोलकर अपना तार-तार शहाना जोड़ा निकाला। आधे सफ़ेद सर में सुहाग का तेल डाला और घूंघट सम्भालती लब-ए-दम मरीज़ के सिरहाने पहुंचीं।
“घूंघट उठाओ ” काले मियां ने नज़अ के आलम में सिसकी भरी।
गोरी बी के लरज़ते हुए हाथ घूंघट तक उठे और नीचे गिर गए।
काले मियां दम तोड़ चुके थे.
उन्होंने वहीं उकड़ूं बैठकर पलंग के पाए पर चूड़ियां तोड़ीं और घूंघट की बजाय सर पर रंडापे का सफ़ेद दुपट्टा खींच लिया।
कहानी- जवानी
जब लोहे के चने चब चुके, तो ख़ुदा ख़ुदा करके जवानी बुख़ार की तरह चढ़नी शुरू हुई। रग-रग से बहती आग का दरिया उमड़ पड़ा। अल्हड़ चाल, नशे में ग़र्क़, शबाब में मस्त। मगर उसके साथ-साथ कुल पाजामे इतने छोटे हो गए कि बालिश्त बालिश्त भर नेफ़ा डालने पर भी अटंगे ही रहे। ख़ैर उसका तो एक बेहतरीन इलाज है कि कंधे ज़रा आगे ढलकाकर ज़रा सा घुटनों में झोल दे दिया जाए। हाँ हाँ ज़रा चाल कंगारू से मिलने लगेगी।
बाल हैं कि क़ाबू ही में नहीं। लटें फिसली पड़ती हैं। बाल बहे जाते और माँग? माँग तो ग़ायब! अगर माँ आठवीं रोज़ कड़वा तेल छोड़कर मेंढीयाँ न बांधीं, तो ज़िंदगी अजीरन हो जाए। गो मुँह लिए कँगूरों के तबाक़ की तरह मुँडा मुँडा लगने लगता है। पर बालों से तो जान छूट जाती है। जैसे किसी ने सर घोट के बालों के वबाल ही से नजात दिला दी। न जाने ये मेमें फूले फूले बाल गर्दन पर छोड़ के कैसे जीती हैं। और पाँव? पाँव तो जैसे फावड़ा। क्या जल्दी जल्दी बढ़ रहा है! अगर ऐसी रफ़्तार से बढ़ा, तो सिल बराबर हो जाएगा। अँगूठा जैसे कछुवे का सर और भी थीं बहुत सी बातें जो अकेले में बैठकर जन्नो को सतातीं। आईने में नाक देख के तो बस क़ै आने लगती। ये डबल निगोड़ा जैसे खूँटा। शज्जो की शादी हुई, तो ये बड़ी सी नथुनी पहने थी उसने, क्या प्यारी सी नाक है, गुड़िया जैसी और जन्नो के खूँटे पर तो नथुनी भी शर्मा जाएगी। जब उसकी शादी होगी तो?
“बिजली गिरे ऐसी नाक पर।” उसने सोचा।
इस पर शबराती भय्या आए थे। कैसे ग़ौर से उसका मुँह तक रहे थे। भला इन्होंने काहे को ऐसी नाक कहीं देखी होगी। जन्नो ने जल्दी से कुछ पोंछने के बहाने नाक ओढ़नी से छुपा ली।
शबराती भय्या झेंप गए। समझे होंगे बिगड़ जाएगी ये। ए काश वो सुलोचना होती, या माधुरी, या कज्जन ही सही! अल्लाह मियाँ का उसमें क्या जाता। कुछ टोटा तो आ न जाता उनके ख़ज़ाने में। अगर ज़रा वो गोरी ही होती। और काम-चोर कारीगर ज़रा ध्यान से उसे ढंग का बनाते, तो क्या हाथ सड़ जाते उनके? वो आँखें बंद करके बहुत से फ़रिश्तों को खटाखट इन्सानी पैकर गढ़ते देखती। काश वो गढ़ी जा रही थी, तो फ़रिश्ता की बग़ल में फोड़ा न निकला होता।
बापू के जब फोड़ा निकला था, तो डेढ़ महीना की खाट गोड़ी थी और खुरपिया तक न हिलायी थी। उसका ख़्याल माँ की तरफ़ भटक गया। खपरैल में न जाने दिन में कै घंटे ऐंडती। पिछले चंद महीने से उसका पेट निहायत ख़ौफ़नाक चाल से बढ़ रहा था। वो ख़ूब जानती थी कि ये फूलना ख़ाली अज़ इल्लतनहीं। जब कभी माँ पर ये वबाल छा जाता है एक-आध बहन या भाई रात-भर रें रें करने और उसके कूल्हे पर रोने को आन मौजूद होता है… मक्खियाँ, बस दोपहर को सताती हैं, इस कान से उड़ाओ दूसरे पर आन मरें, वहाँ से उड़ीं तो नाक में तनतनाएँ, वहाँ से नोचा तो आँख के कौए में घुस जाती हैं। दो-घड़ी भी न हुई होगी कि दुपट्टा के छेद में से यलग़ार बोल दिया और ऊपर से माँ डकरायी।
“मौत पड़े तेरे सोने पर, उठ, शबराती को रोटी दे।”
गर्दन पर से मैल की बत्तियाँ छुटाती छींके की तरफ़ चली। बाहर पत्थर पर शबराती भय्या लाल चार ख़ाने का अँगोछा फीच रहे थे। छपाछप से मैली मैली बूँदें उछलकर उनकी अध मिची आँखों और उलझे हुए बालों पर पड़ रही थीं। वो रोटी रुख के पास ही घुटने पर ठोढ़ी रख के ग़ौर से उन्हें देखती रही। उनके सीने पर कितने बाल थे। घने पसीने में डूबे हुए।
“जी न घबराता होगा।” वो सोचने लगी, “कैसी खुजली पड़ती होगी।”
उनके कसे हुए डनड़ों और रानों की मछलियाँ हर छपाके के साथ उछलती थीं। शबराती भय्या अँगोछा टट्टी पर फैलाकर रोटी के बड़े बड़े नेवाले साग की कमी का गिला करते हुए निगलने लगे।
“पाडी।” उन्होंने सूखी रोटी के मुहीत नेवाले को गले में जकड़ते हुए कहा। और जन्नो ने घबराकर उन्हें कटोरी पकड़ा दी, “जल्दी से खा लो। कटोरी मांझ के यहीं धर देना। हमें कुट्टी करने को पड़ी है।”
वो ग़रूर से अहकाम सादर करती उठी।
“हम कर देंगे कुट्टी।” शबराती रोटी के किनारे खाते हुए बोला।
“तुम खेत जाओगे।” वो चलने लगी।
“खेत भी जाएँगे।” वो ग़रूर से एक अमीक़ डकार लेकर बोला।
“ओह नक रहने दो।” वो चली।
“कहते हैं तुझसे कुट्टी नहीं होगी। वैसे ही कोई चोट चपेट आ जाएगी।” शबराती ने प्यार से डाँटा।
शबराती को क्या, उनके आने से पहले वो कुट्टी किया करती थी कि नहीं। ऐसी भी क्या चोट चपेट! छप्पड़ में जाकर उसने रूपा और चंदन को प्यार से दो-चार घूँसे लगाने और उन्हें कोने में चुपचाप खड़ा रहने की ताकीद करके ख़ुद कुट्टी के गठे को बचोरकर गड्डियाँ बनाने लगी।
“झेप। हटो हम कुट्टी कर दें।” शबराती ने फिर डकार लेकर चने के साग का मज़ा लेना शुरू किया।
वो इतराकर गंडासा सम्भालकर बैठ गई। गोया उसने सुना ही नहीं।
“तुझसे एक दफ़ा कहो तो सुनती ही नहीं। ला उधर गंडासा।”
वो गंडासा छीनने लगे। “नहीं।” वो बनने लगी और कुट्टी शुरू कर दी।
“तो लियो अब।” वो अपनी फुकनी जैसी मोटी-मोटी उंगलियाँ गंडासे के नीचे बिछाकर बोले, “लेव। अब करो कुट्टी। मार देव।”
“हटाओ, कि हम सच्ची मार दें।” वो गंडासा तौल के बोली। जैसे सच-मुच मार ही तो देती।
“मार, तेरे कलेजा में बूता हो तो मार देख।”
और जो वो मार ही देती, कचर कचर सारी उंगलियाँ पिस जातीं! ये क्या बात थी, कोई ज़बरदस्ती थी उनकी? अब मारती क्यों नहीं। शबराती भय्या ने आँखें झपकायीं और उनका मूँछों वाला मोटा सा होंठ दूर तक फैल गया। गंडासा छीन लिया गया। और जन्नो खिसिया गई। न जाने उसके सख़्त और खुदरे हाथों को इस वक़्त क्या हो गया… किस क़दर छोटे और नर्म मालूम देने लगे। उसे मालूम हो गया कि सीने पर पसीना में डूबे हुए घने बालों से जी क्यों नहीं घबराता और फुकनी जैसी उंगलियाँ कैसी फुर्तीली होती हैं… जन्नो का बस चलता तो वो उनके भूखे कुत्तों को अपनी बोटियाँ भी खिला देती।
मगर कितना खाते थे, उसके ज़रा ज़रा से बहन भाई! वो मोटी से मोटी रोटी ख़्वाह कितनी ही जली और अधकचरी क्यों न हो, चुटकियों में हज़म कर जाते… क्या ऐसा भी कोई दिन होगा जब उसे रोटी न थोपनी पड़े… रात भर माँ आटा पीसती और इस भद्दी औरत से हो ही क्या सकता है। साल में 365 दिन में किसी न किसी बच्चे को पेट में लिए कूल्हे पर लादे या दूध पिलाते गुज़ारती....माँ क्या थी एक ख़ज़ाना थी जो कम ही न हुआ था। कितने ही कीड़े उसने नालियों में कुश्ती लड़ने और ग़लाज़त फैलाने के लिए तैयार कर लिए थे। पर वैसी ही ढेर का ढेर रखी थी। आख़िर वो दिन भी आ गया जब कि रात के ठीक 12 बजे माँ ने भैंस की तरह डकराना शुरू किया।
मुहल्ला की कुल मुअज़्ज़िज़ बीवियाँ ठीकरे और हांडियों में बदबूदार चीज़ें लेकर इधर से उधर दौड़ने लगीं। मोटी दोहर को बछड़े की रस्सी की मदद से खपरैल के कोने में तान कर माँ लिटा दी गई। बच्चों ने मिनमिनाना शुरू किया और आने वाले से बड़ा बच्चा पछाड़ें खाकर गिरने लगा। बापू ने सबको निहायत अजीब अजीब रिश्ता क़ायम करने की धमकी देकर कोने में ठूँस दिया और ख़ुद माँ को निहायत पेचदार गालियाँ देने लगा जिनका मफ़हूम जन्नो किसी तरह न समझ सकी। शबराती भय्या दो एक गालियाँ जुओं वग़ैरा को देकर भैंसों वाले छप्पर में जा पड़े। पर जन्नो माँ की चिंघाड़ें सुनती रही। उसका कलेजा हिला जाता था। मालूम होता था कोई माँ को काटे डाल रहा है। औरतें न जाने उस पर्दे के पीछे उसके संग क्या बेजा हरकत कर रही थीं। जन्नो को ऐसा मालूम हो रहा था कि जैसे माँ का सारा दुख वही उठा रही है। गोया वही चीख़ रही है और एक नामालूम दुख की थकन से वाक़ई वो रोने लगी।
सुबह को वो एक सुर्ख़ गोश्त के लोथड़े को गूदड़ में रखा देखकर क़तई फ़ैसला न कर सकी कि इस मुसीबत और दुख का माक़ूल सिला है या नहीं जो माँ ने गुज़श्ता शब झेला था। पता नहीं माँ ने दूसरी ग़लाज़त के साथ साथ उसे चीलों के खाने के लिए कूड़े के ढेर पर रखने के बजाय उसे कलेजे से क्यों लगा रखा था। जाड़ों में भैंसों के गोबर की सड़ांध बची-कुची सानी की बू के दरमियान फटे हुए गूदड़ में इस सिरे से उस सिरे तक जीव ही जीव लेट जाते। फटी हुई रोई के गुट्ठल और पुरानी बोरियाँ जिस्म के क़रीब घसीटकर एक दूसरे में घुसना शुरू कर देते ताकि कुछ तो सर्दी दबे। इस बे-सर-ओ-सामानी में भी क्या मजाल जो बच्चे निचले बैठें। रसूलन हुंगवा की टांग घसीटती और नत्थू मोती के कूल्हे में काट खाता और कुछ नहीं तो शबराती ही घसीटकर इतनी गुदगुदी करता कि साँस फूल जाती। वो तो जब माँ गालियाँ देती तब ज़रा सोते। रात को वो अफ़रातफ़री पड़ती कि किसी का सर तो किसी का पैर। किसी को अपने जिस्म का होश न रहता। पैर कहीं तो सर कहीं।
बाज़ वक़्त अपना जिस्म पहचानना दुशवार हो जाता। रात को किसी की लात या घूँसे से चोट खाकर या वैसे ही इतने जिस्मों की बदबू से उकताकर अगर कोई बच्चा चूँ भी करता तो माँ डायन की तरह आँखें निकालकर चीख़ती और फ़र्यादी बिसूर कर रह जाता और जन्नो तो सबसे बड़ी थी। मगर जन्नो को ख़ूब मालूम हो गया कि सीने पर कितने ही बाल हों, और बग़ल में से कैसी ही सड़ांध आए, जी बिल्कुल नहीं घबराता। मोरी का कपड़ा कीचड़ में क्या मज़े से लोटता है और उसमें बात ही ऐसी क्या थी।
जब दोपहर को माँ बच्चे को जन्नो को देकर दाई से पेट मलवाने कोठड़ी में चली जाती या अपनी सहेलियों से कोई निहायत ही पोशीदा बात करती होती, तो वो भय्या को गोद में लिटाकर जाने क्या सोचा करती। वो उसका छोटा सामना चूमती। मगर उसका जी मितलाने लगता। पिलपिला सड़े हुए दूध की बू। वो सोचने लगती कि कब वो छः फुट ऊँचा चौड़े बाज़ुओं वाला जवान बन चुकेगा… और फिर वो उसकी छोटी छोटी मूँछों और फुकनी जैसी मोटी उंगलियों का तसव्वुर करती। उसे यक़ीन न आता था कि कभी यही ख़मीरी ग़लग़ला लकड़ी का खम्बा बन जाएगा। कुएँ पर नहाते हुए नीम बरहना गुंडों को देखकर वो अपने अधमरे भाईयों पर तरस खाने लगती। काश यही बढ़ जाएँ। इतना खाते हैं फिर कचरिया सा पेट फूल जाता है और वो भी सुबह को ख़ाली।
मुहर्रम पर शबराती भय्या अपने घर चले गए। रात को बच्चे पहली ही धुतकार में सो जाते। पर जन्नो पड़ी पड़ी जागा करती। वो सरक सरक के किसी बच्चे से बे-इख़्तियार होकर लिपट जाती।
“शबराती भय्या कब तक आएँगे अम्माँ?” उसने एक दिन पूछा माँ से।“बैसाख में उसका ब्याह है। अब वो ससुराल ही रहेगा।” माँ गेहूँ फटकती हुई बोली।
“अरे!” उसे किस क़दर हैरत हुई। घसीटे चाचा के ब्याह में बस क्या बताया जाए, क्या मज़ा आया था। रात रात-भर बस गाना और ढोल। सुर्ख़ टोल की दुपटया वो किस शान से आठ दिन तक ओढ़े फिरी थी।
जभी तो शबराती भय्या ने उसके क्या ज़ोर से चुटकी भर ली थी। वो घंटों रोयी थी। वो फिर सोचने लगी कि ब्याह में वो कौन सा कुरता पहनेगी। लाल ओढ़नी तो वैसी धरी थी, फिर ब्याह तो अभी दूर था। पर न जाने उसे क्या हो गया था। वैसे तो कुछ नहीं, बस जी था कि लोटा जाता था। अगर पिछवाड़े इमली का पेड़ न होता, तो वो फिर भूखी ही मर जाती। कैसा जी भारी भारी रहता… माँ उसके झोंटे पकड़ पकड़ कर हिलाती। पर हर वक़्त नींद थी कि सवार रहती… पानी भरते में उसे कई दफ़ा चक्कर आ गया और एक दफ़ा तो वो गिर ही पड़ी दहलीज़ पर।
“नाजो की कमर लचक जाती है।” माँ ने दोहत्तड़ मारकर कहा, और अपना सा पीला चेहरा देखकर तो वो ख़ुद डर जाती। वो यक़ीनन मरने वाली हो रही थी। कुबड़ी बुढ़िया मरी थी, तो कई दिन पहले धड़ाम से मोरी में गिरी। और बस घिसटा ही करती थी।
“अरी ये तुझे हो क्या गया है रांड?” माँ ने उसे पज़मुर्दा देखकर पूछ ही लिया। और वो उसे बेतरह टटोलने लगी। जन्नो के बहुत गुदगुदी हुई।“हरामज़ादी! ये किसका है?” उसने उसकी चोटी उमेठ कर कहा।
“क्या?” जन्नो ने डर के पूछा।
“अरी मुर्दे खोर बता तो आख़िर कुछ।” वो थककर जन्नो को फिर पीटने लगी। और फिर उसने न जाने क्या-क्या पूछ डाला। वहाँ था ही क्या।
रात को उसने अपने बाप की गालियाँ और मार डालने की धमकी सुनकर ज़ोर से घुटने पेट में अड़ा लिए और खाट पर औंधी हो गई… पर उसे बड़ी हैरत हुई कि वो साथ साथ शबराती भय्या को क्यों गंडासे से काट डालने की धमकी दे रहे थे। बैसाख में तो उनका ब्याह होने वाला था, जिसमें वो सुर्ख़ दुपट्टा ओढ़कर… उसका गला भर आया।