आम तौर पर जिसमें किसी विशेष कालखंड की लोकप्रिय कथा का वर्णन किया गया हो उसे ऐतिहासिक उपन्यास कहा जाता है, लेकिन उसकी एक शर्त यह भी है कि उस लोकप्रिय कथा से पाठक भी परिचित हों। आइए जानते हैं हिंदी साहित्य में ऐसी रचनाओं के बारे में।
हिंदी साहित्य में ऐतिहासिक उपन्यासों की शुरुआत
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गौरतलब है कि भारत में ऐतिहासिक उपन्यासों की शुरुआत जहां 1862 में भुदेव मुखोपाध्याय की बांग्ला कृति ‘अंगुरियो बिनिमोय’ से हुई थी, वहीं हिंदी साहित्य में ऐतिहासिक रचनाओं की शुरुआत चंद बरदाई ने 1882 में ‘पृथ्वीराज रासो’ से की थी, जो काव्य शैली के साथ बृजभाषा में थी। यदि ऐतिहासिक उपन्यासों की बात करें तो इसकी शुरुआत 1902 में बलदेव प्रसाद मिश्र की ‘अनारकली’ और गंगा प्रसाद गुप्त की ‘नूरजहां’ से हुई मानी जाती है। वर्तमान समय में बुंदेलखंड इतिहास के माध्यम से ऐतिहासिक उपन्यास रच रहे वृंदावनलाल वर्मा ने अब तक ‘विराटा की पद्मिनी’, ‘गढ़ कुंडार’, ‘झांसी की रानी’ और ‘मृगनयनी’ जैसे प्रख्यात उपन्यास रचे हैं। माना जाता है कि एक अंग्रेज के मुंह से बुंदेलखंड की गरीबी, पिछड़ेपन और अशिक्षा के बारे में अपमानजनक टिप्पणी सुनकर उन्होंने बुंदेलखंड के गौरवशाली इतिहास पर अपनी कलम चलाने का फैसला किया था। इसी तरह हिंदी साहित्य में ‘वैशाली की नगरवधू’ के माध्यम से अपने ऐतिहासिक उपन्यास का झंडा गाड़नेवाले आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की शुरुआत कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के ‘जय सोमनाथ’ की देखा-देखी ‘सोमनाथ’ से की थी। हालांकि मुंशी जी के ‘जय सोमनाथ’ से बेहतर कृति लिखने के चक्कर में उस वक्त शास्त्री जी ने ‘सोमनाथ’ को ऐतिहासिक उपन्यास से अधिक चमत्कारिक और रोमानी बना दिया था।
अद्भुत चित्रण के साथ प्रामाणिकता भी है ज़रूरी
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आचार्य चतुरसेन शास्त्री के अलावा रांगेय राघव के ऐतिहासिक उपन्यासों की भी एक लंबी सूची है, जिनमें ‘मुर्दों का टीला’ पाठकों के बीच खासा लोकप्रिय है। ‘मुर्दों का टीला’ में रांगेय राघव ने एक युग का काल्पनिक चित्र प्रस्तुत करते हुए अपने अनुमान से एक संस्कृति के विलुप्त हो जाने का कारण बताया है। ऐसे में कुछ विद्वान इसके प्रामाणिक इतिहास पर संदेह करते हुए इसे ऐतिहासिक उपन्यास की बजाय प्रागैतिहासिक उपन्यास का दर्जा देते हैं। हिंदी साहित्य में अपनी खास जगह रखनेवाले हजारीप्रसाद द्विवेदी के कमोबेश सारे उपन्यास ऐतिहासिक-पौराणिक उपन्यासों की श्रेणी में आते हैं। अद्भुत चित्रण के साथ वे न सिर्फ प्रामाणिक लगते हैं, बल्कि आकर्षक भी लगते हैं। हालांकि इनमें ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की बात करें तो इसकी नायिका भट्टिणी ऐतिहासिक चरित्र न होकर भी पाठकों का पूरा ध्यान अपनी तरफ खींचने में सफल है और इस तरह इसे उनकी एक दुर्लभ कृति का सम्मान मिला है। इसके अलावा ‘चारुचंद्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’ जैसी प्राचीन लोकप्रिय लोककथाओं पर आधारित उपन्यास भी हजारीप्रसाद द्विवेदी की ऐतिहासिक धरोहर है।
इतिहास का हिस्सा नहीं हैं पौराणिक कथाएं
पौराणिक पुराकथाओं को प्राचीन इतिहास माना जाए या नहीं, इसमें कुछ विद्वानों के सिद्धांतों में मतभेद हैं। हालांकि एक बहुत बड़ा वर्ग पुराकथाओं को अपना इतिहास मानते हुए भी पौराणिक कथाओं को ऐतिहासिक कथाओं से भिन्न मानता है और इसकी वजह है काल विशेष से संबंधित होने के बावजूद पौराणिक कथाओं का अपना एक मूल्य है। हालांकि कुछ कथाकारों ने उपनिषदों के मूल्यों को चरित्रों के माध्यम से उपन्यास के रूप प्रस्तुत तो किया है, किंतु जिन मूल्यों को उन्होंने दर्शाने का प्रयास किया है वे कहीं नजर नहीं आते। और तो और कुछ उपन्यास तो महज पौराणिक मूल्य व्यवस्था को तोड़ने के लिए विरोधियों द्वारा लिखे जान पड़ते हैं। ऐसे में उनकी चर्चा करना बेमानी है। हिंदी साहित्य में यदि ऐतिहासिक उपन्यासों की बात करें तो कई कथाकार हैं, जिन्होंने ऐतिहासिक चरित्रों का हवाला देते हुए समाज में नीतिपरक मूल्यों की नींव रखी। इनमें विशेष रूप से प्रेमचंद द्वारा लिखी गई ‘हरिसिंह नलवा’ की कहानी साहित्य में ऐतिहासिक महत्व के साथ न सिर्फ दर्ज हुई, बल्कि उनकी कहानी ने उस दौर में समाज को गौरव के साथ शौर्य की सफल गाथाएं भी दीं, किंतु अफ़सोस आज ये किसी को याद भी नहीं हैं।
ऐतिहासिक उपन्यासों की सफलता का पैमाना
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अमृतलाल नागर ने ‘एकदा नेमिषारण्य’, ‘मानस का हंस’ और ‘खंजन नयन’ जैसी चर्चित उपन्यासों के साथ अनेक युगों से संबंधित कई ऐतिहासिक उपन्यास लिखे हैं। हालांकि इनमें ‘एकदा नेमिषारण्य’ जहां महाभारत से प्रेरित है, वहीं ‘मानस का हंस’ और ‘खंजन नयन’ हिंदी के दो महान कवियों सूरदास और तुलसीदास को केंद्र में रखकर लिखे गए हैं। इनमें गोस्वामी तुलसीदास के जीवन से प्रेरित ‘मानस का हंस’ न सिर्फ लोकप्रिय और चर्चित, बल्कि विलक्षण उपन्यास भी है। अपने इस उपन्यास के माध्यम से अमृतलाल नागर ने तुलसीदास को नायक बनाकर विदेशी आक्रमण की क्रूरता और विदेशी शासन की कठोरता के साथ उनका संस्कृति प्रेम और संघर्ष दर्शाया है। इसके अलावा 1992 में स्वामी विवेकानंद की जीवनी पर आधारित नरेंद्र कोहली का ऐतिहासिक उपन्यास ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ ने लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इसकी लोकप्रियता की एक वजह जहां स्वयं स्वामी विवेकांनद हैं, वहीं दूसरी वजह है इतिहास और वर्तमान का अंतराल लगभग खत्म हो जाना।
ऐतिहासिक जीवनियों और उपन्यास में अंतर
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हालांकि ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना के लिए कुछ लेखकों ने इतिहास का कलात्मक आभास बनाया, जिनमें यशपाल की ‘दिव्या’ और भगवतीचरण वर्मा की ‘चित्रलेखा’ का नाम लिया जा सकता है। ऐतिहासिक उपन्यासों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य में सदैव इस बात पर विवाद रहा है कि क्या ऐतिहासिक पात्रों की जीवनियों को केंद्र में रखकर लिखी गई रचनाओं को ऐतिहासिक उपन्यास की श्रेणी में रखा जा सकता है? रांगेय राघव ने उपन्यास के बहुत नजदीक रहने के बावजूद ऐतिहासिक जीवनियां लिखी। ऐसे में उनकी रचनाओं को ऐतिहासिक रचनाएं तो कही जा सकती हैं, किंतु ऐतिहासिक उपन्यास नहीं, लेकिन सच्चाई यह भी है कि ऐतिहासिक जीवनियां, उपन्यास से अधिक दिलचस्प और संतुष्टि देती हैं। जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा भी था कि इस देश को अपनी स्वतंत्रता के लिए राजनीति की दलदल में धंसने की आवश्यकता नहीं है। यदि हम अपना सात्विक चरित्र ढूंढ लेंगे, तो हमारी समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाएगा। ये उपन्यास हमें वही सात्विक चरित्र ढूंढने में मदद करते हैं।