लकदक चमकते शीशे के दरवाज़े को दरबान ने सिर झुकाकर खोला और अंदर घुसते ही सुमी को लगा जैसे वो किसी परीकथा की दुनिया में पहुंच गई है. उसने इतनी भव्यता पहले कभी नहीं देखी थी. कोना-कोना कलाकारी का अद्भुत नमूना था. वे एक कलात्मक ढंग से सजी मेज पर बैठ गए. सामने बेशक़ीमती बरतनों में सजे स्नैक्स और..और ये क्या? शराब? रेस्तरां की भव्यता निहारती सुमी को झटका सा लगा.
“आपका दोस्त, जिसकी बर्थडे पार्टी है वो और बाक़ी के मेहमान कहां हैं?” घबराई सुमी के मुंह से निकला.
देव हंस पड़ा. “दोस्त! अरे बर्थडे तो एक बहाना था तुम्हें यहां लाने का. नहीं तो तुम्हारे दकियानूसी मां-बाप मानते भला?”
सुमी का मन घबराहट से निकल प्रतिवाद के भाव क्षेत्र में टहलकर चिंता पर टिक गया. उसे देव के इरादे साफ़ नज़र आने लगे थे. उसकी ज़िंदगी तो सचमुच की सिंड्रेला की कहानी बनती जा रही है. इतने दिनों से भाग ही तो रही है वो. हां भाग रही है, पर अपने तिलस्म के टूटने के डर से नहीं, देव के तिलस्म में फंस जाने के डर से.
...वे डांस फ़्लोर पर आ गए. देव ने एक हाथ उसकी कमर में डालकर उसे अपनी ओर खींच लिया था और दूसरे हाथ से उसका चेहरा पीछे से पकड़ अपने चेहरे से सटा लिया. देव के आतुर चुंबनों की झड़ी के साथ सुमी की व्याकुल घबराहट बढ़ती जा रही थी. आख़िर सुमी ने पूरी ताक़त से ख़ुद को एक झटके से अलग किया.
“सब लोग देख रहे हैं. ये तो डांस नहीं है.” धौंकनी जैसी सांसों, झुकी पलकों और रक्ताभ गालों के बीच सुमी के होंठों से अस्फुट स्वर फ़ूटे.
“तुम ठीक कहती हो. ये डांस नहीं है. फिर सब देख भी रहे हैं,” देव मुस्कुराया और उसकी बांह पकड़कर एक ओर ले चला.
“कमरा ख़ूबसूरत है न?” अचकचाई सुमी जब तक कुछ समझती, वो देव की प्यासी बांहों में थी. देव का अनुरोध आतुर था, पर हिंसक नहीं. उसमें कोमलता थी, उसके रूप की प्रशंसा थी. शब्दों से भी, आंखों से भी और स्पर्श से भी. एक हाथ से उसने सुमी की ठुड्डी पकड़ी थी, ताकि उसका चेहरा देख सके और दूसरे हाथ की उंगलियां कोमलता से अंग-अंग को प्रशंसा के साथ सहलाती जा रहीं थीं. एक ओर सुमी की चेतना बौराती जा रही थी. उसके प्यार के प्यासे कुंवारे तन-मन के लिए इसे ठुकरा पाना असंभव होता जा रहा था. दूसरी ओर मस्तिष्क चेतावनी के तूफ़ान खड़े करता जा रहा था.
‘‘ये सब शादी के बाद...’’ हकलाती सी सुमी बोली तो पर उसकी बोली में रत्ती भर तेज नहीं था. इस कमज़ोर इनकार पर एक वक्र मुस्कान डाल, उसे अपने क़रीब खींचकर देव ने चुंबनों की बौछशर शुरू कर दी... उसका स्पर्श आकुलतर और कठोर होता जा रहा था. सुमी की चेतना हृदय की कमज़ोरी से लड़ने लगी... मां की हिदायतें, दीना आंटी की चेतावनियां, देव के अहंकारी बर्ताव से उपजी निराशा… तभी उसके कंधे से गाउन सरकाने के देव के प्रयत्न पर ‘‘नहीं’’ के उत्तर में देव का मद भरा वाक्य हथौड़े सा लगा,‘‘अरे यार, तुम ग्रेट इंडस्ट्रियलिस्ट देव की वाइफ़ बनने वाली हो. अब छोड़ भी दो ये मिडिल क्लास दकियानूसी…’’ सुमी के मन में कुछ झनझना उठा और चेतना अचानक सतर्क हो गई. जैसे कोई तिलस्म टूट गया हो. जैसे ये सारी भव्यता कहीं ग़ायब हो गई हो. जैसे उसके सामने सिर्फ़ सच्चाई रह गई हो... उसकी और देव की आर्थिक असमानता के कारण देव के अहंकार की सच्चाई, देव को जीवनसाथी बनाने का मतलब सिर्फ़ एक सजावटी वस्तु बनकर रह जाने की सच्चाई, जिसका कोई आत्मसम्मान न होगा…सिर्फ़ सच्चाई…
सुमी ने पूरी ताक़त समेटकर देव को धकेला और वहां से भाग निकली. गिरती-पड़ती, बदहवास, डरी लेकिन सतर्क, बस भागती ही गई.. .देव के शब्दों के हथौड़े उसका पीछा करते रहे…
“डिगस्टिंग... यू कंज़र्वेटिव… पुअर… बिच…’’
बाक़ी सब सो गए थे. उसे अकेले उस हाल में लौटी देख मां की आंखों में उगे प्रश्नो के उत्तर में उनसे लिपट कर फट पड़ी वह. मां ने उसे गंभीरता से नहीं लिया.
“तू पार्लर जाने और ऐसे कपड़े पहनने को मानी ही क्यों?” बहुत सी बातें समझाने और उसे झिड़कने के बाद बात ख़त्म-सी की,“अब शादी के पहले अकेले में न मिलने देने की ज़िम्मेदारी हमारी.”
बस? इतनी सी बात है ये मां के लिए? घर में सन्नाटा पसरा था पर सुमी को अपने मन के झंझावात का शोर सोने नहीं दे रहा था. मन के एलबम पर छपे अतीत के चित्र चलचित्र बन गए थे.
....औरतें बुनाई लेकर जाड़ों की गर्म धूप में बैठी थीं. उनका सर्वप्रिय मनोरंजन उनकी पंचायत अपने चरम पर थी. उसकी मां लच्छी पांव में फंसाकर ऊन सुलझाती जा रही थीं और आठ वर्षीया सुमी गोला बनाती जा रही थी.
“अरे नहीं बाबाओं पर तो भरोसा करना मत कभी. मेरे साथ यही तो हुआ सुमी के समय में. जाने कहां से मैं उनकी बातों में आ गई. हम लोगों ने तो बेटियों से ही संतोष कर लिया था, पर उन्होंने सोया लालच जगा दिया. पक्की गारंटी दी थी लड़का होने की. सारे उपाय किए उनके बताए, पर हो गई लड़की. ग़ुस्सा तो इतना आया था कि लड़की ले जाकर उनके ही मुंह पर दे मारें पर...” सुमी के चेहरे पर मायूसी गहराती जा रही थी. पर मां अपना वाक्य अधूरा छोड़कर झल्ला पड़ीं,“उफ! कितना भी अच्छा ऊन ले लो, हर लच्छी के अंत में इतनी गांठें क्यों होती हैं, वो भी कसी हुई… मन करता है...”
“ये गांठें होती नहीं, हम लोग ही अनजाने में लगा देते हैं...” अबकी दीना आंटी ने मां की बात काट दी थी. “लच्छी सुलझाते समय थोड़ा धैर्य और तकनीक की ज़रूरत है, बस. लाओ मैं बताऊं. ये इतना आसान है कि सुमी भी कर सकती है. वैसे घर के कामकाज में तुम्हारी प्यारी सुमी अपनी उम्र से बहुत ज़्यादा होशियार है,” कहते हुए दीना आंटी ने मां को इशारों में झिड़कते हुए नन्हीं सुमी को अपनी गोद में खींच लिया था.
फिर समय का गतिमान पहिया वो दिन लाया जब सिंड्रेला की कहानी पढ़ी,“और फिर राजकुमार की नज़र सिंड्रेला पर पड़ी. ओस सी पवित्र, गुलाब सी सुंदर सिंड्रेला. वो एकटक उसे देखता ही रह गया...”
कहानी ख़त्म होने के साथ दस वर्ष की सुमी के आंसू मुस्कान में बदल चुके थे. उसकी आंखों में बुझी हुई निराशा की जगह किसी राजकुमार के दिल में जगह बनाने के सपने ने ले ली थी. सुमी के जीवन की कठिनाइयां यों भी जाने-अनजाने उसके दिमाग़ में भरे जाने वाले अस्तित्वहीनता के एहसास ने बढ़ाई हुईं थीं. वो किसी का ख़्वाब नहीं, ख़्वाब को हक़ीक़त में बदलने के लिए किया गया असफल प्रयत्न थी. तो आज से वो अपनी नज़र में सिंड्रेला हो गई. उसकी कहानी भी तो बिल्कुल वैसी ही थी. हर बात पर डांटने और टोकने वाली मां. इस्तेमाल के लिए बड़ी बहनों के छोटे हो गए कपड़े और सामान. ऐसी दुखियारी लड़की, जिसे कोई प्यार नहीं करता. हर कोई बस काम कराना जानता है. पर एक दिन एक राजकुमार उसे भी देखेगा, उसकी सुंदरता पर मुग्ध हो जाएगा... उसके बाद तो जीवन में सब कुछ अच्छा ही होगा. महल, नौकर-चाकर, सुख-सुविधा, साधन और इन सबसे बढ़कर इज़्ज़त और प्यार! होगा, एक दिन ज़िंदगी में सब कुछ होगा... सोचते-सोचते सुमी सो गई.
दूसरे दिन रोज़ की तरह मां की चिढ़ी हुई आवाज़ से नींद खुली.
“जाने कैसी नींद है. बिना चिल्लाए टूटती ही नहीं. बच्ची नहीं हो अब तुम. झाड़ी जैसी लंबी हो गई और सहूर बित्ते भर का नहीं.’’
सुबह के छः बजे थे. आज सुमी झटपट उठी, अपना बिस्तर समेटा और अपने नित्य के काम करके रसोई में पहुंच गई.
“बड़ी दीदी, मैं आपकी क्या मदद करूं?” सुमी के इस प्रश्न पर और प्रश्न से ज़्यादा उसके खिले चेहरे को देखकर नीमा के चेहरे पर आश्चर्य पसर गया.
“दीदी, कल मैंने इंगलिश की किताब में एक कहानी पढ़ी. सिंड्रेला की. आपने भी पढ़ी है न?” नीमा ने पापा का टिफ़िन उसे थमाते हुए पापा को दे आने का इशारा करते हुए ‘हां’ में सिर हिला दिया.
“एक दिन हमें भी सिंड्रेला की तरह राजकुमार मिलेगा न?” नीमा के चेहरे पर आशा और निराशा के सफ़ेद स्याह रंगों के मेल में रंगी हंसी आ गई. उसने एक लंबी ठंडी सांस छोड़ी,“चाहती तो हर लड़की यही है पर...”
“पर क्या दीदी?”
सिंड्रेला की उत्सुक झिंझोड़ से सकपकाकर नीमा ने ख़ुद को समेटा,“पर पहले ख़ुद को सुंदर और गुणी तो बना. देख सिंड्रेला कितनी सुंदर थी, कैसे ख़ुशी-ख़ुशी सबके सारे काम करती थी. किसी की बात दिल पर लेकर दुखी होकर नहीं बैठती थी. कब से इंतज़ार में हूं कि तू भी काम समेटना शुरू करे तो मैं भी अपना होम-वर्क पूरा करके टीचर की डांट से बच जाया करूं.”
छोटी दीदी की हंसी छूट गई,“और देख कैसे वो सुंदर बनने के लिए घरेलू चीज़ों का प्रयोग करती थी,” फिर लालच देती सी बोली,“देख, मंहगे प्रसाधन ख़रीदने के पैसे तो हमारे पास हैं नहीं. मैं तरह-तरह के उबटन आदि की रेसिपी ढूंढ़ती रहती हूं. उन्हें बनाने की मेहनत में भी साथी मिल जाए तो सब साथ सुंदर बनेंगी और साथ में पाएंगी राजकुमार…”
हर बात को गंभीरता से लेने की आदी सुमी ने सिंड्रेला की कहानी से दो सबक याद कर लिए. सिंड्रेला की कहानी से रोपे गए सपने का बीज रिश्तेदारों की बातों का खाद पानी पाकर अंकुरित पल्लवित होता रहा. सुंदरता के प्रति सजगता और चाव ने सुमी की प्राकृतिक सुंदरता को शतगुणित कर दिया था. और रचनात्मक अभिरुचियां संजीदगी और श्रम का खाद पानी पाकर पुष्पित और पल्लवित हो गईं थीं.
दीना के बेटे की शादी थी. सुमी हमेशा की तरह नायिका सी थी. गृहकार्य दक्ष, हंसमुख और फुर्तीली सुमी की वैसे भी हर कामकाज में हर तरफ़ पूछ रहती थी. व्यवसाय से करियर काउंसलर दीना समाज सेविका भी थीं और सुमी और उसकी जैसी कई लड़कियों की फ्रेंड फ़िलॉसफ़र और गाइड भी. उन्होंने तो उसे ‘वेडिंग प्लानर’ का नाम देकर उसका मेहनताना भी तय कर दिया था. हालांकि मां को दीना की ये बात बिल्कुल पसंद नहीं आई थी, पर सुमी बहुत उत्साहित थी. दीना की लड़कियों को अलग-अलग तरीक़े के काम सुझाने की आदत और बिन मांगी समाज सेवाएं मां को क़तई पसंद नहीं थीं. लेकिन वो सुमी को मना भी नहीं कर सकती थी. शादियों में लड़की के ‘पसंद’ कर लिए जाने की संभावनाओं से वाक़िफ़ थीं वो. उनकी मुराद पूरी हुई और विकी का धनी दोस्त देव सुमी को एकटक निहारता ही रह गया. ऐलान हो गया कि शादी तो वह सुमी से ही करेगा. मुराद तो सुमी की भी पूरी हुई थी. ईमानदार श्रम का पारिश्रमिक और एक घर से वेडिंग प्लानर का ऐड्वांस के साथ ऑफ़र हाथ पर साथ आया तो ख़ुशी से पलकें भर आईं थीं उसकी, पर अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले ख़ुद लेने की न तो उसे स्वतंत्रता थी न ही चाहत.
इतने बड़े घर में शादी! बजट की समस्या आई तो रिश्तेदार सामने आए. सुमी सबके काम आती थी. अब सबकी बारी थी. किसी ने कुछ जुटाया, किसी ने कुछ. चचेरी बहन सौम्या फ़ैशन डिज़ाइनिंग का कोर्स कर रही थी. चाची सस्ते बाज़ार से अच्छे कपड़े लाने में माहिर थी. सौम्या ने उनकी ऐसी डिज़ाइनिंग की कि ब्रॉन्डेड कपड़ों को मात देने लगे. बाक़ी शादी का इंतज़ाम भी ऐसे होता जा रहा था कि सुमी को लग रहा था कि सिंड्रेला की परी जादू की छड़ी से सब कुछ कर रही है.
…पर दीना आंटी ख़ुश नहीं थीं. “देव विकी का बचपन का दोस्त है, सालों से जानती हूं उसे. वो...” उन्होंने समझाने की कोशिश की पर मां कहां सुनने वाली थीं?
सुमी ने चिंता जताई तो बिफर पड़ीं,“अरे उनकी बिन मतलब की बातों में आकर घर बैठे मिला इतना अच्छा कमाता-खाता सजातीय लड़का छोड़ देंगे? अपने भाग्य सराह और जलने वालों पर ध्यान न दे.”
हालांकि सुमी जानती थी कि दीना आंटी जलने वालों में से नहीं हैं. बचपन से एक वही तो थीं, जो उसे प्यार और सही मार्गदर्शन देती आई थीं. स्कूल में कभी भी किसी भी गतिविधि में भाग लेने का अवसर मिले या कुछ नया सीखने का मन हो, साधन और मार्गदर्शन मुहैया कराने से लेकर मनोबल बढ़ाने तक, हर सहायता उनसे मिलती. यही नहीं, उनकी प्रशंसा भरी आंखें और मधुर मुस्कान सदा सुमी के चारों ओर आत्मविश्वास का कवच बुनती रहती. उन्होंने ही तो उसे ‘वेडिंग प्लानर’ के बारे में बताकर वो बनने के सपने दिखाए थे. पूरी टीम बना रखी थी उन्होंने अलग-अलग प्रतिभा की लड़कियों को मिलाकर.
दीना आंटी की बातों को अनदेखा करना सुमी को अच्छा नहीं लग रहा था पर वो जानती थी कि उसके हाथ में कुछ होता नहीं कभी. आज भी नहीं है. तो उसने ख़ुद को धाराओं में छोड़ दिया था. ये धाराएं थीं भी इतनी ख़ूबसूरत कि सुमी चाहकर भी ख़ुद को बहने से नहीं रोक सकती थी.
सगाई के बाद फ़ोन पर ख़ूबसूरती की तारीफ़ सुनते पल पंख लगाकर उड़ने लगे. हालांकि अक्सर अहंकार में भरे तंज के साथ प्रयुक्त किए गए ‘मिडिल क्लास’ के जुमले उसे आहत करते, पर इन बातों को तूल न देने की सीख संस्कार बनकर सुमी के मन में बसी थी. फिर देव की रूमानी बातें तन में ऐसी सिहरन पैदा करतीं थीं कि मन कुछ भी सोचने लायक रहता भी नहीं था. देव का सिर्फ़ बातों से काम न चलने का आग्रह अड़ियल हुआ तो थोड़ी आनाकानी के बाद मम्मी ने सुमी को ढेर सारी हिदायतें देकर एक पहचान के घर के ड्राइंग रूम में मिलने की व्यवस्था करा दी.
लेकिन देव इतने सारे बंधनों के बीच मिलने से जल्द ही उकता गया. उकता तो सुमी भी गई थी, उसके अहंकार से, क़रीब आने की ज़िद से. देव जैसे ही क़रीब आने की कोशिश करता, वो कोई बहाना बनाकर भाग खड़ी होती. तभी..
“बेटा, एक महीने ही तो बचे हैं तुम्हारी शादी को. कुछ दिन और सब्र करो...” सुमी को अपने दोस्त की बर्थडे पार्टी पर ले जाने के अनुरोध पर मम्मी का जवाब पूरा सुन नहीं पाया देव,“हद है आंटी, दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है. अब आप भी इस क़स्बाई सोच से बाहर निकलें...” देव की ज़िद के आगे मम्मी-पापा की एक न चली.
पार्टी के लिए मम्मी-पापा को राज़ी करने के लिए देव ने जिन शब्दों और लहजे में बात की थी, उससे सुमी बहुत आहत थी और जितनी जद्दोजहद करनी पड़ी थी, उससे देव का मूड बहुत ऑफ़ था. तभी कार एक ब्यूटी-पार्लर के सामने रुकी और देव ने उतरने का इशारा किया.
“ये रहा तुम्हारा बुकिंग-टोकन और ये रहे कपड़े. मैंने अपनी पसंद तुम्हारी ब्यूटीशियन को बता दी है. तुम्हें मुंह खोलने की ज़रूरत नहीं है,” देव के शब्दों और उससे अधिक उसके लहजे ने सुमी के आत्मसम्मान को भी आहत कर दिया पर पार्लर की आराम कुरसी पर बैठने के बाद हवा में बिखरी सुगंध, कानों में तैरता मधुर संगीत और प्रसाधिका की मोहक बातों के नशे ने जल्द ही नाराज़गी को अपनी आगोश में छिपा लिया.
आईने में अपना रूप निहारा तो पहली बार धन और साधनों के जादू से सामना हुआ. जिस रूप पर वो ख़ुद मुग्ध हुए बिना न रह सकी थी, उससे देव को तो सुध-बुध खोनी ही थी.
…यादों के चलचित्र ने सुमी को सोने नहीं दिया. कुछ सूझ नहीं रहा था उसे. ख़ुद को धाराओं पर छोड़ दे या धाराओं के विपरीत… चिड़ियों की चहचहाहट सुन खिड़की का परदा हटाया तो दीना आंटी अपनी बालकनी में पौधों को पानी दे रही थीं. और भोर की पहली किरण आशा की किरण बन गई. आंटी ही उसकी बात समझ सकती हैं.
“उसकी अहंकारी सोच, उसकी हावी रहने की आदत कोई मायने नहीं रखती? मां को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा इन बातों से. कहती हैं पुरुष ऐसे ही होते हैं. उनके हिसाब से वो खुले वातावरण में पला है, इसलिए स्वाभाविक आकर्षण को रोकना उसके लिए नैतिकता के मानदंड में नहीं है. बस!
‘‘आंटी, समस्या सिर्फ़ इतनी सी नहीं है कि वो शादी से पहले ही मेरे नज़दीक आना चाहता है. समस्या तो ये है कि मैं उसकी नज़र में एक सुंदर शरीर से अधिक कुछ और हूं ही नहीं. वो कभी मेरी पसंद-नापसंद, मेरी रुचियों, मेरी कलाओं पर कोई बात नहीं करता. सिर्फ़ अपनी बताता है. आपको कैसे बताऊं किस लहजे में उसने पार्लर में कहा था कि तुम्हें ब्यूटीशियन के सामने मुंह खोलने की ज़रूरत नहीं है. जैसे मैं या तो कोई निर्जीव गुड़िया हूं या...” वो फफककर रो पड़ी. "मैंने उसे सिंड्रेला का राजकुमार समझा था मगर वो...कोई राजकुमार नहीं आता असल ज़िंदगी में. ऐसी झूठी कहानियों को पाठ्यक्रम से हटा देना चाहिए…" सुमी सिसकियों के बीच बोल रही थी.
“क्या-क्या हटाएंगे? सिंड्रेला की कहानी, अवतारों की कहानिया…? लेकिन तुम भी ठीक कहती हो. अगर हम इन कहानियों को उनके मर्म, उनके प्रतीकार्थ के साथ नहीं पढ़ा सकते तो हटा ही देना चाहिए…” आंटी एक ठंडी सांस लेकर आत्मालाप करती सी बोलीं तो सुमी की सिसकियां बंद हो गईं. उसे अवसाद से निकल, सोच के धरातल पर आने का समय देने के लिए आंटी ठंडा और स्नैक्स लाने चली गईं. लौटीं तो सुमी के चेहरे पर प्रश्न उग चुके थे.
“मेरी एक बात का ईमानदार जवाब दोगी?” दीना ने पूरी संजीदगी के साथ उसकी आंखों में आंखें डालीं,“तुमने कहा कि देव तुम्हें शरीर से इतर कुछ नहीं समझता. ये बताओ कि तुम ‘ख़ुद’ अपने को एक शरीर से इतर कुछ समझती हो?” आंटी ‘ख़ुद’ शब्द पर ज़ोर देते हुए बोली. सुमी को झटका सा लगा. क्या मतलब है आंटी की बात का?
‘‘जब तक एक लड़की के ख़ुद के दिल में शारीरिक सुंदरता सबसे बड़ी चाहत हो और उससे किसी पुरुष को प्रभावित करके उस पुरुष के ज़रिए सब कुछ पा लेना एक अरमान बनकर बस रहा हो, तब तक वो ख़ुद को एक शरीर से अधिक और कुछ नहीं समझ रही है. या फिर ज़्यादा से ज़्यादा ख़ुद को अपने सौंदर्य की सम्पत्ति का स्वामी, जिसे बेचकर वो सारे सुख, वैभव, प्यार, सम्मान ख़रीद लेगी, ही तो समझ रही है.”
सुमी सिहर उठी. उसके चेहरे पर अपनी बातों का प्रभाव देख, दीना ने अंतिम कील ठोंकी,“फिर कोई दूसरा उसे इससे अधिक कैसे समझेगा? जो ये सब देकर सुंदरता ख़रीदेगा, वो उस पर मालिकाना हक़ नहीं समझेगा? विचार कर…”
सुमी के विचार का दायरा बढ़ रहा था. इस दृष्टि से तो उसने सोचा ही नहीं था.
“तू समझती है कि तेरी मां समस्या को कम करके आंक रही है. और मैं समझती हूं कि तूने भी समस्या के कारण को ही नहीं समझा है. सोच, अगर देव में ये अवगुण न होते! सोच कि उसके दमनकारी स्वभाव का पता शादी के बाद धीरे-धीरे चलता. सोच अगर वो अपने किए की माफ़ी मांगकर प्यार जताने लगे तो भी अपनी बात पर अडिग रह पाएगी? पहले ख़ुद को संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर तो निकाल. पहले ख़ुद तो अपने मन में तय कर कि तू ख़ुद को क्या समझती है और ज़िंदगी से क्या चाहती है? जैसी ज़िंदगी तू चाहती है उसमें कौन से संघर्ष हैं और उनसे कैसे निपटेगी?” दीना उसे पैनी नज़र से देखती रही.
कुछ देर ख़ुद से उलझने के बाद सुमी बोली,“आप प्रतीकार्थ की बात कर रहीं थीं. वो तो समझ नहीं आई और अब ये अटपटे प्रश्न?”
आंटी खिलखिलाकर हंस पड़ीं,“अरे हां, मैंने कहानी तो सुनाई नहीं और प्रश्न पहले कर दिए. चल आज मैं तुझे सिंड्रेला की कहानी फिर से सुनाती हूं. एक नए और अलग अंदाज़ में. उसके प्रतीकार्थों के साथ. तब जवाब देना मेरे प्रश्नों का. एक लड़की थी, जो बहुत सुंदर थी. अच्छा बता, सुंदरता का जीवन में क्या काम है?” आंटी ने कहानी शुरू करते ही फिर प्रश्न दाग दिया तो सुमी अचकचा गई.
“सुंदरता..हमें ख़ुशी देती है, दूसरों को प्रभावित करती है. उससे हमें महत्त्व और मान्यता मिलती है.”
“चल मान लेते हैं, तो एक लड़की थी. उसके पास सुविधा और साधनों की बहुत कमी थी, सिंड्रेला की मां और बहनें हमारे जीवन की विषम परिस्थितियों का प्रतीक हैं. और सिंड्रेला का कर्मठ, उदार और विनम्र स्वभाव ही वो वास्तविक सुंदरता है, जो सकारात्मक और जुझारू जीवन दर्शन से प्राप्त होती है. सुंदरता प्रतीक है ऐसे व्यक्तित्व और उसमें निहित गुणों का जो ख़ुद को आनंदित रखना जानता है. जिससे लोग देखते ही प्रभावित हो जाते हैं. अपनी नैसर्गिक प्रतिभाओं को निरंतर निखारते रहने की इच्छा-शक्ति का, जिससे हमें मान्यता और महत्त्व मिलता है. तो उस लड़की में भी एक हुनर था जिसे वो तराश चुकी थी.”
सुमी के चेहरे पर उत्सुकता पढ़ दीना ने बात आगे बढ़ाई.
“अच्छा हुआ तूने इस कहानी का आधा अर्थ तो सही ग्रहण किया और ख़ुद को ऐसे व्यक्तित्व में ढालने के लिए परिश्रम किय, जिसे बहुत सुंदर कहा जा सकता है. तूने अपनी प्रतिभाओं को पूरी लगन से तराशा और अच्छाइयों को निखारा. जिन कामों के लिए लंबा वक़्त चाहिए होता है वो तू कर चुकी है.”
आंटी की वाणी के ओज से सुमी के चेहरे पर चहक आई पर जल्द ही फिर उदासी छा गई.
“पर उससे क्या होगा आंटी”
इसी से तो सब कुछ होगा. इसीलिए मैंने शुरू में पूछा था कि ‘तू ख़ुद’ ख़ुद को क्या समझती है? शरीर या व्यक्तित्व?” दीना ने फिर ‘तू ख़ुद’ पर ज़ोर दिया. सुमी के चेहरे की उदासी तो दूर होने लगी पर असमंजसों का झाड़ अभी भी उगा हुआ था. उन्हें काटने के लिए दीना की वाणी कुछ और ओजस्वी हो गई.
“चल, अब कहानी में आगे बढ़ते हैं. सिंड्रेला के जीवन में राजकुमार की एंट्री होती है. हां, तो उस लड़की को इंतज़ार था एक अवसर का, जो उसके हुनर को स्वावलंबन में बदल सके, उसे पहचान दिला सके. दरअसल राजकुमार प्रतीक है उस अवसर का जो सभी को ज़िंदगी में मिलता ज़रूर है. वो छोटा, बड़ा हो सकता है. जल्दी या देर में मिल सकता है, लेकिन उसका लाभ वही उठा पाता है जिसने ख़ुद को निरंतर इसके लिए तैयार किया है.”
सुमी के मन में बहुत कुछ स्पष्ट होता जा रहा था.
“अब उस लड़की को अवसर मिल गया तो उसे उपलब्धि में बदलने के लिए साधनों की ज़रूरत पड़ी. परी प्रतीक है उन अच्छे इन्सानों का जो हम ध्यान से देखें तो हमें आसपास ही मिल जाते हैं. जो हमें हमारे साधारण साधनों को प्रोत्साहन और सहायता की जादू की छड़ी से ज़रूरी उपकरणों में बदलने को सहयोग दे पाते हैं. तो उस लड़की को भी एक परी मिल गई.”
“जैसे कि मुझे आप मिल गईं,” सुमी चहक उठी. “आंटी मैं समझ गई. आप बात करिए न मम्मी से. मुझे नहीं करनी देव से शादी. मैं वेडिंग प्लानर बन जाऊंगी.”
सुमी की मासूमियत आंटी के चेहरे पर एक करुण हंसी ले आई,“रुक, रुक, ये असली कहानी है और असली कहानी में सुखांत ऐसे सुपरमैन की तरह कूद मारकर प्रकट नहीं होता.”
सुमी को हंसाकर आंटी ख़ुद गंभीर हो गईं. “कहानी अभी पूरी नहीं हुई है. तुम्हें याद होगा कि परी का जादू सीमित अवधि के लिए होता था. निश्चित समय के बाद चीज़ों का वास्तविक रूप में लौट जाना प्रतीक है कि मैं या तेरा कोई भी अपना अवसर तक पहुंचने में सिर्फ़ क्षणिक और छोटी सहायताएं कर सकता है. अवसर को उपलब्धि में बदलना मतलब अपने जीवन की समस्याओं से जूझना और उनका स्थाई हल निकालना व्यक्ति का अपना काम है. कोई और इसे किसी के लिए कर नहीं सकता. कर भी दिया तो ये स्थाई नहीं होगा. यदि तुम ख़ुद को दीन-हीन समझोगी और अपने ‘उद्धार’ के लिए किसी पर निर्भर रहोगी तो वो पति हो या दीना आंटी, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. बस ‘उद्धारक’ के अहंकार और शोषण के स्वरूप बदल जाएंगे.”
“आप ठीक कहती हैं आंटी, न तो मम्मी-पापा आपको मेरी शादी के मामले में हस्तक्षेप करने देंगे और न ही कुछ बन जाना इतना आसान है. फिर मैं क्या करूं?” सुमी को फिर निराशा में गिरते देख दीना सीधे प्रेरणादाई शब्दों पर लौट आई.
“पहले पहली सीढ़ी चढ़. सोच बदल. जिस दिन तय कर लेगी कि तेरा राजकुमार कोई व्यक्ति नहीं, वो अवसर है जिसे उपलब्धि में बदलकर तुझे पहले आर्थिक फिर भावनात्मक आत्मनिर्भरता मिलेगी. सुंदरता वो स्वावलंबी व्यक्तित्व है, जिससे तुझे समाज में सम्मान और महत्त्व मिलेगा उस दिन उस तक पहुंचने के लिए जीवन की सामान्य सुविधाओं को श्रम और दृढ़ता की जादू की छड़ी से ज़रूरी उपकरणो में बदलना भी आ जाएगा और अपनो का नज़रिया बदलने का आत्मविश्वास भी.”
सुबह दोपहर की तरफ़ बढ़ रही थी और सुमी की सोच में भी उजास भरती जा रही थी. आंटी के शब्द पूरी ओजस्विता के साथ उसकी आत्मा में उतरते जा रहे थे.