गोपालदास ‘नीरज’ हिंदी के अत्यंत लोकप्रिय कवी और गीतकार रहे हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य और फिल्म संगीत दोनों में योगदान के लिए जाना जाता है। उनका लेखन सरल और भावनात्मक था, जो आम लोगों की भावनाओं को सशक्त ढंग से व्यक्त करता था। आइए, उनके जीवन के रंगों को विस्तार से जानते हैं।
‘नीरज’ का प्रारंभिक जीवन
4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरावली गांव में जन्में गोपालदास सक्सेना 'नीरज' के पिता का नाम ब्रजकिशोर सक्सेना था। बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ जाने के कारण पढ़ाई-लिखाई के साथ उनका शुरुआती जीवन बेहद कठिनाइयों में गुज़रा। आर्थिक कठिनाइयों के चलते उन्होंने जीवन में कई छोटी-मोटी नौकरियाँ कीं, जिनमें पोस्टमैन से लेकर टाइपिस्ट और शिक्षक शामिल हैं। हालांकि उनकी इन कामों से इतर उनकी साहित्यिक रुचि ने उन्हें एक अलग दिशा दी और वे प्रख्यात गीतकार और कवी बन गए। ‘नीरज’ का लेखन उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी की चिंताओं, संघर्षों और अनुभवों का सजीव चित्रण है। उनके गीतों में गहराई से महसूस की गई वेदना और सामाजिक यथार्थ के साथ उनके संघर्षमय सफर के भी दर्शन होते हैं। उदाहरण के तौर पर अपने बहुप्रसिद्ध गीत में उनकी यह पंक्तियाँ, ‘देखती रह गई जो, मुट्ठी में नहीं था रेत भी, कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे’, न सिर्फ उनकी आत्मिक संवेदना को दर्शाती हैं, बल्कि जीवन की अस्थिरता के प्रति उनका गहन दृष्टिकोण भी प्रकट करती हैं। उत्तर प्रदेश के एटा जिले से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज से बीए की डिग्री हासिल की। अलीगढ़ से उनका विशेष लगाव था, क्योंकि यहाँ की सांस्कृतिक और साहित्यिक धारा ने उनके साहित्यिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया।
‘नीरज’ की बदलती स्थितियां-परिस्थितियां
रोज़ी-रोटी की तलाश में निकले ‘नीरज’ ने शुरुआती नौकरी इटावा की कचहरी में बतौर टाइपिस्ट की। कुछ समय बाद उन्होंने सिनेमाघर की एक दुकान पर भी नौकरी की, लेकिन जब वो भी चली गई तो जैसे-तैसे माँ और तीन भाइयों के लिए रोटी-पानी की व्यवस्था के लिए छोटे-मोटे काम किए। किसी तरह काम चल रहा था तभी उन्हें दिल्ली के सप्लाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी मिल गई, जिससे कुछ राहत हो गई। नौकरी के साथ अपनी पढ़ाई-लिखाई की गाड़ी को भी आगे बढ़ा रहे ‘नीरज’ को उसी दौरान कलकत्ता में एक कवी सम्मेलन में शामिल होने का मौका मिला और उनका साहित्यिक सफर शुरू हो गया। कवी सम्मेलनों के ज़रिए ‘नीरज’ के गीतों की खुश्बू इस कदर फैली, कि उन्हें ब्रिटिश शासन में सरकारी कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार करने वाले एक महकमे में नौकरी मिल गई। सरकारी नौकरी मिलते ही ‘नीरज’ को लगा कि ज़िंदगी पटरी पर लौट आई है, तभी उनके लिखे एक गीत के कारण उन्हें नौकरी गंवानी पड़ी और वह कानपुर वापस लौट आए। आखिरकार एक प्राइवेट कम्पनी में पांच वर्ष तक टाइपिस्ट की नौकरी करने के साथ उन्होंने प्राइवेट परीक्षाएं देते हुए प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एमए किया और वर्ष 1955 में मेरठ कॉलेज में हिंदी प्रवक्ता के तौर पर पढ़ाने लगे, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने यह नौकरी भी छोड़ दी। इस नौकरी को छोड़ने के बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिंदी विभाग के प्राध्यापक बन गए और अलीगढ़ को अपना स्थायी ठिकाना बना लिया।
‘नीरज’ का साहित्यिक करियर
नीरज’ के साहित्यिक सफर की शुरुआत कवी सम्मेलनों से हुई थी। अपनी रचनाओं को प्रस्तुत करने का उनका अंदाज़ कुछ ऐसा था कि कि लोग उनकी कविताओं में खो जाते थे। उनकी एक खासियत यह भी थी कि वे अपने गीतों को अपनी मर्मस्पर्शी आवाज़ से गाकर सुनाते थे, जो उन्हें और प्रभावशाली बना देता था। उनके गीतों की शैली और भाषा बहुत ही आसान होने के साथ-साथ सादगी से भरपूर थी। यही वजह है कि उनकी कविताएँ और गीत सभी वर्गों के लोगों में बेहद लोकप्रिय थी। उनकी प्रमुख काव्य कृतियों में आज भी ‘बादलों से सलाम लेता हूँ’, ‘कारवाँ गुज़र गया’, प्रणय गीत’, ‘नीरज की पाती’ और ‘गीत जो गाए नहीं’ रचनाएँ शामिल हैं। अपनी इन रचनाओं में उन्होंने जीवन के गहरे सत्य को अत्यंत सरल और सुंदर शब्दों में व्यक्त करते हुए जीवन की क्षणभंगुरता, प्रेम की अस्थिरता, और समाज की समस्याओं का चित्रण किया है। उनका मानना था कि साहित्य का उद्देश्य मानवता की सेवा करना है। उनके अनुसार कविता वह होती है, जो मानव के हृदय में उतरकर उसे स्पर्श करते हुए भीतर के विचारों और भावनाओं को भी प्रकट करे।
‘नीरज’ का फिल्मी करियर
नीरज का सिनेमा की दुनिया में आना उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। 1960 और 1970 के दशक में उन्होंने हिंदी फिल्म उद्योग को अनेक अमर गीत दिए। उनकी गीतों की शैली में गहराई, सरलता और संगीतात्मकता का अद्भुत तालमेल था। उनके गीतों में गहरी दार्शनिकता, प्रेम और समाज की जटिलताओं का सूक्ष्म चित्रण होता है। नीरज के फिल्मी गीत अक्सर जीवन के बारे में गहरी भावनाओं को व्यक्त करते हैं। उदाहरण के तौर पर फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ के गीत ‘फूलों के रंग से, दिल की कलम से’, में जहां नीरज ने प्रेम की नाजुकता और उसकी सुन्दरता को शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत किया, वहीं फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के गीत ‘ए भाई! ज़रा देख के चलो’ में उन्होंने जीवन के सफर की अस्थिरता को हास्य के साथ बहुत ही भावपूर्ण तरीके से व्यक्त किया है। नीरज के फिल्मी गीत उनकी साहित्यिक प्रतिभा का प्रतीक हैं, जिसमें उन्होंने सरलता और दार्शनिकता का अद्भुत संयोजन किया।
‘नीरज’ की रचनाएँ और बहुचर्चित गीत
‘नीरज’ ने अपने साहित्यिक सफर में कई मोड़ देखें और इन मोड़ों से गुज़रते हुए कई मुकाम तय किए, जो उनकी रचनाओं के तौर पर साहित्य में दर्ज हो चुके हैं। उनकी प्रमुख कृतियों में ‘दर्द दिया है’, ‘आसावरी’, ‘मुक्तकी’, ‘कारवां गुज़र गया’, ‘लिख-लिख भेजत पाती’, ‘पंत-कला’ तथा ‘काव्य और दर्शन’ शामिल हैं। इन साहित्यिक रचनाओं के अलावा उनके कई प्रसिद्ध फिल्मी गीत भी हैं, जिनमें फिल्म ‘कन्यादान’ का ‘लिखे जो ख़त तुझे, वो तेरी याद में, हज़ारों रंग के नज़ारे बन गए’, फिल्म ‘शर्मीली’ का ‘खिलते हैं गुल यहां’,‘ओ मेरी ओ मेरी ओ मेरी शर्मीली’ और ‘आज मदहोश हुआ जाए रे’, फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ का ‘शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब’ ‘फूलों के रंग से, दिल की कलम से’ और ‘रंगीला रे, तेरे रंग में यूं रंगा है मेरा मन’, फिल्म ‘गैम्बलर’ का ‘चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है’ और ‘दिल आज शायर है’, फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का ‘ए भाई! ज़रा देख के चलो’, फिल्म ‘पहचान’ का ‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं’ और फिल्म ‘नई उमर की नई फसल’ का ‘कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे’ गीत शामिल हैं. इनमें विशेष रूप से ‘कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे’ गीत उनके नाम का पर्याय बन चुका है। उनके जीवनपर्यंत देश-विदेश में शायद ही कोई ऐसा कवि सम्मेलन हुआ, जिसमें उनके चाहने वालों ने उनसे वह गीत सुनाने की फरमाइश न की हो।
‘नीरज’ को मिले सम्मान और पुरस्कार
नीरज को उनके अद्वितीय योगदान के लिए कई राष्ट्रीय और साहित्यिक पुरस्कार मिले। वे पहले शख्स हैं, जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया, जिनमें 1991 में पद्मश्री और 2007 में पद्मभूषण पुरस्कार शामिल है। इसके अलावा 1994 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने उन्हें ‘यश भारती पुरस्कार’ और विश्व उर्दू पुरस्कार से भी नवाजा गया है। अपने फ़िल्मी करियर में उन्होंने तीन बार फिल्मफेयर अवार्ड जीते, जिनमें वर्ष 1970 में आई फिल्म ‘चंदा और बिजली’ का गीत, ‘काल का पहिया घूमे रे भइया’, वर्ष 1971 में आई फिल्म ‘पहचान’ का गीत ‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ’ और वर्ष 1972 में आई फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का गीत ‘ए भाई! ज़रा देख के चलो’ शामिल है। उन्हें मिले पुरस्कार उनके लेखन की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं। 93 वर्ष की आयु में अपने निवास स्थान पर 19 जुलाई, वर्ष 2018, के दिन उनके निधन के साथ हिंदी साहित्य और सिनेमा ने एक अनमोल रत्न खो दिया। हालांकि उनके द्वारा रचे गए गीत और कविताएँ आज भी लोगों के दिलों में गूंजती हैं और आने वाली पीढ़ियाँ उनसे प्रेरणा लेती रहेंगी।
‘नीरज’ की लोकप्रिय रचना ‘कारवां गुज़र गया’
स्वप्न झड़े फूल से
मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे
नींद भी खुली न थी कि हाए धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िंदगी फिसल गई
पात पात झड़ गए कि शाख़ शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी, न पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए
छंद हो दफ़्न गए
साथ के सभी दिए धुआँ धुआँ पहन गए
और हम झुके झुके
मोड़ पर रुके रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे
क्या शबाब था कि फूल फूल प्यार कर उठा
क्या सरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ
ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली कली कि घुट गई गली गली
और हम लुटे लुटे
वक़्त से पिटे पिटे
साँस की शराब का ख़ुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे
हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़ चाँद की सँवार दूँ
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ
हो सका न कुछ मगर
शाम बन गई सहर
वो उठी लहर कि दह गए क़िलए' बिखर बिखर
और हम डरे डरे
नीर नैन में भरे
ओढ़ कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे
माँग भर चली कि एक जब नई नई किरन
ढोलकें धमक उठीं ठुमक उठे चरन चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड पड़ा बहक उठे नयन नयन
पर तभी ज़हर भरी
गाज एक वो गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार तार हुई चुनरी
और हम अंजान से
दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे
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