हरिवंश राय बच्चन हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण कवि रहे हैं, जिनकी रचनाओं को हमेशा ही सम्मान की नजर से देखा गया है। ‘मधुशाला’ उनके जीवन की लोकप्रिय रचनाओं में से एक रही। आइए जानते हैं उनकी यात्रा और उनकी रचनाओं के बारे में।
जीवन परिचय
हरिवंश राय बच्चन के अगर जीवन परिचय की बात की जाये, तो उनका जन्म 27 नवंबर को प्रतापगढ़ में हुआ था। उनके पिता का नाम नारायण श्रीवास्तव था। माँ का नाम सरस्वती था। बचपन में उन्हें बच्चन नाम से पुकारा जाता था, इसलिए उनका नाम बच्चन हो गया। उनका बचपन बाबू पट्टी में ही बीता था। उन्होंने पहले उर्दू और फिर हिंदी की शिक्षा ली थी, जो उस समय कानून की डिग्री के लिए पहला कदम माना जाता था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए किया है और कैंब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात डब्लू बी येट्स की कविताओं पर शोध कर पीएचडी पूरी की थी। उन्होंने तेजी सूरी से विवाह किया था। उस दौर में तेजी रंगमंच और गायन से जुड़ी हुई यहीं। यह वही समय था, जब उन्होंने ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ जैसी कविताओं की रचना की थी। उन्हें 1976 में पद्मभूषण की उपाधि मिली थी। साथ ही साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। उन्होंने लोक धुनों पर कई कविताएं लिखी हैं। उनकी रचनाओं में संवेदनशीलता भी खूब नजर आती है।
रचनाएं
हरिवंश राय बच्चन की अगर रचनाओं की बात करें, तो ‘कोई पार नदी के गाता’, ‘अग्निपथ’, ‘क्या है मेरी बारी में’, ‘लो दिन बीता लो रात गयी’ ‘क्षण भर को क्यों प्यार किया था’, ‘ऐसे मैं मन बहलाता हूँ, ‘मैं कल रात नहीं रोया था’, ‘नीड का निर्माण फिर-फिर’, ‘त्राहि त्राहि कर उठता जीवन’, ‘इतने मत उन्मत्त बनो’, ‘स्वप्न था मेरा भयंकर’, ‘तुम तूफान समझ पाओगे’, ‘रात आधी खींच कर मेरी हथेली’, ‘मेघदूत के प्रति’, ‘साथी’, ‘साँझ लगी अब होने’, ‘गीत मेरे लहर’, ‘सागर का शृंगार’, ‘आ रही रवि की सवारी’ और ऐसी कई रचनाएं शामिल हैं, लेकिन ‘मधुशाला’ सबसे अधिक लोकप्रिय रही।
पढ़ें उनकी कुछ रचनाएँ
मधुशाला की कुछ पंक्तियाँ
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।
प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।
प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।
भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।।
लो दिन बीता, लो रात गई
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा –
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
लो दिन बीता, लो रात गई,
सूरज ढलकर पच्छिम पहुँचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या-सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था,
दिन में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।
धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फैले,
सौ रजनी-सी वह रजनी थी
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।
चिड़ियाँ चहकीं, कलियाँ महकी,
पूरब से फिर सूरज निकला,
जैसे होती थी सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रातः कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।