किसी भी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनके द्वारा गढ़ी गई रचनाएं, उस हर शख्स के लिए खास हैं, जो साहित्य में व्यंग्य रस को पसंद करते हैं। हरिशंकर परसाई का जन्म 1922 में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ था। नागपुर विश्वविद्यालय से एमए करने के बाद उन्होंने अध्यापन किया। फिर स्वतंत्र लेखन करने लगे। उनकी रचनाओं की बात करें तो उनके दिन फिरे, रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, तब की बात और थी, भूत के पांव पीछे, बेईमानी की परत और ऐसी कई रचनाएं खास हैं। आइए पढ़ते हैं उनकी ऐसी ही कुछ रचनाएं।
कविता
जगत के कुचले हुए पथ पर भला कैसे चलूं मैं
किसी के निर्देश पर चलना नहीं स्वीकार मुझको
नहीं है पद चिह्न का आधार भी दरकार मुझको
ले निराला मार्ग उस पर सींच जल कांटे उगाता
और उनको रौंदता हर कदम मैं आगे बढ़ाता
शूल से है प्यार मुझको, फूल पर कैसे चलूं मैं?
बांध बाती में हृदय की आग चुप जलता रहे जो
और तम से हारकर चुपचाप सिर धुनता रहे जो
जगत को उस दीप का सीमित निबल जीवन सुहाता
यह धधकता रूप मेरा विश्व में भय ही जगाता
प्रलय की ज्वाला लिए हूं, दीप बन कैसे जलूं मैं?
जग दिखाता है मुझे रे राह मंदिर और मठ की
एक प्रतिमा में जहां विश्वास की हर सांस अटकी
चाहता हूँ भावना की भेंट मैं कर दूं अभी तो
सोच लूँ पाषान में भी प्राण जागेंगे कभी तो
पर स्वयं भगवान हूँ, इस सत्य को कैसे छलूं मैं?
क्या किया आज तक क्या पाया
मैं सोच रहा, सिर पर अपार
दिन, मास, वर्ष का धरे भार
पल, प्रतिपल का अंबार लगा
आखिर पाया तो क्या पाया?
जब तान छिड़ी, मैं बोल उठा
जब थाप पड़ी, पग डोल उठा
औरों के स्वर में स्वर भर कर
अब तक गाया तो क्या गाया?