“मैं कोई साहित्यिक दिखावा नहीं कर सकता। गुजराती और, इस मामले में, किसी भी साहित्य से मेरा परिचय, मेरी किसी गलती के बिना, लगभग नगण्य हैं।” साहित्य के विषय में ये विचार थे महात्मा गांधी के। आइए जानते हैं भारतीय साहित्य में गांधीजी के विचार के बारे में थोड़ा विस्तार से।
हिंदी साहित्य में गांधीजी के विचारों की आवश्यकता
गांधीजी के चमत्कारी भाषणों, उनके विचारों और दृढ़ व्यक्तित्व ने भारतीय समाज को अभिभूत कर रखा था, ऐसे में उस दौर के साहित्यकार अपवाद नहीं थे। यही वजह है कि लंबे समय से तिरस्कार, उपेक्षा और अपमान झेल रहे भारतीय भाषाओं और उसके साहित्यकारों ने अपने व्यक्तिगत जीवन के साथ अपने साहित्य में भी गांधीजी को विशेष स्थान दिया। इनमें कुछ साहित्यकार ऐसे थे, जो गांधीजी के आदर्शों से इस कदर प्रभावित थे कि उनके लेखन में गांधीवादी आदर्शवाद के साथ-साथ उनकी जीवनशैली, उनकी शिक्षाएं और उपनिवेशवाद विरोधी रुख बहुतायत में थीं। सिर्फ यही नहीं इनमें से कई लोगों ने तो उनके स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा भी लिया था। गांधीजी के विचार उनके दिल-ओ-दिमाग में इस कदर समाहित हो चुके थे कि हर भारतीय साहित्य में एक नई सोच उभरी, जिनमें सामाजिक सुधार की गहरी जड़ें थीं। हालांकि इन सबके मुकाबले गांधीजी के चिंतन की अभिव्यक्ति हिंदी साहित्य में कई बार हुई।
नामी साहित्यकारों की रचनाओं में गांधीजी
हिंदी साहित्य में विशेष रूप से मुंशी प्रेमचंद का व्यक्तित्व गांधीजी से काफी मेल खाता रहा है। इसकी बजाय यह कहें तो गलत नहीं होगा कि गांधीजी के व्यक्तित्व की छाप प्रेमचंद पर ज़बरदस्त थी। शायद यही वजह है कि उनके अधिकतर उपन्यासों ‘गोदान’, ‘गबन’ और ‘कर्मभूमि’ में गांधीजी की अभिव्यक्ति बारंबार देखने को मिलती है। प्रेमचंद के बाद जैनेंद्र कुमार और फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों में भी गांधीजी बड़ी गहराई से नज़र आते हैं। जैनेंद्र कुमार ने अपने दो उपन्यासों ‘सुखदा’ और ‘त्यागपत्र’ में अपनी नायिका मृणाल के माध्यम से गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित सिद्धांत संघर्ष की प्रेरणा का संदेश दिया है। इसी तरह फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के उपन्यास ‘मैला आँचल’ में वह ग्राम स्वराज की बात कहकर गांधीजी के स्वराज को स्थापित करते हैं। जयशंकर प्रसाद के नाटकों में ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग’ के ज़रिए स्वतंत्रता की जो पुकार सुनाई देती है, उसका स्वर कश्मीर से कन्याकुमारी तक लोगों को सुनाई देती है। दरअसल, जयशंकर प्रसाद के नाटकों और कविताओं में राष्ट्र के प्रति जो समर्पण और राष्ट्रीयता का स्वर सुनाई देता है, वह गांधी के प्रभाव से ही है। उदाहरण स्वरूप आप ‘कामायनी’ को ही लीजिए। ‘कामायनी’ में गांधीजी के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए वह गांधीजी के ‘हिंद स्वराज’ की तर्ज पर मशीनीकरण का विरोध करते हैं। साथ ही ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ और ‘शेर सिंह का शस्त्र समर्पण’ में भी गांधीवाद का प्रभाव साफ़ नज़र आता है। इसके अलावा, सर्वेश्वरदयाल शर्मा ने अपने नाटक ‘बकरी’ में गांधीजी के कर्मवाद को दर्शाया है।
सामाजिक समस्याओं का समाधान रही हिंदी साहित्य
उल्लेखनीय है कि नामी साहित्यकारों के अलावा विनोद शंकर व्यास ने ‘स्वराज कब मिलेगा?’, आनंद प्रकाश जैन ने ‘देवताओं की चिंता’, चैतन्य भट्ट ने ‘रंग में भंग’ और विष्णु प्रभाकर ने ‘उस दिन’ कहानी में अपने नायिकाओं के ज़रिए अहिंसा की अनिवार्यता को बखूबी दर्शाया है। इन कहानियों के अलावा, स्वरूप कुमार बख्शी की दो कहानियाँ, ‘बुलबुल’ और ‘जीवन की सात समस्याएँ’ भी गांधीजी की इसी अवधारणा से प्रेरित हैं। यह वाकई दिलचस्प बात है कि गांधीजी से प्रेरित होकर जहां हिंदी के कई साहित्यकारों ने अपनी कहानियों, उपन्यासों, नाटकों और कविताओं के ज़रिये गांधीजी की स्वप्न धरा को अपने कलम से उकेरा, वहीं व्यक्तिगत जीवन से लेकर समाज, राजनीति, राष्ट्रधर्म, अध्यात्म, नैतिकता और प्रेम से जुड़ी विभिन्न समस्याओं का समाधान गांधीजी को हिंदी साहित्य के ज़रिए मिला। दरअसल गांधीजी एक ऐसा देश चाहते थे जहाँ सामाजिक विसंगतियाँ न हों, उनकी यह कल्पना उस दौर के सभी साहित्यकारों को अपनी सी लगती थी। यही वजह है कि उनका साहित्य गांधीजी के आदर्श विचारों से प्रभावित रहा।
कविताओं में भी गूंजा गांधीजी का आदर्श
हिंदी कहानियों, उपन्यासों और नाटकों के अलावा कविताओं में भी गांधीजी के आदर्शों को बखूबी अपनाया गया है। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्यों ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ में गांधीजी के विचारों से प्रेरित होकर महिलाओं की कुछ समस्याओं को उठाया है। गौरतलब है कि जहाँ ‘यशोधरा’ में यशोधरा और ‘साकेत’ में उर्मिला को केंद्र में रखकर महिलाओं की पति-बिछोह की पीड़ा को दर्शाया है, वहीं ‘भारत भारती’ में मैथिलीशरण गुप्त ने गांधीजी के आदर्शों की बात की है। इसके अलावा महादेवी वर्मा ने जहाँ गांधीजी को अपनी एक कविता के माध्यम से धरा पुत्र कहकर संबोधित किया है, वहीं सोहनलाल द्विवेदी, उन्हें महात्मा और पुण्यात्मा कहकर पुकार रहे हैं। इन कवियों के साथ सुमित्रानंदन पंत, भवानी प्रसाद मिश्र और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविताओं में भी गांधीवादी प्रभाव साफ़ तौर पर नज़र आता है। सच कहें तो जन प्रतिनिधि रहे इन साहित्यकारों ने जिस तरह अपनी रचनाओं से गांधीजी के आदर्श विचारों को लोगों तक पहुँचाया, उसने आज़ादी की मशाल को प्रज्जवलित करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई।
राष्ट्रीय एकता की प्रतीक रही हिंदी भाषा
गुजराती होने के बावजूद गांधीजी सदैव हिंदी भाषा के पैरोकार रहे। वे हिंदी भाषा को राष्ट्रीय एकता का प्रतिक मानते थे, किंतु ऐसी हिंदी जो संस्कृतनिष्ठ और क्लिष्ट न हो। ऐसी हिंदी को वह हिंदुस्तानी कहते थे। अगर यह कहें तो गलत नहीं होगा कि भाषाओं को लेकर गांधीजी काफी सहज थे, शायद यही वजह है कि ग्रामीण भारत में अपनी मजबूत पैठ बनाने में वह काफी कामयाब हुए। उनका मानना था कि सांस्कृतिक विविधता से संपन्न बहुभाषी भारत देश में सिर्फ हिंदी एक ऐसी भाषा है, जो पूरे देश को एक कर सकती है। गौरतलब है कि उपरोक्त सभी साहित्यकारों में गांधीजी, प्रेमचंद के साहित्य से काफी प्रभावित थे, क्योंकि प्रेमचंद के साहित्य की भाषा, आम जनों की भाषा थी, ग्रामीण भाषा थी। प्रेमचंद के साहित्य के साथ गांधीजी, तुलसीदास द्वारा अवधि भाषा में लिखी गई ‘रामचरित मानस’ से भी काफी प्रभावित थे। दरअसल अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ की प्रेरणा गांधीजी ने तुलसीदास के रामराज्य से ही ली थी। ‘रामचरित मानस’ की कई चौपाइयों को उन्होंने अपने जीवन में प्रयोग किये जा रहे सत्य, सहिंसा और दया का हथियार माना था। ये सभी चौपाइयां उन्हें कंठस्थ थीं।
हिंदी के साथ अंग्रेजी लेखनी में भी थे गांधीजी
गांधीजी ‘उच्च विचार और सादा जीवन’ पर ज़ोर देते थे, जिसे उस समय भारत में रहकर अंग्रेजी में लेखन कर रहे राजा राव, मुल्क राज आनंद और आरके नारायण जैसे तमाम लेखकों ने भी अपनाया था। अपनी कहानियों और उपन्यासों के ज़रिए उन्होंने तत्कालीन ग्रामीण समाज की ऐसी वास्तविक तस्वीर चित्रित की, जिस पर गांधीजी का अमिट प्रभाव था। विशेष रूप से आरके नारायण की पुस्तक ‘वेटिंग फॉर द महात्मा’ में जहाँ नायक श्रीराम गांधीजी का पक्का अनुयायी है और बिना गांधीवाद को समझे वह स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो जाता है, वहीं ‘द वेंडर ऑफ़ स्वीट्स’ में नायक जगन को कट्टर सत्याग्रही दिखाया गया है, जो नियमित रूप से चरखा चलाता है और गांधीवाद के सिद्धांतों का पालन करता है। मुल्क राज आनंद की ‘अनटचेबल’ में नायक बखा को छुआछूत और जातिवाद जैसी सामाजिक बुराइयों से मुक्ति के रूप में दर्शाया गया है। वह गांधीजी के भाषण को ईश्वर की सलाह मानता है। इसके अलावा राजा राव द्वारा लिखा गया प्रत्येक उपन्यास गांधीवाद से प्रेरित रहा है। उनके उपन्यासों में गांधीजी की लोकप्रियता इस कदर हावी रही है कि उनसे जुड़ी चीजों को उनके नाम से जोड़ दिया गया है, जैसे ‘स्वराज’ को ‘गांधी-स्वराज’ या ‘महात्मा-स्वराज’ का नाम दिया गया है।