हिंदी साहित्य के सिरमौर कहे जानेवाले सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने द्विवेदीयुग की उपदेशात्मक और नीरस कथालेखों के विपरीत हिंदी कविता को एक ऐसी दिशा दी, जिसने अनेकों को काव्य सृजन के लिए प्रेरित किया। आइए जानते हैं सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के काव्य की विशेषताएं।
‘निराला’ के काव्य में प्रकृतिगत प्रतीक
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविताओं में सिर्फ अर्थ-माधुर्य, वेदना और अनुराग के साथ विभिन्न रंगों और गंधों का समावेश ही नहीं है। उनमें आसक्ति और आनंद के झरनों का संगीत है, तो अनासक्ति और विषाद की घनी वेदना भी है। काव्य सृजन की बात करें तो उन्होंने वर्ष 1897 से 1962 तक काव्य रचे। हालांकि उनका संपूर्ण जीवनकाल विपत्तियों से भरा रहा, लेकिन उन्होंने कभी विपत्तियों और अभावों के सामने घुटने नहीं टेके, बल्कि अपने संघर्षों की उपेक्षा करते हुए सदैव अपनी मस्ती में रहे। काव्य के प्रत्येक स्वरूपों का न सिर्फ उन्होंने सृजन किया, बल्कि उसको नई पहचान भी दी। छायावादी कवियों की तरह ‘निराला’ ने भी प्रकृतिगत प्रतीकों को अपनी भाषा में बड़ी ही खूबसूरती से प्रयोग किया। उदाहरण के तौर पर ‘वहां नयनों में केवल प्रात, चंद्र ज्योत्सना ही केवल गात, रेणु छाये हुई रहते पात, मंद ही बहती सदा’। ‘निराला’ ने अपनी इस कविता में चंद्र, ज्योत्सना और रेणु के रूप में प्राकृतिक प्रतीकों की सफल योजना बनाई है।
लाक्षणिक प्रयोग एवं संगीतात्मकता
यदि यह कहें तो गलत नहीं होगा कि युगीन परिस्थितियों से प्रभावित होकर ही छायावादी कवियों ने लाक्षणिक प्रयोगों की शुरुआत की थी, जिसका अनुसरण ‘निराला’ ने भी किया। उदाहरण के तौर पर ‘बहती जाती साथ तुम्हारे स्मृतियां कितनी, दग्ध चिता के कितने हाहाकार’। इन पंक्तियों के साथ ‘निराला’ की अधिकतर कविताओं में लाक्षणिक प्रयोगों की भरमार नजर आएगी। हालांकि दार्शनिकता में कहीं-कहीं वह काफी बोझिल भी हो जाती है, किंतु सदैव ऐसा नहीं होता। लाक्षणिक प्रयोगों के अलावा उनके काव्य में संगीतात्मकता का भी काफी प्रयोग हुआ है, लेकिन यह तुक की बजाय लयबद्ध है। उदाहरण के तौर पर उनकी यह पंक्तियाँ हैं, ‘प्रिय मुदित दृग खोलो/ जीवन प्रसून वह वृंत हीन/ खुल गया उषा-नभ में नवीन/ धाराएं ज्योति-सुरभि उर भर/ वह चली चतुर्दिक कर्मलीन/तुम भी निज तरुण तरग खोल/नव-तरुण संह हो लो’। इन पंक्तियों में उनकी लयबद्धता सर्वविदित है। यदि ये कहें तो गलत नहीं होगा कि छंदों की मुक्ति के बाद लयसंगीत का विधान हुआ और ‘निराला’ ने उसका आविष्कार किया।
संगीत के साथ चित्रात्मकता एवं भावप्रवणता
छायावादी काव्य को यदि वैयक्तिक अनुभूतियों का काव्य कहें तो गलत नहीं होगा, जिसमें संगीत के साथ चित्र प्रस्तुत करने की भी अद्भुत क्षमता है। वे शब्दों के बल पर ही समर्थ भाव चित्र प्रस्तुत कर देते हैं। हालांकि इसका एक खूबसूरत उदाहरण आपको ‘निराला’ के ‘संध्या सुंदरी’ में देखने को मिल सकता है। ‘दिवसावसान का समय/मेघमय आसमान से उतर/ वह संध्या सुंदरी परी सी/धीरे धीरे धीरे/तिरमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास/मधुर मधुर हैं दोनों उसके अधर - किंतु जरा गंभीर नहीं है उसमें हास-विलास’। हालांकि इस कविता की तरह ही उनके अन्य कविताओं में भी चित्रात्मकता मौजूद है। काव्यपरक सुंदरता के साथ उनकी कविताओं में रूढ़ियों के प्रति विद्रोह भी नजर आता है। हालांकि सच पूछिए तो छायावाद का जन्म ही विद्रोह की भूमिका पर हुआ था, लेकिन ‘निराला’ की बात करें तो न उनमें रूढ़ियों के प्रति लगाव था और न ही कोई आस्था। उन्होंने भाषा को केवल भावाभिव्यक्ति का साधन माना और व्याकरण के सबंध तोड़ दिए। उन्होंने अपने नए शब्द गढ़े और शब्दों को भाव और लय स्वर की तान पर चढ़ाकर कसा और घिसा।
तत्सम शब्दों में गढ़े सरल और क्लिष्ट शब्द
हालांकि इसके लिए उन्हें काफी विरोधों का भी सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की। छायावादी कवियों की तुलना में ‘निराला’ की भाषा की अपनी ही विशेषताएं थीं। शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली के साथ उन्होंने कई तत्सम शब्दों को अपने काव्य में स्थान दिया। यही वजह है कि तत्सम शब्दों के प्रयोगों की दृष्टि से पाठकों को इनकी भाषा के दो रूप देखने को मिलते हैं, जिनमें एक सरल है, तो दूसरी क्लिष्ट है। सरल भाषा के अंतर्गत इस कविता को उदाहरणस्वरूप माना जा सकता है। ‘वह आता / दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता’। इसके अलावा क्लिष्ट भाषा के अंतर्गत ‘राघव-लाघव-रावण-वारण-गतयुगम-प्रहार/उद्धत-लंकापति-मर्दित-कपि-दल-बल-विस्तार’ ये कविता आती है।
‘निराला’ की लोकप्रिय कविता - तोड़ती पत्थर
वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :—
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गईं,
प्राय: हुई दुपहर :—
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा—
‘मैं तोड़ती पत्थर।’