भारत एक विशाल और विविधता से परिपूर्ण देश है, जहाँ कई भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। इन्हीं भाषाओं और बोलियों के आधार पर विविध साहित्य रचे गए हैं, जिनमें मध्यकालीन भारतीय साहित्य का विशेष स्थान है। आइए जानते हैं मध्यकालीन भारतीय साहित्य की कुछ ख़ास विशेषताएं।
प्रयोगों को युग था मध्यकालीन भारतीय साहित्य
Image courtesy: @upload.wikimedia.org
भाषा के मद्देनज़र धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और दार्शनिकता को आधार बनाकर पूरे देश में मध्यकालीन भारतीय साहित्य को आकार दिया गया है। हालांकि मध्यकालीन भारतीय साहित्य की सबसे विशिष्ट विशेषता रही विभिन्न विचारधारा वाले दार्शनिकों के वक्तव्य। हालांकि इन वक्तव्यों ने भारतीय साहित्य को सीधे प्रभावित न करके मध्य युग के कवियों और लेखकों के बौद्धिक विचारों को महत्वपूर्ण रूप से काफी प्रभावित किया। गौरतलब है कि मध्यकालीन भारतीय साहित्य का अधिकांश हिस्सा धार्मिक रहा, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इसमें भजनों, प्रार्थनाओं और धार्मिक रचनाओं के साथ संसार की वास्तविकताएँ, मानवीय पीड़ाएं और इच्छाओं से परिपूर्ण साहित्यिक रचनाएँ भी मौजूद हैं। अगर यह कहें तो गलत नहीं होगा कि मध्यकालीन भारतीय साहित्य का युग, प्रयोगों को युग था। मीटर और वर्णन के साथ प्रस्तुति रूपों में बदलाव का सबसे उत्तम उदाहरण हैं रामायण और महाभारत जैसी प्राचीन महाकाव्यों का भारतीय भावनाओं में पुनर्लेखन।
मध्यकालीन भारतीय साहित्य का विभाजन
मध्यकालीन भारतीय साहित्य की शुरुआत 7वीं शताब्दी से हुई, जब अलवर और नयनमार नामक भक्ति कवियों का एक समूह दक्षिण भारत आया। इन भक्ति कवियों ने संस्कृत और तमिल में शास्त्रीय साहित्य से बिल्कुल अलग साहित्य विकसित किया। इस साहित्य ने लोगों का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित किया। हालांकि उनके साहित्य पर चर्चा करने से पहले आप यह जान लीजिए कि भारतीय साहित्य में यदि मध्यकालीन युग को हम दो भागों में विभाजित करें तो पहला है प्रारंभिक मध्यकालीन भारतीय साहित्य, जो 7वीं से 14वीं शताब्दी के बीच रचा गया और दूसरा है 14वीं से 18वीं शताब्दी के बीच रचा गया उत्तर मध्यकालीन भारतीय साहित्य। यह वह काल है जिसमें कबीरदास, गुरु नानक, तुलसीदास, शंकरदेव, सरला दास, एझुथचन, पोतना, चंडीदास और नरसिंह मेहता जैसे साहित्यिक दिग्गजों ने भक्ति रचनाओं के साथ नीतिपरक दोहे भी लिखें।
अभिजात्य वर्ग की भाषा थी संस्कृत
Image courtesy: @hindikunj.com
हालांकि प्रारंभिक मध्यकालीन भारतीय साहित्य को भी यदि दो भागों में विभाजित किया जाए, तो इनमें शाही दरबारों में रचित साहित्य के साथ मंदिर और मठों में लिखे गए धार्मिक साहित्य का समावेश किया जा सकता है। शाही दरबारों में रचित साहित्य, जहां अभिजात्य वर्ग के लिए अधिकतर संस्कृत में लिखी जाती थी, वहीं धार्मिक रचनाएं संस्कृत के साथ भारत की अन्य सभी भाषाओं में रची गईं। इन रचनाओं को आम लोगों के सामने नाच-गाकर प्रस्तुत किया जाता था। गौरतलब है कि शैव और वैष्णव संतों द्वारा रचित रचनाएं जहां उनके धार्मिक विचारों से प्रेरित थे, वहीं जैन और बौद्ध भिक्षुओं द्वारा रची गई रचनाएं साहित्य में प्रभावी साधन के रूप में इस्तेमाल हुईं। उस दौरान संस्कृत कुलीन वर्ग के साथ शिक्षित लोगों की भाषा मानी जाती थी, यही वजह है कि जैन और बौद्ध भिक्षुओं ने उस दौर के आम लोगों की भाषा प्राकृत और पाली को अपना आधार बनाया।
संस्कृत के साथ तमिल का भी था बोलबाला
भाषा की दृष्टि से देखें तो भारतीय साहित्य का मध्यकालीन युग, मध्य भारतीय-आर्य काल के दूसरे और तीसरे चरण में आता है। हालांकि गौर से देखें तो पूरा मध्यकालीन युग भारतीय साहित्यकारों और लेखकों के बीच तनाव और दुविधा का युग था। कुलीन और अभिजात्य वर्ग की भाषा बनी संस्कृत को जहां चोल राजवंश के राजाओं का समर्थन प्राप्त था, वहीं तमिल को शैव और वैष्णव समुदायों का समर्थन मिला था, जो भक्ति आंदोलन के माध्यम से लोकप्रियता हासिल कर रहा था। इनमें भी शैव के लिए संस्कृत और तमिल का समान महत्व था, लेकिन वैष्णव, थेंकलाई और वदकलाई इन दो समूहों के बीच तमिल और संस्कृत में बँटे हुए थे। दक्षिणी शिक्षण पद्धति थेंकलाई, तमिल का समर्थन करती थी, तो उत्तरी शिक्षण पद्धति, वडकलाई संस्कृत का समर्थन करती थी। फिर भी शिक्षित और कुलीन वर्ग की भाषा संस्कृत का सम्मान पूरे देश में था, क्योंकि कन्नड़ और तेलुगु जैसी द्रविड़ भाषाओं के विपरीत, संस्कृत क्षेत्रीय सीमाओं से परे थी और पूरे भारत में एक साहित्यिक भाषा के रूप में विराजमान थी।
Image courtesy: @hi.wikipedia.org
तमिल, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और पाली इस काल की महत्वपूर्ण भाषाएं थी, जिनमें प्राकृत भाषाओं के अंतिम चरण को अपभ्रंश का नाम दिया गया। संस्कृत से उत्पन्न हुई यह भाषा मध्य भारतीय-आर्य काल की प्रमुख भाषा थी। परंपरागत रूप से देखा जाए तो अपभ्रंश शब्द का अर्थ होता है घटिया या भ्रष्ट भाषा। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के व्याकरणविद पतंजलि ने भी अपभ्रंश को इसी स्वरूप में लिया था, किंतु विद्वान कवि दंडिन ने इसे आभीरस अर्थात गायों के झुंड की बोली मानते हुए इसे साहित्यिक दर्जा दिया। और बाद में आनंदवर्धन और राजशेखर जैसे विद्वानों ने इसे साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता दी। गौरतलब है कि सौरसेनी अपभ्रंश का विकास सौरसेनी प्राकृत से हुआ था और यह वही भाषा है जिसमें साहित्य का निर्माण हुआ। हालांकि इस भाषा की लोकप्रियता से पाली भाषा में गिरावट आने लगी और 12वीं शताब्दी के अंत से संस्कृत बौद्ध धर्म की साहित्यिक भाषा बन गई।
अलग थी आम लोगों और शाही दरबारों की रचनाएं
मध्य युग के दौरान सीमित संसाधनों, निरक्षरता और उच्च लागत के कारण साहित्यिक ग्रंथों का निर्माण कठिन था। यही वजह है कि लगभग सभी मध्यकालीन भारतीय साहित्य मौखिक रूप से प्रसारित किया गया, जिनमें पेशेवर कहानीकारों, गायकों और कलाकारों की रचनाएं शामिल हैं। हालांकि कुछ पुस्तकालय थे भी तो वे सिर्फ धार्मिक और शैक्षणिक संस्थानों के साथ अमीर घरानों के पास ही थे। गौरतलब है कि आम जनता के लिए साहित्य जहाँ मंदिरों में प्रस्तुत किया जाता था, वहीं राजाओं के लिए साहित्य शाही दरबारों में प्रस्तुत किया जाता था। यही वजह है कि दरबारी कविताओं के दर्शकों का समूह बेहद चुनिंदा और छोटा होता था और मंदिरों में प्रस्तुत किए जाने वाले साहित्य के दर्शकों का समूह काफी बड़ा होता था। हालांकि राज दरबारों के इन छोटे समूहों के लिए लिखने वाले कवि और लेखक बहुत ही शिक्षित ब्राह्मण थे, जो प्रतिष्ठित परिवारों से थे। उदाहरण के तौर पर, शूद्रक और हर्ष राजा थे, विशाखदत्त एक राजकुमार थे, भवभूति तैत्तिरीयवेद का अध्ययन करनेवाले परिवार से थे, तो बाण वात्स्यायन के ब्राह्मण थे। प्रसिद्ध काव्यदर्श के लेखक दंडिन, भी एक प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान थे।
मध्यकालीन भारतीय साहित्य में महिलाएं
Image courtesy: @pixels.com
मंदिरों में जनसमूहों के सामने अपनी भक्ति रचनाएं प्रस्तुत करनेवाले दक्षिण के कवि उच्च और निम्न दोनों वर्गों से थे। अप्पार और नम्मालवार जैसे संत कवि जहां वेल्लाला से आए थे, वहीं निम्न जाति से आए तिरुप्पन अलवर एक उच्च शिक्षित कवि थे। उच्च जाति से संबंधित न होने के बावजूद, ये संत कवि जनता द्वारा अत्यधिक पूजनीय थे। जैन और बौद्ध लेखक या कवि, अधिकतर भिक्षु थे और मठों में रहते थे। इस युग में महिला लेखिकाओं और कवयित्रियों की संख्या बेहद कम थी। फिर भी इस युग की सबसे महत्वपूर्ण महिला रचनाकारों में कन्नड़ साहित्य की शुरुआती कवयित्री अक्का महादेवी, तमिल साहित्य की अग्रणी हस्ती कराईकल अम्मैयार और दक्षिण भारत की हिंदू कवि-संत अंडाल (कोथाई) का नाम सर्वोपरि हैं। हालांकि 16वीं शताब्दी में जन्मीं हिन्दू रहस्यवादी कवयित्री और कृष्ण की अनन्य भक्त मीराबाई उत्तर मध्यकालीन भारतीय साहित्य की अनमोल धरोहर हैं।
विभिन्न गोष्ठियों ने मध्यकालीन साहित्य को विस्तार दिया
गौरतलब है कि 7वीं और 8वीं शताब्दी के दौरान शिक्षा, कला और साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों के मद्देनज़र विशेष गोष्ठियों या समूहों का आयोजन किया जाता था। ये गोष्ठियाँ आम तौर पर या तो किसी सार्वजनिक हॉल में, वेश्याओं के घरों में या किसी कुलीन वर्ग के धनिक द्वारा आयोजित किए जाते थे। इनमें शास्त्रों पर आधारित चर्चाओं के लिए समर्पित गोष्ठियों को, शास्त्रगोष्ठी कहा जाता था। ये चर्चाएँ विद्वान तपस्वियों के घरों में आयोजित की जाती थीं। रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन पर केंद्रित गोष्ठी को विदग्धा गोष्ठी कहा जाता था। इस समूह के सदस्यों से अत्यधिक रचनात्मक और कल्पनाशील होने की अपेक्षा की जाती थी। महान विद्वान दंडिन द्वारा रचित काव्यादर्श, विदग्धा गोष्ठी के भीतर आयोजित चर्चाओं का ही नतीजा है। कथागोष्ठी में वे आते थे, जिनकी रूचि अलंकृत काव्य शैली में वर्णित काल्पनिक, पौराणिक या जीवनी संबंधी कहानियों में होती थी। दंडिन द्वारा रचित अवंतीसुंदरी कथा जैसी रचनाएँ इन्हीं कथागोष्ठी के लिए थीं। हालांकि इनके अलावा कुछ ऐसी संस्कृत कविताएँ भी थीं जो ऐसे अभिजात्य वर्ग के श्रोताओं को सुनाई जाती थीं, जो ग्रहणशील नहीं थे। ऐसे श्रोताओं का मनोरंजन करने और उनकी प्रशंसा पाने के लिए, कवियों ने मनमोहक कल्पना, अनुप्रास, उपमाओं से भरी कविताएँ रचीं, जिससे कुछ संस्कृत कविताएँ सजावटी, पांडित्यपूर्ण और कामुक हो गईं।
Lead image courtesy: @amazone.in