साहित्य समाज का आइना होती है, इस तर्ज पर ग्रामीण समाज को अपने साहित्य में संजोते हुए कई हिंदी उपन्यासकारों ने अपने उपन्यास में ग्रामीण जीवन के साथ उसकी समस्याओं का वर्णन बड़ी ही खूबसूरती से किया है। आइए जानते हैं ग्रामीण जीवन से सराबोर कुछ ऐसे ही हिंदी उपन्यासों के बारे में।
ग्रामीण लेखकों में सर्वोपरि हैं प्रेमचंद
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भारतीय साहित्य में जब ग्रामीण जीवन और उसकी समस्याओं का जिक्र होता है, तो सबसे पहले मुंशी प्रेमचंद का नाम उभरकर सामने आता है। उनके अधिकतर उपन्यास ग्रामीण जीवन का दर्पण रहे हैं। अपने उपन्यासों में ग्रामीण स्थितियों को मुंशी प्रेमचंद ने जिस सजीवता से दर्शाया, उसके कारण ही उनकी गिनती आज भी विश्व के उम्दा साहित्यकारों, गोर्की, टॉलस्टॉय और डिकेंस के साथ होती है। फिलहाल ग्रामीण जीवन में रचे-बसे उनके उपन्यासों में सबसे पहला जिक्र ‘गोदान’ का किया जाए तो कतई गलत नहीं होगा। होरी, धनिया, गोबर जैसे किरदारों के साथ उनका यह उपन्यास हिंदी साहित्य में न सिर्फ अमर हो चुका है, बल्कि ग्रामीण जीवन का महाकाव्य बन चुका है। इसके अलावा ‘असली भारत गांवों में बसता है’ इस उक्ति को उन्होंने ही अपने उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ के द्वारा पुष्ट किया। सालों पहले जातिवाद, जमींदारी शोषण और किसान के दुर्भाग्य की जो तस्वीर प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों के जरिए दिखाई थी, वो आज भी नहीं बदली है। उसका स्वरूप बदल गया है, लेकिन समस्याएं आज भी वही हैं। बस जमींदारी व्यवस्था की जगह बड़े पूंजीपतियों और पंचायत के मुखियाओं और सरपंचों ने ले ली है।
ग्रामीण जीवन का यथार्थवादी परिचय
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वृंदावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यास ‘टूटे कांटे’ में जाट युवकों के माध्यम से जहां ग्रामीण जीवन की स्थितियों का वर्णन किया है, वहीं उन्होंने उनकी वीरता को भी दर्शाया है। बहुआयामी रचनाकार जयशंकर प्रसाद ने अपने उपन्यास ‘तितली’ में जहां ग्रामीण और किसानों के जीवन का यथार्थवादी चित्रण किया है, वहीं यशपाल ने अपने ‘मनुष्य के रूप’ उपन्यास में विधवाओं की समस्या को उठाया है। प्रेमचंद के उपन्यासों की तरह फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने अपने उपन्यास ‘मैला आँचल’ में बिहार के ग्रामीण जीवन की दुर्दशा का उल्लेख किया है। हालांकि अपने दूसरे उपन्यास ‘परती परिकथा’ में उन्होंने ग्रामीण लोगों द्वारा अंधविश्वासों और रूढ़ियों को तोड़ते दिखाया है। इसी तरह ग्रामीण जीवन की कहानी कहते अपने उपन्यास ‘जुलूस’ और दीर्घतपा’ में भी उन्होंने समाज को आइना दिखाने का प्रयास किया है। बेमिसाल उपन्यासकार डॉक्टर रांगेय राघव ने भी अपने आंचलिक उपन्यास ‘आखिरी आवाज’ में गांवों में लंबे समय से चली आ रही प्रचलित बुराइयों का पर्दाफाश करने का प्रयास किया है। जातिवाद के साथ अंधविश्वास और शोषण की करुण कहानी कहते इस उपन्यास को यदि ‘गोदान’ के समकक्ष कहें तो गलत नहीं होगा।
ग्रामीण जीवन की समस्याएं
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ग्रामीण जीवन की बारीकियों को दर्शाते उपन्यास में डॉक्टर रामदरश मिश्र का ‘अपने लोग’ उपन्यास भी काबिले गौर है, जो विशेष रूप से आजादी के बाद गाँवों में आए परिवर्तनों की कहानी कहता है। इसमें लेखक ने बड़ी ही खूबसूरती से ग्रामीण वासियों की स्वार्थपरता के साथ रीती-रिवाजों के प्रति उनके दिखावटी व्यवहार को दर्शाया है। हालांकि इसके विपरीत अपने दूसरे उपन्यास ‘दूसरा घर’ में उन्होंने उन ग्रामीण वासियों का चित्रण किया है, जो अपने गाँव से दूर जाकर भी उसकी मिट्टी से दूर नहीं जा पाते। इसके अलावा अपने दो और आंचलिक उपन्यासों, ‘पानी के प्राचीर’ और ‘जल टूटता हुआ’ में डॉक्टर रामदरश मिश्र ने जल विभीषिका के साथ ग्रामीण जीवन की करुण गाथा का वर्णन किया है। विशेष रूप से ‘जल टूटता हुआ’ में जिस तरह उन्होंने गाँव की व्यथा-कथा को अपने पाठकों के समक्ष परोसा है, उससे ये उपन्यास ग्रामीण जीवन का महाकाव्य बन गया है। ‘जल टूटता हुआ’ की तरह ही डॉक्टर शिवप्रसाद सिंह का आंचलिक उपन्यास ‘अलग-अलग वैतरणी’ भी आजादी के बाद ग्रामीण जीवन में नहीं आए बदलाव की करुण कहानी कहता है। हालांकि इस उपन्यास में दर्शाए गए शोषण, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अन्याय, बेईमानी, गरीबी और अत्याचार के विपरीत उन्होंने अपने दूसरे आंचलिक उपन्यास ‘औरत’ में नारी शोषण के साथ उसके साहस को भी दर्शाया है।
ग्रामीण महिलाओं की स्थिति और परिस्थिति
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पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित और हिंदी साहित्य के जाने-माने कलमकार कमलेश्वर की ‘सुबह दोपहर शाम’ उपन्यास भी ग्रामीणों द्वारा आजादी के लिए किए जा रहे संघर्ष की कहानी है। उनका यह ग्रामीण उपन्यास इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें उन स्वतंत्रता सेनानियों की कहानी कही गई है, जिन्हें आजादी के बाद दरकिनार कर दिया गया। हालांकि आंचलिक उपन्यासों में हिमांशु जोशी का पहाड़ी ग्रामीण जीवन पर आधारित ‘कगार की आग’ भी काफी महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें उन्होंने उनकी दुःख-तकलीफों के साथ प्रकृति संघर्ष की कहानी कही है। ऐसा माना जाता है कि पहाड़ी आंचलिक उपन्यासों में इस उपन्यास का कोई मुकाबला नहीं है। इसके अलावा ग्रामीण छात्र की शिक्षा और आर्थिक अभावों पर आधारित उपन्यास ‘तुम्हारे लिए’ भी काफी बेहतरीन उपन्यास है। बेहतरीन उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा ने अपने शुरुआती दिनों का काफी हिस्सा अपनी मां के साथ गाँव में गुज़ारा है, ऐसे में ग्रामीण जीवन के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया उपन्यास ‘इदन्नमम’ पुरुष के हाथों नारी उत्पीड़न की करुण गाथा है।
ग्रामीण राजनीति और लोग
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प्राचीन परंपराओं और संस्कारों से जुड़ी होने के साथ ग्रामीण राजनीति से प्रेरित रामेश्वर शुक्ल अंचल का उपन्यास ‘चढ़ती धूप’ भी काफी सराहनीय उपन्यास रही है। इस उपन्यास में विशेष रूप से प्रेम विवाह को कसौटी बनाया गया है। हिंदी साहित्य में विवेकी राय ग्रामीण परिवेश के कुशल चितेरे माने जाते रहे हैं, क्योंकि उनका अधिकतर जीवन ग्रामीण परिवेश में ही गुजरा। यही वजह है कि अपनी दोनों चर्चित उपन्यासों ‘सोनामाटी’ और ‘मंगलभवन’ में उन्होंने गाँव और शहर तथा उनके मूल्यों को दर्शाया है। इसी के साथ अपने चर्चित उपन्यास ‘आधा गाँव’ में डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने यथार्थवाद को बड़ी ही ख़ूबसूरती से दर्शाया है। विशेष रूप से विभाजन के बाद अपने देश को अपना न कह पाने की त्रासदी जो मुस्लिम समुदाय के हिस्से आई, उस पीड़ा को उन्होंने बहुत ही ख़ूबसूरती से वर्णित किया है। इन उपन्यासों में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा लिखित उपन्यास ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘अलका’ और ‘अनुपमा’ भी काबिले गौर है।
‘निराला’ और ‘नागार्जुन’ का गाँव
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मूल रूप से सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने एक मानवतावादी कवी के रूप में लोकप्रियता पाई है, लेकिन उनके ये उपन्यास भी अपने कथानक के लिए काफी सराहे गए। अपने पहले उपन्यास ‘बिल्लेसुर बकरिहा, में जहां उन्होंने ग्रामीण जीवन की संकीर्णता के साथ छल-प्रपंच और गरीबी को दर्शाया है, वहीं अपने दूसरे उपन्यास ‘अनुपमा’ में उन्होंने ग्रामीण जीवन में व्याप्त वैचारिक संकीर्णता और सड़ी-गली परंपराओं पर कठोर आघात किया है। इन दोनों उपन्यासों में जिस तरह ‘निराला’ जी ने ग्रामीण जीवन का सजीव वर्णन किया है, वो बिरले ही आपको दिखाई देगा। इन उपन्यासों के अलावा अपने तीसरे उपन्यास ‘अलका’ में भी उन्होंने ग्रामीणों के शोषण और व्यथा की कहानी बयान की है। ग्रामीण परिवेश में रचे गए उपन्यासकारों की बात हो और बाबा नागार्जुन की बात न हो ये असंभव है। अपनी प्रत्येक कृतियों में सदैव गाँवों को समाहित करनेवाले नागार्जुन द्वारा लिखी गई ‘बलचनमा’ मिथिलांचल की बेहद भावपूर्ण कहानी है। किसानों पर होनेवाले जमीदारों के शोषण और अत्याचार की कहानी कहते इस उपन्यास को पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे सारी घटनाएं हमारी आँखों के सामने घट रही हों।
ग्रामीण समस्याओं के साथ ग्रामीण मिठास
भारतीय परिवेश से निकलकर साहित्य सेवा में लगे अधिकतर हिंदी साहित्यकारों ने ग्रामीण जीवन को अपने साहित्य में समाहित कर उपन्यास रचे। यही वजह है कि हिंदी साहित्य में अधिकतर रचे गए उपन्यास गाँवों को दर्शाते हैं और उसके आचार-विचार, संस्कार, रूढ़ियाँ और परिवेश को स्वर देते हैं। इन उपन्यासों को पढ़कर सही मायनों में ग्रामीण समस्याओं को समझा जा सकता है। हालांकि इन उपन्यासों में ग्रामीण समस्याओं के साथ ग्रामीण लोगों के प्रेम की मिठास, उनका अपनापन और उनके तीज-त्योहार भी दिखाए गए हैं, जिनसे आप न चाहते हुए भी जुड़ जाते हैं।