सच पूछिए तो मनुष्य की संवेदनशीलता कविता रचने के लिए आवश्यक तत्व है, जो दूसरों के दर्द से व्यथित हो जाए, वही सच्चा कवि है। यही सिद्धांत साहित्य में दलित कविताओं पर सटीक बैठती है। आइए जानते हैं कुछ हिंदी कवयित्रियों की कविताओं के ज़रिए दलित साहित्य के बारे में।
दलित शोषण की करुण झांकी हैं दलित कविताएं
भारतीय ग्रामीण व्यवस्था दलितों के शोषण और दमन की पोषक रही हैं। इसी शोषण को कविताओं के ज़रिए कई कवियों ने अपनी कविताओं में दर्शाते हुए दलित साहित्य की नींव रखी। यूं कहें तो गलत नहीं होगा कि दलित कविताओं की शुरुआत दलितों की मुक्ति से पहले उनके शोषण, पीड़ा और अपमान की करुण झांकी प्रस्तुत करने के लिए लिखी गई थी और उसकी शुरुआत हुई थी सितंबर 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित, हीरा डोम द्वारा लिखित भोजपुरी कविता ‘अछूत की शिकायत’ से। इस कविता को हिंदी दलित साहित्य की पहली कविता भी मानी जाती है। अपनी कविताओं के ज़रिए दलितों के दर्द की अनुभूति और उनके संघर्ष को दलित कवयित्रियों ने बखूबी अभिव्यक्त किया है। इन कवयित्रियों में कौशल पवार, कुसुम मेघवाल, हेमलता महीश्वर, रजनी अनुरागी, नीरा परमार, सुशीला टाकभौर, मेरली के पुन्नूस, पूनम तुषाम, कावेरी, विमल थोरात, सीबी भारती, रजत रानी मीनू और रजनी तिलक का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
सौंदर्यबोध नहीं, स्वाभिमान के लिए लिखी गईं कविताएं
सौंदर्यबोध, अलंकार और छंद की बजाय मानवीय संवेदनाओं से जुड़ीं दलित कविताएं, सामाजिक सम्मान और स्वाभिमान के लिए लिखी गई थी। सीबी भारती अपनी कविता ‘घृणा’ में लिखती हैं, ‘’अनवरत घृणा और तुम्हारी इसी घृणा ने किया है हमें कमज़ोर, जिससे हम होते रहें बार-बार गुलाम, लड़ भी न पाए थे देश के लिए कभी न एक होकर हम।’’ सदियों से घृणा और तिरस्कार सह रहा दलित समुदाय इस कदर हतोत्साहित होता रहा है कि उसके विद्रोह की आग तीव्र से तीव्रतम होती चली गयी। इसी कड़ी में सुशीला टाकभोरे अपनी कविता ‘विद्रोहिणी में लिखती हैं, ‘’माँ-बाप ने पैदा किया था गूंगा, परिवेश ने लंगड़ा बना दिया, चलती रही निश्चित परिपाटी पर, बैसाखियों के सहारे कितने पड़ाव आए।’’ अपनी कविता ‘औरत-औरत में अंतर है’ में रजनी तिलक लिखती हैं, ‘’एक सताई जाती है स्त्री होने के कारण, दूसरी सताई जाती है स्त्री और दलित होने पर, एक तड़पती सम्मान के लिए, दूसरी तिरस्कृत है भूख और अपमान से, प्रसव पीड़ा झेलती फिर भी एक सी, जन्मती है एक नाले के किनारे, दूसरी अस्पताल में, एक पायलट है, तो दूसरी शिक्षा से वंचित है, एक सत्तासीन है, दूसरी निर्वस्त्र घुमाई जाती है।
संघर्ष के लिए प्रेरणा देती हैं दलित कविताएं
दलित कविताएं संघर्ष के लिए प्रेरणा देनेवाली है, क्योंकि दलितों के इतिहास में संघर्ष केंद्र में रहा है। इस कड़ी में मेरली के पुन्नूस अपनी कविता ‘दलित स्त्रियों का कारवाँ’ में लिखती हैं, ‘’चिंदियों में बिखरे समाज का नकाब, कर रही है खुलासा इस सच्चाई का, हम भी हैं इंसान, दलितों में दलित नहीं। चाहे बहाना पड़े खून का कतरा, नहीं थमेगा, अब कारवाँ यह हमारा, जब तक मिल नहीं जाता, हमें इंसान का रूतबा।’’ अपने संघर्ष को समेटे भारतीय समाज व्यवस्था में प्रचलित वर्ण-जाति-व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए दलित साहित्य रचा गया था और दलित कविताओं ने उसकी चुलें हिला दी। इसी कड़ी में कवल भारती अपनी कविता ‘तब, तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’ में लिखती हैं, ‘’यदि यह विधान लागू हो जाता (तुम द्विजों पर) कि तुम्हें धन-संपत्ति रखने का अधिकार नहीं, तुम ज़िंदा रहो हमारी जूठन पर, हमारे दिए हुए पुराने वस्त्रों पर, तुम्हें अधिकार न हो पढ़ने-लिखने का, तुम्हारे बच्चे सेवक बनें, हमारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी, हम रहें तुम्हारे शासक तब, तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’’
दलितों के लिए दमन और शोषण के कारखाने हैं गाँव
आम तौर पर कविताओं में ग्रामीण जीवन की सुंदरता का बखान किया गया है, किंतु दलित कवियों के लिए गाँव दमन और शोषण के कारखाने हैं, जहाँ कदम-कदम पर उन्हें घृणा, अपमान और छुआ-छूत का दंश झेलना पड़ता रहा है। आज के आधुनिक समय में भी गाँवों में छुआ-छूत कम नहीं हुआ है। दलितों को मंदिर में प्रवेश न करने देने से लेकर, उन्हें ज़िंदा जलाने और अंधविश्वास, परंपरा और रूढ़ियों की दुहाई देकर उन पर शासन किये जाने तक, सब कुछ ग्रामीण परिवेश में मौजूद है। इसी कड़ी में अपनी कविता ‘मेरा गाँव’ में कावेरी लिखती हैं, ‘’ब्याह-बारात का काम कराते, देकर जूठन बहकाते, जब मरता है कोई जानवर, दे-देकर गाली उठवाते, दिन-रात गुलामी कर-करके, थक गए बिवाई फ़टे पाँव। मेरा गाँव, कैसा गाँव? न कहीं ठौर, न कहीं ठाँव।’’
रंजकता की बजाय यथार्थ का चित्रण
हालांकि देश की व्यवस्था पर करारी चोट करते हुए रजत रानी मीनू अपनी कविता ‘मरघट से गुज़र कर’ में लिखती हैं, ‘’तू जिन्हें ज़िंदा देख रही है, वे सब ज़िंदा हैं-पर लाश हैं, हर पाँच साल बाद, होते हैं हरे इनके दिन, घास की तरह। मरा सिर लगा चकराने। और दिल घबराने क्या इतनी संवेदन-शून्य हो गई, मेरे देश की व्यवस्था? सब सुधार योजनाएं हो गई हैं बाँझ? पार्लियामेंट निष्प्राण। क्या देश ने सचमुच पूरी कर ली प्रगति?’’ हालांकि देश की प्रगति पर करारी चोट के साथ कुछ कवियत्रियों ने दलितों की प्रगति पर भी अपनी बात रखी है। शिक्षा ही उन्नति की सीढ़ी है, जिसके अंतर्गत अपनी कविता ‘माँ मुझे मत दो’ में पूनम तुषाम लिखती हैं, ‘’मुझको पढ़ना आगे बढ़ना, खुद को नए साँचे में गढ़ना और सबको है जगाना, सबको उनका हक दिलाना, माँग कर खाने की आदत और नसीहत, माँ मुझे मत दो।’’ इसी के साथ रंजकता की बजाय यथार्थ का चित्रण करती अपनी कविता ‘हमारी कविता’ के जरिए रजनी बाला अनुरागी लिखती हैं, ‘’तुम कल्पना पर होकर सवार, लिखते हो कविता और हमारी कविता रोटी बनाते समय जल जाती है अक्सर, कपड़े धोते हुए, पानी में बह जाती कितनी ही बार झाड़ू लगाते हुए साफ़ हो जाती है मन से, पोछा लगाते हुए, गंदले पानी में निचुड़ जाती है।’’
अछूत की शिकायत
हमनी के रात-दिन दुखवा भोगत बानी,
हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइब।
हमनी के दुख भगवनओं न देखताजे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइब।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बनि जाइब।
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे,
बे-धरम होके कैसे मुंखवा दिखाइब।।
खम्भवा के फारि पहलाद के बंचवले जां
ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना कै भैया छोरत रहै,
परगट होकै तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवां कै पलले भभिखना के,
कानी अंगुरी पै धर के पथरा उठवले।
कहंवा सुतल बाटे सुनत न वारे अब,
डोम जानि हमनी के छुए डेरइले।।
हमनी के राति दिन मेहनत करीले जां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी,
हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे के लसकरि उतरल बानी,
जेत उहओ बेगरिया में पकरल जाइबि।
मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी,
ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।
बमने के लेखे हम भिखिया न मांगव जां,
ठकुरे के लेखे नहिं लडरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारब जां,
अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि।
भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबा जां,
पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइब।
अपने पसिनवा के पैसा कमाइब जां,
घर भर मिलि जुलि बांटि चोंटि खाइब।।
हड़वा मसुइया के देहियां है हमनी कै;
ओकारै कै देहियां बमनऊ के बानी।
ओकरा के घरे घरे पुजवा होखत बाजे
सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
हमनी के इतरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके में से भरि-भरि पिअतानी पानी।
पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमनी के एतनी काही के हलकानी।।