साहित्य पर नाटकों की नींव रखी गई और नाटकों पर सिनेमा की। इस लिहाज से यदि यह कहें तो गलत नहीं होगा कि साहित्य से ही सिनेमा की शुरुआत हुई थी। आइए जानते हैं सौ वर्षों के सिनेमा जगत में साहित्य ने अपनी भूमिका कैसे निभाई है।
पुराने साहित्यकार नहीं बिठा पाए सिनेमा से तालमेल
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वर्ष 1913, भारतीय साहित्य और सिनेमा दोनों के लिए काफी उल्लेखनीय वर्ष रहा, क्योंकि एक तरफ जहां गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को उनकी कृति ‘गीतांजलि’ के लिए साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला, वहीं दादासाहेब फाल्के ने अपनी फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के साथ भारतीय सिनेमा की नींव रखी। इन सौ वर्षों में जहां सिनेमा कई उतार-चढ़ाव से गुजरा, वहीं साहित्य ने भी एक लंबा सफर तय किया। हालांकि साहित्य और नाटकों की लंबी परम्परा को देखते हुए कई साहित्यकार, अपने साहित्य के साथ नाटकों के परिष्कृत रूप सिनेमा की तरफ आकर्षित हुए, जिनमें मुंशी प्रेमचंद के साथ भगवती चरण वर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, पांडेय बेचन शर्मा उग्र और अमृतलाल नागर का नाम उल्लेखनीय है, किंतु सफल नहीं हुए। इसका नतीजा यह हुआ कि वे वापस अपनी साहित्यिक जमीन पर दोबारा लौट गए। इसकी एक सबसे बड़ी वजह यह थी कि वह सिनेमा के साथ अपने साहित्यिक आदर्शों का तालमेल नहीं बिठा पाए।
60 के दशक के बाद आया बदलाव
60 के दशक तक साहित्य और सिनेमा चाहकर भी तालमेल नहीं बिठा पा रहे थे, लेकिन 60 के दशक में सिनेमा में प्रख्यात लेखक गुलशन नंदा का आगमन हुआ, जिन्होंने बीस से अधिक सुपरहिट फिल्में हिंदी सिनेमा को देकर साहित्य जगत में तहलका मचा दिया। इनके बाद 70 के दशक में साहित्य ने सिनेमा में अच्छी दखल बना ली, जिसका नतीजा हैं राही मासूम रजा, धर्मवीर भारती, मन्नू भंडारी, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर। हालांकि इन सभी साहित्यकारों में जो बुलंदी कमलेश्वर ने पायी, वो किसी और साहित्यकार को नहीं मिली। एक तरफ उन्हें सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखक का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला, तो दूसरी तरफ वे साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित हुए। गौरतलब है कि छोटे पर्दे से लेकर बड़े पर्दे तक उनकी कलम बेजोड़ चली। दरअसल सिनेमा में वे साहित्यकार असफल हो गए, जो साहित्य के श्रेष्ठता बोध से ग्रसित थे। उन्हें अपने साहित्य के साथ सिनेमा के प्रोफेशनल दृष्टिकोण को अपनाना कभी आया ही नहींया यूं कहें उन्होंने कभी इसकी कोशिश ही नहीं की।
अन्य भाषाई साहित्यकारों से जगमगाया सिनेमा
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साहित्य और सिनेमा की आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न रही हैं और जिन साहित्यकारों ने इस बात को समझ लिया, उन्होंने अपने साहित्य से सिनेमा में अपनी जगह बना ली। इनमें गुलजार ने इसे बखूबी समझा। यही वजह है कि अपनी चमकदार लेखनी के बल पर, पिछले 61 वर्षों से वे अपने पाठकों के साथ दर्शकों की भी पहली पसंद बने हुए हैं। हिंदी साहित्यकारों के अलावा हिंदी सिनेमा को बांग्ला और अंग्रेजी साहित्य ने भी गुलजार किया। इनमें विशेष रूप से बांग्ला लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, बंकिमचंद्र चटर्जी, रवीन्द्रनाथ टैगोर और अंग्रेजी लेखक शेक्सपियर, आरके नारायण और चेतन भगत का नाम लिया जा सकता है, जिनकी रचनाओं ने भारतीय सिनेमा में अनमोल मोती बिखेरे। इन लेखकों के अलावा विमल मित्र की बांग्ला उपन्यास पर बनी फिल्म ‘साहब, बीबी और गुलाम’ अमृता प्रीतम की पंजाबी उपन्यास पर बनी फिल्म ‘पिंजर’, निर्मल वर्मा की ‘ माया दर्पण’, फणीश्वरनाथ रेणु की ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’, प्रेमचंद की कहानी पर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और मोहन राकेश की कहानी पर ‘उसकी रोटी’ जैसी सुपरहिट फिल्में भी बन चुकी हैं।
साहित्यकारों की चुनौतियां
इसमें दो राय नहीं कि 200 से 250 पन्नों उपन्यास या महज 3 पन्नों की कहानी को एक तीन घंटे की फिल्म में तब्दील करना चुनौतीपूर्ण काम होता है और इसके साथ वही लोग न्याय कर पाते हैं, जो उस सिनेमाई जरूरत को समझते हैं। उदाहरण स्वरूप ख्वाजा अहमद अब्बास को ही लीजिए। लेखन से जुड़े अब्बास साहब ने ताव में आकर अपनी कहानियों पर फिल्में बनानी शुरू तो कर दी थी, लेकिन वे इसमें बुरी तरह असफल हो गए। वहीं जब उनकी कृति पर शोमैन राज कपूर ने फिल्म बनाई तो वह सुपरहिट रही। यह बात वाकई दिलचस्प है कि कागज पर कहानियां गढ़ने में उस्ताद रहे ख्वाजा अहमद अब्बास कहां चूक गए? दरअसल सिनेमा के मिजाज को समझते हुए उन्हें कैमरों में कैद करना नहीं आया, वहीं दर्शकों की रग-रग से वाकिफ राज कपूर ने इतिहास रच दिया। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि अपने साहित्य के जरिए समाज का आईना प्रस्तुत करते साहित्यकार, अपनी रचनाओं को मनोरंजन की बजाय एक गंभीर विधा मानते हैं। ऐसे में जब उसे मनोरंजन के परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया जाता है, तो वे आहत हो जाते हैं।
साहित्य और सिनेमा एक-दूसरे के पूरक
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अब रही बात सिनेमा की तो बरसों से सिनेमा को मनोरंजन का माध्यम माना जाता रहा है, लेकिन फिर सवाल उठता है कि क्या सिनेमा सिर्फ मनोरंजन है? क्या समाज के प्रति इसका कोई उत्तरदायित्व नहीं? अगर आपके दिल-ओ-दिमाग में भी यह सवाल आते हैं, तो आपको इसका उत्तर पुरानी पीढ़ी के फिल्मकारों की फिल्मों के साथ भीष्म साहनी की कृति ‘तमस’ पर बनी टीवी शो के जरिए मिल सकता है। भारत-पाक विभाजन की पृष्ठभूमि पर बने इस टीवी शो ने न सिर्फ उस दौर के वहशीपन को परदे पर उतारा, बल्कि एक अभूतपूर्व बहस का वातावरण भी निर्माण किया। साहित्य ने जहां मनोरंजन के साथ गंभीर सिनेमा के दर्शन करवाएं हैं, वहीं सिनेमा ने गुमनाम साहित्यिक रचनाओं को जन-जन तक पहुंचाया है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि साहित्य और सिनेमा एक- दूसरे के पूरक हैं और सिनेमा का भविष्य साहित्य से और साहित्य का भविष्य सिनेमा से सदैव प्रेरित होता रहेगा। फिलहाल नई पीढ़ी के साहित्यकारों में निलोत्पल मृणाल, नवीन चौधरी, दिव्यप्रकाश दुबे जैसे कर्मठ लेखकों से सिनेमा को काफी उम्मीदें हैं, जो सिनेमा को एक नया स्वरूप देने में लगे हैं।