हिंदी साहित्य में वृद्धों और उनसे जुड़ी समस्याओं के साथ उनकी जीवन स्थितियों और समाज में उनके स्थान को लेकर कई लेखकों और कवियों ने संवेदनशील और प्रभावी रचनाएँ की हैं। इनमें उनके संघर्ष, अकेलेपन, अपमान, और अधिकारों की अनदेखी को प्रमुखता से उभारा गया है। आइए इस पर विस्तार से जानते हैं।
प्रेमचंद की कहानियों में वृद्धों की उपेक्षा
आधुनिक समाज में परिवार के बदलते ढांचे और ढहते पारिवारिक मूल्यों ने वृद्धों के जीवन को चुनौतीपूर्ण बना दिया है। इसका उदाहरण वर्षों पहले प्रेमचंद ने अपनी कई कहानियों, जैसे ‘बड़े घर की बेटी’ ‘चार बेटों की विधवा’, ‘कफन’, ‘बूढ़ी काकी’ और ‘गिल्ली डंडा’ में दिखा दिया था। इसमें उन्होंने वृद्धों के अकेलेपन और पारिवारिक संघर्ष को बेहद ख़ूबसूरती से दर्शाया है। इन कहानियों में जहां वृद्धों के अकेलेपन और उनकी उपेक्षा को दर्शाया गया है, वहीं "ईदगाह" कहानी में प्रेमचंद ने हामिद के माध्यम से बच्चे का अपनी दादी के लिए प्यार और समझ का मार्मिक चित्रण किया है।
महादेवी वर्मा की कहानियों में वृद्धों के प्रति गहरी उदासीनता
कई वृद्ध अपने जीवन के उत्तरार्ध में आर्थिक असुरक्षा का सामना करते हैं। इनमें विशेष रूप से पेंशन, सहारे की कमी, और बच्चों पर निर्भरता उनकी प्रमुख चिंताएं होती है। इसके अलावा वे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से भी जूझते रहते हैं और कई बार मानसिक अवसाद का शिकार हो जाते हैं। उनकी यह समस्या खासकर तब बढ़ती है जब उन्हें परिवार या समाज से सहयोग नहीं मिलता। इस तरह की कई घटनाओं का जिक्र महादेवी वर्मा अपनी कहानियों में कर चुकी हैं। उनकी रचनाओं में मानवता और करुणा के गहरे रंग नज़र आते हैं। उनकी कहानियों में वृद्धों की संवेदनशीलता और उनके प्रति समाज की गहरी उदासीनता भी दिखाई देती है। गिरिराज किशोर ने भी अपनी रचनाओं में वृद्धों की मनोस्थिति और उनकी समस्याओं पर प्रकाश डाला है।
वृद्धों के अनुभव और उनके ज्ञान का महत्व
संयुक्त परिवारों के टूटने के कारण वृद्धों को अक्सर अनदेखा किया जाता है। उनकी राय को महत्व नहीं दिया जाता, जिससे वे अलगाव और हीनभावना का शिकार हो जाते हैं। हालांकि सच्चाई यह है कि वे अनुभवों का वो खजाना होते हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। हालांकि प्राचीन भारतीय संस्कृति में उनके अनुभवों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन आधुनिक साहित्य में, यह दिखाया गया है कि कैसे समाज और युवा पीढ़ी उनकी इस संपदा को अनदेखा करते हैं। विशेष रूप से सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत’ में दिखाया
गया है कि वृद्धों के अनुभव कैसे कठिन परिस्थितियों में मददगार साबित हो सकते हैं। इस सिलसिले में प्रेमचंद ने कहा भी है कि वृद्ध केवल अनुभवों का भंडार नहीं, बल्कि समाज की आत्मा होते हैं। उनकी उपेक्षा, समाज की नैतिक हार है।
आधुनिकता बनाम परंपरा का द्वंद्व
वृद्धों और युवाओं के बीच परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष का विषय हिंदी साहित्य में बार-बार उभरा है। इसकी एक झलक आप धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ में भी देख सकते हैं, जहां वृद्धों की बातों को अनदेखा करने से समाज में कितनी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। हालांकि वृद्धों के गुणों को पहचानते हुए काव्य शास्त्र में जहां सूरदास और तुलसीदास जैसे कवियों ने वृद्धों के प्रति सम्मान का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, वहीं आधुनिक कवियों ने बुजुर्गों के संघर्ष और उपेक्षा को लेकर कई मार्मिक कविताएँ भी लिखी हैं। ‘बुजुर्ग की व्यथा’ और ‘अकेलेपन का गीत’ इसके प्रमाण हैं।
हिंदी उपन्यासों में वृद्ध विमर्श
हिंदी साहित्य में प्रेमचंद, नागार्जुन, भीष्म साहनी, उषा प्रियंवदा, अमृतराय, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, कृष्णा सोबती, काशीनाथ सिंह, पंकज बिष्ट, सूर्यबाला, दिलीप मेहरा और नीरजा माधव ने विभिन्न तरीकों से वृद्ध समाज की समस्याओं को बेनकाब किया है। चित्रा मुद्गल का उपन्यास ‘गिलिगडू’, काशीनाथ सिंह की ‘रेहन पर रग्घू’ और कृष्णा सोबती की ‘समय - सरगम’ में वृद्धों की परेशानियां, उनकी समस्याएं एक नए अंदाज में प्रस्तुत हुई है। चित्रा मुद्गल ने अपने उपन्यास ‘गिलिगडू’ में जहां वृद्धों की बेचारगी के साथ उनकी संवेदनशीलता और जीवनशैली को विस्तार दिया है, वहीं काशीनाथ सिंह ने ‘रेहन पर रग्घू’ में गाँव और शहर के साथ भूमंडलीकरण के इस दौर में भारतीय संस्कृति, परंपरा, मूल्यों और आदर्शों के पतन की महागाथा परोसी है। इनमें कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘समय - सरगम’, उपन्यास न होकर वृद्ध समाज की एक ऐसी झांकी है, जो हर व्यक्ति को इस बात का एहसास दिलाती है कि सभी को एक दिन इस अवस्था से होकर गुजरना है।