जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख, और इसके बाद भीं हम से बड़ा तू दिख’, यह कहना है साहित्य की दुनिया के लोकप्रिय कवि भवानी प्रसाद मिश्र का। जी हां, भवानी प्रसाद मिश्र ने कवियों को यह नसीहत दी थी कि जिस बोली का इस्तेमाल हम अपनी बात पहुंचाने के लिए करते हैं, ठीक अपने लेखन में भी हमें इसी का इस्तेमाल करना चाहिए। शायद यही वजह रही है कि जिस कविता को अपना धर्म मानते थे, उसी को आम जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने आम भाषा का चयन किया। आज इसी आम भाषा के खास कवि का जन्मदिन है। 29 मार्च 1913 को मध्य प्रदेश के टिगरिया गांव में उनका जन्म हुआ। गांधीवादी विचारधारा और नैतिकता के साथ उन्होंने अपने साहित्य के सफर को जिया है। आइए पढ़ते हैं उनकी कविता और साहित्य सफर।
भवानी प्रसाद मिश्र का साहित्य सफर
साल 1930 से उन्होंने अपने कविता लेखन की शुरुआत की। इसके बाद हंस पत्रिका में उनकी कई सारी कविताएं छपीं। प्रकृति और समाज उनके जीवन का हिस्सा रही हैं और इसकी झलक उनकी कविताओं में भी दिखाई दी है। उल्लेखनीय है कि उन्होंने एक लंबे अंतराल तक अपनी कविताओं से साहित्य और साहित्य प्रेमियों को अपनी कविता से समृद्ध किया है। उनकी कविताओं की सबसे बड़ी खूबी यह रही है पाठकों से सीधे और साफ शब्दों में संवाद। उन्हें इसके लिए कई सारे पुरस्कारों से भी नवाजा गया।
भवानी प्रसाद मिश्र की लोकप्रिय कविताएं
सतपुड़ा के घने जंगल
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डुबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल
झाड ऊंचे और नीचे
चुप खड़े हैं आंख मीचे
घास चुप है, कास चुप है.
मूक शाल, पलाश चुप है
बन सके तो धंसो इनमें
धंस न पाती हवा जिनमें
ऊंघते अनमने जंगल
सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढंक रहेृ-से
पंक-दल में पले पत्ते
चलो इन पर चल सके तो,
दलो इनको दल सके तो,
ये घिनोने, घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल
अटपटी- उलझी लताएं ,
डालियों को खींच खाएं,
पैर को पकड़े अचानक
प्राण को कस लें कपाएं
सांप सी काली लताएं
लताओं के बने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल
मकड़ियों के जाल मुंह पर
और सर के बाल मुंह पर,
मच्छरों के दंश वाले
ऊंघते अनमने जंगल
दरिंदा
दरिंदा
आदमी की आवाज में
बोला
स्वागत में मैंने
अपना दरवाजा
खोला
और दरवाजा
खोलते ही समझा
कि देर हो गई
मानवता
थोड़ी बहुत जितनी भी थी
देर हो गई
जंगल के राजा
जंगल के राजा, सावधान
जंगल के राजा, सावधान !
ओ मेरे राजा, सावधान !
कुछ अशुभ शकुन हो रहे आज.
जो दूर शब्द सुन पड़ता है,
वह मेरे जी में गड़ता है,
रे इस हलचल पर पड़े गाज
ये यात्री या कि किसान नहीं
उनकी-सी इनकी बान नहीं
चुपके चुपके यह बोल रहे
यात्री होते तो गाते तो,
आगी थो़ड़ी सुलगाते तो,
ये तो कुछ विष-सा बोल रहे
वे एक-एक कर बढ़ते हैं
लो सब झाड़ों पर चढ़ते हैं
राजा ! झाड़ों पर है मचान
जंगल के राजा, सावधान !
ओ मेरे राजा, सावधान!
राजा गुस्से में मत आना,
तुम उन लोगों पर मत जाना,
वे सब-के-सब हत्यारे हैं.
वे दूर बैठकर मारेंगे,
तुमसे कैसे वे हारेंगे,
माना, नख तेज तुम्हारे हैं,
ये मुझको खाते नहीं अभी
फिर क्यों मारेंगे मुझे अभी
तुम सोच नहीं राजा
तुम बहुत वीर हो, भोले हो,
तुम इसलिए यह बोले हो,
तुम कहीं सोच सकते राजा,
ये भूखे नहीं पियासे हैं,
वैसे ये अच्छे खासे हैं,
है वाह-वाह की प्यास इन्हें.
ये शूर कहें जायेंगे तब
और कुछ के मन भायेंगे तब
है चमड़े की अभिलाष इन्हें
ये जग के सर्वश्रेष्ठ प्राणी,
इनके दिमाग, इनके वाणी,
फिर अनाचार यह मनमाना!
राजा, गुस्से में मत आना,
तुम उन लोगों तक मत जाना।