कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य-निर्देशक, लोक-संगीतकार और अभिनेता भिखारी ठाकुर को भोजपुरी साहित्य का शेक्सपियर कहा जाता है। अपनी बात को पूरी निडरता से रखनेवाले भिखारी ठाकुर ने समाज की हर कुरीतियों पर अपने नाटकों और गीतों के माध्यम से जमकर चोट किया। आइए उनके जन्मदिन पर जानते हैं उनसे जुड़ी कुछ खास बातें।
भोजपुरिया सामंती समाज को लेखनी से किया चोटिल
जीवन संघर्ष के साथ सामंतवाद, जातिवाद, गरीबी और काम-काज की तलाश में शहर भाग रहे युवाओं की विरह वेदना को भिखारी ठाकुर ने सिर्फ अपने गीतों में ही नहीं, बल्कि नाटकों में भी बेहद मार्मिकता से दर्शाया है। आज से सौ साल पहले उन्होंने जिस तरह जातिवाद पर प्रहार करते हुए उसकी पीड़ा को अपने साहित्य में संजोया, वो बेहद कम नज़र आती है। भोजपुरिया सामंती समाज को अपनी लेखनी से चोटिल करनेवाले भिखारी ठाकुर उसे धीरे से सहलाने का हुनर भी जानते थे। यही वजह है कि उनकी रचनाओं को प्रत्येक वर्ग, हर जाति ने अपनाया और सराहा। भोजपुरिया समाज का प्रतिनिधित्व बनकर भिखारी ठाकुर ने एक तरफा बात कहने की बजाय सबकी तरफ समतावादी दृष्टिकोण अपनाया। हालांकि कई लोग उन पर ब्राह्मणों की चाटुकारिता का आरोप भी मढ़ते हैं, लेकिन अपने जीवन दर्शन में उन्होंने ये बात स्वयं साफ कर दी थी कि वे कभी ब्राह्मणवाद या सामंतवाद के खिलाफ नहीं रहे, बल्कि उनके गलत तरीकों और जातिवादी इरादों के खिलाफ थे।
भिखारी ठाकुर का आरंभिक जीवन
18 दिसंबर 1887 को बिहार के सदर जिला के कुतुबपुर गाँव में एक नाई परिवार में जन्में भिखारी ठाकुर को पढ़ने-लिखने का शौक बचपन से था, लेकिन अपने पिता दालसिंगार ठाकुर के कहने पर उन्होंने पारंपरिक व्यवसाय नाई को अपना लिया। कुछ वर्षों तक गाँव में नाई के काम को करने के बाद जब उनका मन नहीं लगा तब वे अपने पड़ोस के गाँव फतनपुर चले गए। परिवार की जिम्मेदारी उठाते हुए वे पैसे कमाने के लिए फतनपुर से खड़गपुर और फिर जगन्नाथ पुरी चले गए, जहाँ उन्होंने काफी पैसा कमाया। बहुत सारा पैसा कमाने के बावजूद उनके अंदर का कलाकार असंतुष्ट ही था, ऐसे में वे पुन: अपने गाँव लौट आए और अपनी एक नाटक मंडली बनाई। नाटक मंडली के माध्यम से वे रामलीला का मंचन करने लगे। कुछ सालों तक मंचन के बाद समाज में फैली कुरूतियों को देखते हुए वे नाटकों का मंचन करने लगे। नाटकों के साथ उन्होंने लोकसंगीत गाना और पुस्तकें लिखनी भी शुरू कर दी।
निचले स्तर से बनाई ऊंची पहचान
गौरतलब है कि उनके पुस्तकों की भाषा इतनी सरल थी, कि लोग उनसे आकर्षित होने लगे और वे देखते-देखते जनसमुदाय पर छा गए। उनके द्वारा लिखी कई किताबें वाराणसी, हावड़ा और छपरा से प्रकाशित हुई हैं। अपने नाटकों के माध्यम से छोटे-छोटे गाँवों में घूमते हुए ग्रामीण समाज से जुड़ने के बावजूद उन्होंने कोलकाता, पटना, बनारस जैसे बड़े शहरों में भी अपनी पहचान बना ली थी और इसकी वजह थी निचले तबके से आये ग्रामीण श्रमिक। रोजी-रोटी की तलाश में अपने गाँवों से बड़े शहरों की तरफ आए इन श्रमिकों को मुखर करते उनके गीत और नाटकों ने उन्हें एक बहुत बड़ी पहचान दी। एक वक्त ऐसा भी आया जब वे भारतीय सीमाएं तोड़कर मॉरीशस, केन्या, सिंगापुर, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, युगांडा, म्यांमार, मैडागास्कर, साऊथ अफ्रीका, फिजी और त्रिनिदाद के साथ विश्व के हर उस जगह पर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जहाँ भोजपुरी समाज बसा है।
‘लौंडा नाच’ को दिलाया सम्मान
अपने नाटकों के जरिए उन्होंने नाच की एक नई परिभाषा गढ़ी, जिसे ‘लौंडा नाच’ के रूप में लोकप्रियता मिली। यह नाच परंपरा बिहार संस्कृति में कई सदियों से मौजूद रही है, जिसे पहले ‘नटुआ नाच’ के नाम से जाना जाता था। इसमें एक पुरुष, महिला जैसी वेश-भूषा पहनकर नाचता था। हालांकि इसे तब काफी नीची नज़रों से देखा जाता था। भिखारी ठाकुर के थियेटर के दौरान भी उनके ‘लौंडा नाच’ को उपेक्षा की नज़रों से देखा जाता था, लेकिन यह उनकी सार्थकता है कि उनकी मृत्यु पश्चात उनके इस लोकप्रिय ‘लौंडा नाच’ शैली को भारत सरकार की तरफ से सम्मानित किया गया। गौरतलब है कि वर्ष 2021 में उनके नाटक मंडली में लौंडा नाच करनेवाले रामचंद्र मांझी को उनकी कला के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। भिखारी ठाकुर के शब्दों में ’नाच ह कांच, बाकी बात ह सांच, एह में लागे ना आंच।’ यानि ‘नाच कांच है। इसमें टिकाऊ नहीं है पर सच है। इसलिए प्रस्तुति में कोई डर-भय नहीं है।’
प्रमुख कृतियाँ
10 जुलाई 1971 को 84 वर्ष की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से भिखारी ठाकुर का देहांत हो गया था। उनकी प्रमुख कृतियों में लोकनाटक, बिदेसिया, भाई-बिरोध, बेटी-बियोग या बेटि-बेचवा, कलयुग प्रेम, गबर घिचोर, गंगा स्नान (अस्नान), बिधवा-बिलाप, पुत्रबध, ननद-भौजाई, राधेश्याम-बहार, बिरहा-बहार और नक़ल भांड अ नेटुआ के अलावा कई शिव विवाह, रामलीला गान और राम, कृष्ण के भजन कीर्तनों के अलावा माता भक्ति, आरती, बुढशाला के बयाँ, चौवर्ण पदवी, नाई बहार, शंका-समाधान जैसी विविध कृतियाँ शामिल हैं।
भिखारी ठाकुर की कृति ‘बेटी विलाप’
गिरिजा-कुमार!, कर दुखवा हमार पार;
ढर-ढर ढरकत बा लोर मोर हो बाबूजी।
पढल-गुनल भूलि गइल समदल भेंड़ा भइल
सउदा बेसाहे में ठगइल हो बाबूजी।
केइ अइसन जादू कइल, पागल तोहार मति भइल
नेटी काटि के बेटी भसिअवलऽ हो बाबूजी।
रोपेया गिनाई लिहल पगहा धराई दिहल
चेरिया के छेरिया बनवल हो बाबूजी।
साफ क के आंगन-गली, छीपा-लोटा जूठ मलिके;
बनि के रहलीं माई के टहलनी हो बाबूजी।
गोबर-करसी कइला से, पियहा-छुतिहर घइला से;
कवना करनियां में चुकली हों बाबूजी।
बर खोजे चलि गइल, माल लेके घर में धइल
दादा लेखा खोजल दुलहवा हो बाबूजी।
अइसन देखवल दुख, सपना भइल सुख
सोनवां में डलल सोहागावा हो बाबूजी।
बुढऊ से सादी भइल, सुख वो सोहाग गइल
घर पर हर चलववल हो बाबूजी।
अबहूं से कर चेत, देखि के पुरान सेत डोला
काढ़, मोलवा मोलइह मत हो बाबूजी।
घूठी पर धोती, तोर, आस कइल नास मोर
पगली पर बगली भरवल हो बाबूजी।
हंसत बा लोग गॅइयां के, सूरत देखि के संइयाँ के
खाइके जहर मरि जाइब हम हो बाबूजी।
खुसी से होता बिदाई, पथल छाती कइलस माई
दूधवा पिआई बिसराई देली हो बाबूजी।
लाज सभ छोडि़ कर, दूनो हाथ जोड़ि कर
चित में के गीत हम गावत बानीं हो बाबूजी।
प्राणनाथ धइलन हाथ, कइसे के निबही अब साथ
इहे गुनि-गुनि सिर धूनत बानी हो बाबूजी।
बुद्ध बाड़न पति मोर, चढ़ल बा जवानी जोर
जरिया के अरिया से कटल हो बाबूजी।
अगुआ अभागा मुंहलागा अगुआन होके;
पूड़ी खाके छूड़ी पेसि दिहलसि हो बाबूजी।
रोबत बानी सिर धुनि, इहे छछनल सुनि;
बेटी मति बेंचक दीह केहू के हो बाबूजी।
आपन होखे तेकरो के, पूछे आवे सेकरों के
दीह मति पति दुलहिन जोग हो बाबूजी।