रेल और पटरी की तड़क-भड़क बचपन से ही लोगों को आकर्षित करती है। बचपन से लेकर पचपन तक, रेल यात्रा हमेशा खूबसूरत यादों के साथ पूरी होती है। महान लेखकों ने भी रेल और पटरी की तड़क-भड़क को अपने अंदाज से पेश किया है। किसी ने जुदा होते अपने महबूब को याद किया, तो किसी ने रेल की पटरी को ज़िन्दगी से जोड़ा। यहां पढ़िए कैफ़ अहमद सिद्दीकी, जमाल एहसानी और नोमान शौक़ जैसे कई कवियों द्वारा रेल और पटरी पर रची रचनाएं -
सफ़र हो रेल-गाड़ी का तो छके छूट जाते हैं
पसीने के घड़े गोया सरों पर फूट जाते हैं
टिकट लेना जो पहला काम है और सख़्त मुश्किल है
समझ लीजे कि ये अपने सफ़र की पहली मंज़िल है
रिज़र्वेशन कराना है तो पहले इक क़ुली पकड़ें
ख़ुशामद से मना लीजे क़ुली साहब अगर अकड़ें
बुकिंग-ऑफ़िस का बाबू आप की आसान कर देगा
वो मुश्किल हल करेगा और अपनी फ़ीस ले लेगा
रिज़र्वेशन करा देगा और वो दस-बीस ले गा
किसी की सीट हो वो आप को दिलवा के दम लेगा
मगर पहले ये तय कर लें कि वो कितनी रक़म लेगा
हमेशा याद रक्खें ये उसूल-ए-जावेदानी है
कि स्टेशन मक़ाम-ए-कूच है और दार-ए-फ़ानी है
– ज़ियाउल हक़ क़ासमी
आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
एक मजमे के लिए शेर सुनाते हुए हम
किस गुमाँ में हैं तिरे शहर के भटके हुए लोग
देखने वाले पलट कर नहीं जाते हुए हम
कैसी जन्नत के तलबगार हैं तू जानता है
तेरी लिक्खी हुई दुनिया को मिटाते हुए हम
रेल देखी है कभी सीने पे चलने वाली
याद तो होंगे तुझे हाथ हिलाते हुए हम
तोड़ डालेंगे किसी दिन घने जंगल का ग़ुरूर
लकड़ियाँ चुनते हुए आग जलाते हुए हम
तुम तो सर्दी की हसीं धूप का चेहरा हो जिसे
देखते रहते हैं दीवार से जाते हुए हम
ख़ुद को याद आते ही बे-साख़्ता हँस पड़ते हैं
कभी ख़त तो कभी तस्वीर जलाते हुए हम
– नोमान शौक़
जैसे उसे क़ुबूल था करना पड़ा मुझे
हर ज़ाविए से ख़ुद को बदलना पड़ा मुझे
यादों की रेल और कहीं जा रही थी फिर
ज़ंजीर खींच कर ही उतरना पड़ा मुझे
हर हादसे के बा'द कोई हादिसा हुआ
हर हादसे के बा'द सँभलना पड़ा मुझे
चाहा था उस ने मेरी उदासी हसीन हो
हुज़्न-ओ-मलाल में भी निखरना पड़ा मुझे
पहले मुकर गई मैं किसी और बात से
फिर अपनी बात से भी मुकरना पड़ा मुझे
– ज़ेहरा शाह
इक साँप मुझ को चूम के तिरयाक़ दे गया
लेकिन वो अपने साथ मिरा ज़हर ले गया
अक्सर बदन की क़ैद से आज़ाद हो के भी
अपना ही अक्स दूर से मैं देखने गया
दुनिया का हर लिबास पहनना पड़ा उसे
इक शख़्स जब निकल के मिरे जिस्म से गया
ऐसी जगह कि मौत भी डर जाए देख कर
मैं ख़ुद को ज़िंदगी से बहुत दूर ले गया
महसूस हो रहा है कि मैं ख़ुद सफ़र में हूँ
जिस दिन से रेल पर मैं तुझे छोड़ने गया
कितनी सुबुक सी आज मिरे घर की शाम थी
मैं फ़ाइलों का बोझ उठाए हुए गया
अशआर का नुज़ूल है ख़ाली दिमाग़ में
ऐ 'कैफ़' तू न जाने कहाँ छोड़ने गया
– कैफ़ अहमद सिद्दीकी
वो लोग मेरे बहुत प्यार करने वाले थे
गुज़र गए हैं जो मौसम गुज़रने वाले थे
नई रुतों में दुखों के भी सिलसिले हैं नए
वो ज़ख़्म ताज़ा हुए हैं जो भरने वाले थे
ये किस मक़ाम पे सूझी तुझे बिछड़ने की
कि अब तो जा के कहीं दिन सँवरने वाले थे
हज़ार मुझ से वो पैमान-ए-वस्ल करता रहा
पर उस के तौर-तरीक़े मुकरने वाले थे
तुम्हें तो फ़ख़्र था शीराज़ा-बंदी-ए-जाँ पर
हमारा क्या है कि हम तो बिखरने वाले थे
तमाम रात नहाया था शहर बारिश में
वो रंग उतर ही गए जो उतरने वाले थे
उस एक छोटे से क़स्बे पे रेल ठहरी नहीं
वहाँ भी चंद मुसाफ़िर उतरने वाले थे
– जमाल एहसानी
तअल्लुक़ टूटने का ग़म उठाना भी ज़रूरी था
ज़रूरी तुम भी थे लेकिन ज़माना भी ज़रूरी था
तेरी आँखों की बेचैनी मिरी ज़ंजीर थी लेकिन
खड़ी थी रेल-गाड़ी और जाना भी ज़रूरी था
मोहब्बत का बदल कुछ भी अगर है तो मोहब्बत है
गए थे जिस तरह वैसे ही आना भी ज़रूरी था
अगर मैं फ़र्ज़ था तो फिर निभाया क्यों नहीं तुम ने
अगर मैं क़र्ज़ था तो फिर चुकाना भी ज़रूरी था
– कमल हातवी