अमृता प्रीतम की रचनाओं में महिलाओं की हर परिस्थिति को बखूबी दर्शाया है, आइए पढ़ें उनकी एक कहानी।
मणिया
संध्या गहराने को थी, जब विद्या के पति जयदेव अपने काम से वापस आए, और विद्या ने घर का दरवाज़ा खोलते हुए देखा, उनके साथ एक अजीब-सा दिखता आदमी था, बहुत मैला-सा बदन और गले में एक लंबा-सा कुर्ता पहने हुए...
विद्या ने कुछ पूछा नहीं, पर कुछ पूछती हुई निगाहों से अपने पति की ओर देखा। जयदेव हल्का-सा मुस्करा दिए, फिर विद्या से नहीं, उस आदमी से कहने लगे, यह बीबी जी हैं, बहुत अच्छी हैं, तुम मन लगा कर काम करोगे, तो बहुत खुश होंगी...
घर के भीतर आते हुए, जयदेव ने बरामदे में पड़ी हुई एक चटाई की ओर देखा और उस आदमी से कहने लगे, तुम यहाँ बैठो, फिर हाथ-पैर धो लेना...
और घर के बड़े कमरे की ओर जाते हुए विद्या से कहने लगे, तुम चाहती थीं कि काम के लिए कोई ऐसा आदमी मिले, जो खाना पकाना भले ही न जानता हो, मगर ईमानदार हो...
विद्या ने, कुछ घबराई-सी, पूछा, इसे कहाँ से पकड़ लाए हो?
आहिस्ता बोलो, जयदेव ने कमरे के दीवान पर बैठते हुए कहा और पूछा, मनू कहाँ है?
खेलने गया है, अभी आता होगा, लेकिन यह आदमी... विद्या कह रही थी, जब जयदेव कहने लगे, मनू से एक बात कहनी है, यह बहुत सीधा आदमी है, लेकिन डरा हुआ है, ख़ासकर बच्चों से डरा हुआ है...एक मेरे दफ़्तर के शर्मा जी हैं, उनके पास था।
वे इसकी मेहनत की और इमानदारी की तारीफ करते हैं, लेकिन उनके बच्चे उनके वश की बात नहीं हैं, उनके पाँच बच्चे हैं, एकदम से शरारती, इसका क़द ज़रा लंबा है, वे इसे शुतुरमुर्ग कहकर परेशान करते थे...उनकी, शर्मा जी की पत्नी भी तेज़ मिजाज़ की हैं...यह कितनी बार उनके घर से भाग जाता था, लेकिन कहीं ठिकाना नहीं था, वे फिर से पकड़कर इसे ले जाते थे...
लेकिन यह कुछ सीख भी पाएगा? विद्या कह रही थी जब जयदेव कहने लगे, ऊपर का काम तो करेगा, घर की सफाई करेगा, बर्तन करेगा...सिर्फ मनू को अच्छी तरह समझा देना कि वह इससे बदसलूकी न करे...फिर देखेंगे...अब एक प्याला चाय दे दो, उसको भी चाय पूछ लेना...
विद्या कमरे से लौटने को हुई, फिर भीतर के छोटे कमरे में जाकर एक कमीज़ पाजामा निकाल लाई, और हाथ में साबुन का एक टुकड़ा और एक पुराना-सा तौलिया लेकर, बाहर चटाई पर बैठे हुए उस आदमी से पूछने लगी, तुम्हारा नाम क्या है?
उसने जवाब नहीं दिया, और विद्या कुछ ख़ामोश रहकर कहने लगी, देखो आँगन में उस दीवार के पीछे एक नल है, वहाँ जाकर नहा लो, अच्छी तरह साबुन से, और यह कपड़े पहन लो?
वह आदमी सिर झुकाए बैठा था, उसने एक बार डरी-डरी-सी आँखों से ऊपर को देखा, पर उठा नहीं, न विद्या के हाथ से कपड़े लिए...
इतने में जयदेव उठकर आए और बोले, मणिया, उठो, जैसे बीबी जी कह रही हैं, यह कपड़े ले लो, और वहाँ जाकर नहा लो।
पास से विद्या मुस्करा दी, तुम्हारा नाम तो बहुत अच्छा है, मणिया...
मणिया ने आहिस्ता से उठकर विद्या के हाथ से कपड़े भी ले लिए, साबुन और तौलिया भी, और जहाँ उन लोगों ने संकेत किया था, वहाँ आँगन में बनी एक छोटी-सी दीवार की ओर चल दिया...
विद्या ने रसोई में जाकर चाय बनाई, मणिया के लिए एक गिलास चाय वहाँ रसोई में ही रख दी, और बाकी चाय दो प्यालों में डालकर बड़े कमरे में चली गई...
और फिर जब मणिया नहा कर कमीज पजामा पहन कर रसोई की तरफ आया, तो विद्या ने उसे चाय का गिलास देते हुए एक नज़र हैरानी से उसकी ओर देखा, और हल्के से मुस्कराती हुई बड़े कमरे में जाकर जयदेव से कहने लगी, ज़रा देखो तो उसे, आप पहचान नहीं सकेंगे। वह अच्छी ख़ासी शकल का है, और भरी जवानी में है। मैं समझी थी, बड़ी उम्र का है...
और कुछ ही दिनों में, विद्या इत्मीनान से अपने पति से कहने लगी, एकदम कहना मानता है, कुछ बोलता नहीं, लेकिन दिन भर घर की सफाई में लगा रहता है। मनू से थोड़ी-थोड़ी बात करने लगा है, वह इसे अपनी किताबों से तस्वीरें दिखाता है, तो यह खुश हो उठता है, लेकिन एक बात समझ में नहीं आती, अकेले में बैठता है, तो अपने से कुछ बोलता रहता है, लगता है, थोड़ा सा पागल है...
घर की दीवार से सटा हुआ, एक नीम का पेड़ था, वह मणिया जब भी ख़ाली होता, उस पेड़ के नीचे बैठा रहता...उस वक्त अगर कोई पास से गुज़रे तो देख सकता था कि वह अकेला बैठा आहिस्ता-आहिस्ता कुछ इस तरह बोलता था, जैसे किसी से बात कर रहा हो, और वह भी कुछ गुस्से में...
विद्या को उसका यह रहस्य पकड़ में नहीं आता था, और एक दिन पेड़ के मोटे से तने की ओट में होकर विद्या ने सुना, वह मणिया एक दुःख और गुस्से में जाने किससे कह रहा था, सब काम खुद करती हैं, साग़-सब्ज़ी कैसे पकाना है, मुझे कुछ नहीं सिखातीं, आटा भी नहीं मलने देतीं...
विद्या से रहा नहीं गया, वह ज़ोर से हँस दी, और पेड़ की ओट से बाहर आकर कहने लगी- मणिया, तुम खाना पकाना सीखोगे? आओ मेरे साथ...तूने मुझसे क्यों नहीं कहा- यह मेरी शिकायत किससे कर रहा था?
मणिया शर्मिंदा-सा, नीम से झड़ती हुई पत्तियाँ बुहारने लगा...
मणिया अब साग़-सब्ज़ी भी काटने-पकाने लगा था और बाज़ार से ख़रीद कर भी लाने लगा था। एक दिन बाज़ार से भिंडी लानी थी, मणिया बाज़ार गया तो क़रीब एक घंटा लौटा नहीं। आया तो उसके हाथ के थैले में बहुत छोटी-छोटी और ताज़ी भिंडियाँ थीं, लेकिन उसका साँस ऐसे फूल रहा था, जैसे कहीं से भागता हुआ आया हो। आते ही कहने लगा, देखो जी, कितनी अच्छी भिंडी लाया हूँ, पास वाले बाज़ार से नहीं, उस दूसरे बड़े बाज़ार से लाया हूँ...
विद्या ने भिंडी को धोकर छलनी में डाल दिया, पानी सुखाने के लिए, और कहने लगी, भिंडी तो बढ़िया है, क्या इस बाज़ार में नहीं थी?
मणिया कहने लगा, इस बाज़ार में, जहाँ आप लोग सब्ज़ी लेते हैं, वह आदमी बहुत ख़राब है, उसके पास पकी हुई और बासी भिंडी थी, वह कहता था, मैं वहीं से ले जाऊँ, और साथ मुझे ज़हर भी दे देता था...
ज़हर? विद्या चौंक गई, और मणिया की ओर ऐसे देखने लगी, जैसे वह आज बिल्कुल पगला गया हो...पूछा, वह तुम्हें ज़हर क्यों देने लगा?
मणिया जल्दी से बोल उठा, इसलिए कि मैं उसकी सड़ी हुई भिंडी ख़रीद लूँ...कहता था, मैं जो सब्ज़ी देता हूँ, तुम चुपचाप ले लिया करो, मैं रोज़ के तुम्हें बीस पैसे दूंगा...इस तरह के पैसे ज़हर होते हैं...
विद्या मणिया की ओर देखती रह गई, फिर हल्के से मुस्कराकर पूछने लगी, यह तुम्हें किसने बताया था कि इस तरह के पैसे ज़हर होते हैं?
मणिया आज बहुत खुश था, बताने लगा, माँ ने कहा था...जब मैं छोटा था, किसी ने मुझे किसी दूसरे के बाग़ से आम तोड़कर लाने को कहा था, और मैं तोड़ लाया था। उस आदमी ने मुझे पचास पैसे दिए थे, और जब मैंने माँ को दिए, तो कहने लगीं, यह ज़हर तू नहीं खाएगा, जाओ उस आदमी के पैसे उसी को दे के आओ, और फिर से किसी के कहने पर तू चोरी नहीं करेगा।
और विद्या चुपचाप उसकी ओर देखती रह गई थी। उस दिन उसने मणिया से पूछा, अब तुम्हारी माँ कहाँ है? तुम उसे गाँव में छोड़कर शहर में क्यों आए हो?
मणिया माँ के नाम से बहुत दर चुप रह गया, फिर कहने लगा, माँ नहीं है, मर गई, मेरा गाँव में कोई नहीं है...
दिन गुज़रते गए और विद्या को लगने लगा, जैसे मणिया को अब इस घर से मोह हो आया है। ख़ासकर मनू से, जो उसे पास बिठाकर कई बार कहानियाँ सुनाता है, और एक दिन जब मनू ने किसी बात की ज़िद में आकर रोटी नहीं खाई थी, तो विद्या ने देखा कि मणिया ने भी रोटी नहीं खाई थी...
एक शाम विद्या ने अपनी अलमारी खोलकर हरे रेशम का एक सूट निकाला, जो उसे कल सुबह कहीं जाने के लिए पहनना था। देखा कि कमीज पर कितनी ही सलवटें थीं। उसने मणिया को कहा, जाओ, अभी यह कमीज प्रेस करवा के ले आओ, बिंदिया से कहना, अभी चाहिए?
मणिया गया, पर उल्टे पाँव लौट आया, और कमीज़ पलंग पर रख दी...
विद्या ने पूछा, क्या हुआ, बिंदिया ने कमीज प्रेस नहीं की?
वह नहीं करती... मणिया ने इतना-सा कहा, और रसोई में जाकर बर्तन मलने लगा...विद्या ने फिर आवाज़ दी, मणिया! क्या हुआ, वह क्यों नहीं करती? जाओ उसे बुलाकर लाओ।
मणिया, उसी तरह बर्तन मलता रहा, गया नहीं, तो विद्या ने फिर से कहा। जवाब में मणिया कहने लगा, साहब आते ही होंगे, अभी मुझे आटा मलना है, अभी दाल भी पकी नहीं और अभी चावल बीनने हैं, और मनू साहब ने कुछ मीठा पकाने को कहा था...अभी...
विद्या हैरान थी कि आज मणिया को क्या हो गया। उसने आज तक किसी काम में आनाकानी नहीं की थी...और विद्या ने कुछ ऊँची आवाज़ में कहा, मैं देख लेती हूँ रसोई में, तुम जाओ, बिंदिया को अभी बुलाकर लाओ...
मणिया बर्तन वहीं छोड़कर गया, लेकिन उल्टे पाँव लौट आया, कहने लगा- वह नहीं आती। और फिर चुपचाप बर्तन मलने लगा।
विद्या की पकड़ में कुछ नहीं आ रहा था। वह सोच रही थी, जाने क्या हुआ, बिंदिया ऐसी तो नहीं थी...
इतने में दरवाज़े की ओर से बिंदिया की पायल सुनाई दी, और वह हँसती-हँसती आकर कहने लगी, आप मुझे कमीज़ दीजिए, मैं अभी प्रेस किए लाती हूँ।
पर हुआ क्या है? विद्या ने पूछा तो बिंदिया हँसने लगी, मणिया से पूछो।
वह तो कुछ बताता नहीं। विद्या ने कहा, और भीतर जाकर कमीज ले आई। उसने फिर मणिया की ओर देखा और पूछा, बोलो मणिया, क्या बात हुई थी? तू तो कहता था, वह प्रेस नहीं करती, और देखो वह खुद लेने आई है।
मणिया ने न इधर को देखा, और न कोई जवाब दिया। बिंदिया हँसती रही और फिर कहने लगी, बात कुछ नहीं थी, यह जब भी आपके कपड़े लेकर आता था, मैं इसे मज़ाक़ से कहती थी, देखो, इतने कपड़े पड़े हैं, पहले यह प्रेस करूँगी और फिर तुम्हारे कपड़े, अगर अभी करवाने हैं तो नाच कर दिखाओ। और यह हँसता भी था, नाचता भी था, और मैं सारा काम छोड़कर, आपके कपड़े प्रेस करने लगती थी...आज पता नहीं क्या हुआ, मैंने इसे नाचने को कहा, तो यह वहाँ से भाग आया। मैंने मज़ाक में कहा था, अब मैं कमीज़ प्रेस नहीं करूँगी।
विद्या चुपचाप सुनती रही, फिर कहने लगी, और क्या बात हुई थी?
बिंदिया हँसते-हँसते कहने लगी, और तो कोई बात नहीं हुई, आज तो इसे मेरी माँ ने एक लडडू भी दिया था, खाने को, लेकिन यह लडडू भी वहाँ छोड़ आया...
तुम काहे का लडडू इसे खिला रही थीं? विद्या ने मुस्कराकर पूछा तो बिंदिया कुछ सकुचाती-सी कहने लगी, मेरी सगाई हुई है, माँ ने इसे वही लडडू दिया था...
बिंदिया यह कहकर चली गई, कमीज प्रेस करके लाई, फिर से जाती बार मणिया को कहती गई, अरे, तू आज किस बात से रूठ गया... पर मणिया ने उसकी ओर नहीं देखा, खामोश दूसरी ओर देखता रहा। रात हुई, सबने खाना खाया, मनू ने रोज़ की तरह मणिया को बुलाकर कुछ तस्वीरें दिखाई पर मणिया सबकी ओर कुछ इस तरह देखता रहा जैसे कहीं बहुत दूर खड़ा हो और दूर से किसी को पहचान न पा रहा हो...
सुबह की चाय मणिया ही सबको कमरे में देता था। सूरज निकलने से पहले, लेकिन जब सूरज की किरण खिड़की में से विद्या की चारपाई तक आ गई, तब भी कहीं मणिया की आवाज़ नहीं आ रही थी...
विद्या जल्दी से उठी, रसोईघर में गई, पर मणिया वहाँ नहीं था। जयदेव भी उठे, देखा, कुछ परेशान हुए, पर विद्या ने कहा, आप घबराइए नहीं, मैं बाहर नीम के पेड़ तले देखती हूँ, वह ज़रूर वहीं होगा...
और जिस तरह एक बार आगे विद्या ने हौले से जाकर पेड़ के तने की ओट में होकर मणिया को देखा और सुना था, वहाँ गई तो मणिया सचमुच वहीं था, अपने में खोया-सा, कहीं अपने से बाहर बहुत दूर और कांपते से होठों से बोले जा रहा था, जाओ, तुम भी जाओ, तुम भी अलसी हो...तुम वही हो, अलसी...जाओ...जाओ...
विद्या ने मणिया के क़रीब जाकर उसके कंधे पर हाथ रख दिया और आहिस्ता से कुछ इस तरह बोली, जैसे नीम के पेड़ से नीम की पत्तियाँ झड़ रही हों, अलसी कौन थी? वह कहाँ चली गई?
मणिया की आँखें कुछ इतनी दूर, इतनी दूर देख रही थीं कि पास कौन खड़ा था, उसे पता नहीं चल रहा था...पर एक आवाज़ थी, जो फिर-फिर से उसके कानों से टकरती रही थी, कौन थी अलसी? मणिया अपने में खोया-सा बोलने लगा, वह मेरे साथ खेलती थी...हम दोनों जंगल में खेलते थे, कहती थी, नदी के पार जाओ और उस पार की बेरी के बेर तोड़कर लाओ...मैं नदी में तैर जाता था और दूसरे किनारे पर से बेर लाता था...
वह कहाँ चली गई? विद्या की आवाज़ हवा के झोंके की तरह उसके कानों में पड़ी तो वह कहने लगा, अलसी का ब्याह हो गया, वह चली गई...
विद्या ने मणिया के कंधे को झकझोरा, कहा, चलो उठो। मणिया ने एक बार विद्या की ओर देखा, पर कहा कुछ नहीं। उसी तरह फिर ख़ला में देखने लगा...
विद्या ने फिर एक बार पूछा, अलसी ने जाते समय तुम्हें कुछ नहीं कहा था?
मणिया अपने बदन पर झड़ती नीम की पत्तियों को मुठ्ठी में भरता हुआ कहने लगा, आई थी, ब्याह के लडडू देने के लिए... और मणिया मुठ्ठी खोलकर नीम की पत्तियों को ज़मीन पर बिखेरता कहने लगा, मुझे लडडू खिलाती है...
विद्या ने उसके सिर पर से नीम की पत्तियाँ झाड़ते हुए, कुछ ज़ोर से कहा, अब उठो, चलो, चाय बनाओ।
मणिया एक फर्माबरदार की तरह उठ खड़ा हुआ और घर में आकर चाय बनाने लगा...
वह छुट्टी का दिन था, विद्या को और जयदेव को आज कहीं जाना था, इसलिए चाय पीकर मनू को घर में छोड़कर चले गए...
दोपहर ढलने लगी थी, जब वे दोनों वापस आए, तो घर में मनू था, पर मणिया नहीं था। मनू ने बताया, उसे खिलाया था, फिर कहीं चला गया, और अभी तक आया नहीं है...
जयदेव उसकी तलाश में घर से निकलने लगे, तो विद्या ने कहा, वह आपको नहीं मिलेगा, वह आज दूसरी बार अपना गाँव छोड़कर चला गया है...
जयदेव ने विद्या की ओर देखा, पूछा, पर क्यों?
विद्या कुछ देर ख़ामोश रही, फिर कहने लगी, अब एक और अलसी का ब्याह होने वाला है...