अमृता प्रीतम एक भारतीय उपन्यासकार, निबंधकार और कवियत्री थीं, जिन्होंने पंजाबी और हिंदी में भाषा में कविताएं और नज्में लिखीं। पंजाबी साहित्य में उन्हें 1956 साहित्य अकेडमी पुरस्कार मिला था। उनके काम में कविता, कथा, जीवनी, निबंध, पंजाबी लोक गीतों का संग्रह और आत्मकथा भी थी। इनमें 100 से अधिक पुस्तकें शामिल थीं, जिनका कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उनके लिखे शब्दों में आज भी अमृता प्रीतम की खुशबू आती है, पढ़िए शायद आपको भी आए।
एक मुलाकात
मैं चुप शांत और अडोल खड़ी थी
सिर्फ पास बहते समुंदर में तूफान था….
फिर समुंदर को खुदा जाने
क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली-सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया
हैरान थी…
पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..
लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाय
पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?
मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली
सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुंदर की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे
और नीची छतों
और संकरी गलियों
के शहर में बस सकते थे…
पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने
आप ही घूंट पिया
मैं अकेला किनारा
किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुंदर का तूफान
समुंदर को लौटा दिया…
अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शांत और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शांत और अडोल
सिर्फ-दूर बहते समुंदर में तूफान है…
मैं तुझे फिर मिलूंगी…
मैं तुझे फिर मिलूंगी
कहां किस तरह पता नहीं
शायद तेरी तख्यिल की चिंगारी बन
तेरे केनवास पर उतरूंगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूंगी
या फिर सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूंगी
या रंगो की बाहों में बैठ कर
तेरे केनवास से लिपट जाऊंगी
पता नहीं कहां किस तरह
पर तुझे जरूर मिलूंगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूंगी
और एक ठंडक सी बन कर
तेरे सीने से लगूंगी
मैं और कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूं
कि वक्त जी भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म खतम होता है
तो सब कुछ खत्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनात के कण होते हैं
मैं उन कणों को चुनूंगी
मैं तुझे फिर मिलूंगी।
मेरा पता
आज मैंने अपने घर का नंबर मिटा दिया है
और गुल की पेशानी पर सब्त गुल का नाम हटा दिया है
हर सड़क की सम्त का नाम पोंछ दिया है
अगर मुझे ढूंढना चाहो
तो हर मुल्क के हर शहर की गली का
दरवाजा खटखटाओ
ये एक कलिमा-ए-खैर है बाइस-ए-शर है
जहां भी इक आजाद रूह की झलक दिखाई
सरमा
मेरी जान ठिठुर रही है
होंठ नीले पड़ गए हैं
और आत्मा को पैरों से कपकपी चढ़ रही है
बरसों बादल गरजते हैं इस उम्र के आसमान पर
क़ानून मेरे आंगन में बर्फ़ के टुकड़ों की तरह गिर रहे हैं
गलियों की कीचड़ अलांग कर गर आज तू आ जाए
मैं तेरे पैर धोऊं
पैकर तेरा सूरज-सा है
कंबल का कोना उठा कर
हड्डियों को गरमा लूं
एक कटोरी धूप की
मैं एक ही सांस में पी लूं
और एक टुकड़ा धूप का
मैं अपनी कोख में डाल लूं
फिर शायद मेरे जन्म का ये
मौसम-ए-सर्मा गुजर जाएगा
शहर
मेरा शहर एक लंबी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों-सी…
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मुंह से झाग बहता है
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुंह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटा-हॉर्न एक दूसरे पर झपटते
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस खत्म न होती
मेरा शहर एक लंबी बहस की तरह है…
दरअसल,अमृता प्रीतम के लिखे एक-एक शब्द में कभी उनके प्यार की तो कभी उनके शहर की याद आती है, अमृता कभी हमारे बीच से जैसे गई ही न हो, वह यादों में और अपने शब्दों में ‘सदाबहार’ हैं।
Picture courtesy: Instagram themodernpoets7 and amritapritam.official