एलिस एक्का आदिवासी महिला साहित्यकार के रूप में हमेशा याद की जाती रहेंगी, उन्होंने अपनी कहानियों के किरदारों को इस तरह से गढ़ा है कि वह लोगों के दिलों तक पहुंची। उनकी कहानियों में उन्होंने स्त्री मन को समझने की कोशिश की है। ऐसे में आइए पढ़ते हैं उनकी एक रचना।
दुर्गी के बच्चे और एल्मा की कल्पनाएं
‘‘एल्मा दीदी!…एल्मा दीदी!!!’’
पुकार कानों में पड़ते ही एल्मा चौंकी। उसने पलटकर पीछे की ओर देखा। उसकी आंखें सड़क पर आने-जानेवालों को निरखने-परखने लगीं ।
उसने एक औरत को भी देखा, जिसके एक हाथ में झाड़ू और दूसरे हाथ में बालटी थी। एल्मा ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।
परंतु वह औरत जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाती एल्मा के पास पहुंच गई। उसकी आंखों में आनंद की दीप्ति थी। एल्मा एक बार फिर चौंकी। उसके मुंह से एकाएक निकल आया,‘‘दुर्गी!’’
और एल्मा ने मन में सोचा, क्या यह सचमुच में दुर्गी ही है? वह उस दुर्गी की ओर आगे बढ़ी।
अपनी ओर एल्मा को आती देख मानो दुर्गी के पैरों में पर लग गए।
पलभर बाद दोनों आमने-सामने थीं-एल्मा और दुर्गी। हाथ के बोझ और तेज़ी से चलने के कारण दुर्गी हांफ उठी थी।
एल्मा को अपने सामने देखकर दुर्गी ने चहककर कहा,‘‘एल्मा दीदी, हमरा पहचनलियई न!’’ दुर्गी ने कहा और मुस्कुरा कर एल्मा की ओर देखा।
उसे देखकर एल्मा को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। दुर्गी…एल्मा ने हर्षित होकर कहा, ‘‘हाय दुर्गी! तू ही है रे। मैंने तेरी आवाज़ से ही तुझे पहचान लिया था। मगर तू यहां-कहां से टपक पड़ी?…और तेरी यह सूरत! यह मैं क्या देख रही हूँ? अरी दुर्गी, तू बहुत बदल गई रे। ’’
दुर्गी के होंठों पर एक मलीन हंसी आई और चली गई। बोली,‘‘दो-तीन साल से इहंई काम करइत ही दीदी। का आप सब एही महल्ला में रहा हा? बड़ दिन में भेंट भेंलई दीदी। ’’
मानो दुर्गी बिचारी आप में नहीं समा रही हो, ख़ुशी उसके चेहरे से फूटी पड़ती थी। आंखें चमक रही थीं। होंठ के कोनों पर मिलने की ख़ुशी कांप रही थी।
एल्मा ने कहा,‘‘हां रे, यहीं तो मेरा घर है। वह जो पीला-पीला फाटक दिखलाई दे रहा है न, वही। दो-तीन दिनों से यहां की जमादारिन नहीं आ रही है। क्या तू उसके एवज में आई है?’’
दुर्गी ने कहा,‘‘हां दीदी, हमही ओकर एवज में अइले ही। ऊ पीला फाटकवाला घरवा से तो हम अखनीए मैला उठा के अइली रहे। ’’
एल्मा ने कहा,‘‘शायद मेरे सड़क पर निकल जाने के बाद तू उस घर में गई होगी। मेरे कुत्तों ने तो खूब भौंका होगा?’’
दुर्गी ने कहा,‘‘हां दीदी, ठीके। भूकत रहथी कि। खूब भुकलथी। दइवा ऊ-सबके बांध देलई, तब हम कमा के चल अइली। ओकर बाद अभी तोरा देख रहल ही एल्मा दीदी। हम तो तोरा पीछे ही से पहचान लेली। फिन हमर मुंह से अचक्के ‘एल्मा दीदी’ निकल गेलइ। तू-हों हमरा चिह्न लेल न दीदी। बीस-बाइस बरिस बाद भेंट भेल दीदी। बड़ी खुशी भेलक। ’’
‘‘ठीक कहती है दुर्गी!’ एल्मा ने कहा, ‘‘बहुत दिनों के बाद मुलाकात हुई है। दुनिया गोल है न! जिंदगी में कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं मुलाकात हो ही जाती है। अच्छा, चल। लौट चल। कुछ देर बैठकर बातें करेंगी। ’’
‘‘हां दीदी, चल न; जवानी-परिया कैसन बैठ के बतिया हलियई। अपने तो जरिको न बदलियई हे दीदी। तब्बे तो पीठ दने से पहचान ले ली। कहां बियाह करली हे दीदी? कै-गो छउआ सब हथी? ऊ का करऽ हथी?’’ उसने एक ही सांस में पूछ डाला।
एल्मा ने कहा,‘‘पहले घर तो चलो, फिर सारी बातें होंगी। ’’
आगे-आगे एल्मा और पीछे-पीछे बालटी लिए दुर्गी। लोगों ने चकित आंखों से इन दोनों की ओर दिखा। क्या बात है? लोगों को दिलचस्पी हो रही थी।
एल्मा के घर पहुंचकर वे दोनों पीछे के मैदान में बैठ गईं। दुर्गी ने अपनी बालटी और झाड़ू एक पेड़ की ओट में रख दिया। फिर चारों ओर देखकर पूछने लगी,‘‘ई अपने घर हई दीदी?’’
एल्मा ने कहा,‘‘हां रे, अपना ही घर है। ’’
इतने में पांच-छह साल का एक मैला-कुचैला लड़का आकर दुर्गी से लिपट गया।
एल्मा ने पूछा,‘‘यह तेरा लड़का है दुर्गी?’’
दुर्गी ने कहा,‘‘हां दीदी, ई चौथा मरद से होल हई। ’’
एल्मा ने ताज्जुब से उसकी ओर देखा,‘‘चौथा मर्द! क्या कहती है दुर्गी? तुने चार मर्द कर लिए?’’
दुर्गी ने कहा,‘‘का करब दीदी? पेट-चंडाल के कारन का नहीं करे पड़े? हमर सादी तो अपने सबके सामने गोमला (गुमला जिला, झारखंड) में होवल रहे। अपने-सब हुआं से गेलियई कि रांड़ हो गेली। एक महीना के बच्चा छोड़ ओकर बाप चल बसलई। साल-हों न लगलई रहे कि एगो जमादार साथे चैबासा (चाईबासा) चल गेली। ओकर साथे पांच-छौ बरिस रहलियई दीदी; लेकिन ऊ हरमजादा पतरनजरिया एगो दूसरे जमादारिन साथे चल गेलई। ओकरा जरको दया-मया न अइलई दीदी। जब छउआ-पूता दाना-पानी खातिर तरसे लगथी, तो एगो दूसर जमादार दया करके रख लेलई। लेकिन हमर फूटल कपार कि ऊहो हैजा बीमारी के चलते मर गेलई। ’’
दुर्गी की आंखें गीली हो गई थीं। चेहरे पर करुण भाव उभर आया था।
उसने आंसू पोंछकर फिर कहना शुरू किया,‘‘अब हमर मन हुआं न लगलई दीदी! हम सीधे अपन नैहर लालटेनगंज (डाल्टनगंज, अब मेदिनी नगर) चल गेली। हुंअई के चौथा हलथी; लेकिन ऊ अभागा भी कोढ़ के चलते एक्को साल न ठहरलई। एही तो हमर किसमत हई दीदी। तब से छौआ-पूता खातिर अकेले घर-घर मैला उठावइत फिरऽ हियई। देखऽ न, सवांग कैसन हो गेलक हे। केस पक के खिचड़ी हो गेल। गतर में कहीं मांस नई। आंख धंस गेल। अपने तो देखले रहियइ न दीदी कि हम कैसन हली?’’
दुर्गी की आंखों से आंसू की धारा बहने लगी। वह सिसक उठी।
एल्मा ने कहा,‘‘रो मत दुर्गी, होनहार होकर ही रहता है। इसमें रोने की क्या बात? तू कितनी बहादुर है कि बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया। अब ये ही काम देंगे। ’’
दुर्गी ने रोते-रोते कहा,‘‘अकेले कमाई से का होव हइ दीदी? तीन-गो बेटी के तो बियाह कर देली। पांच-गो अखनी छोटे हथी। तीन-गो छोट लड़कन-सब बड़ी तंग करऽ हथिन दीदी। एतना-एतना के कहां से खियाएब कि पहिराएब दीदी?’’
एल्मा के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था; मगर जैसाकि कहा जाता है, उसने कहा,‘‘सब ठीक हो जाएगा दुर्गी, जिसका कोई नहीं, उसके भगवान् हैं। तू धीरज रख, दिल को छोटा न कर। ’’
इतना कहकर एल्मा घर के भीतर चली गई और तुरंत ही कुछ पुराने कपड़े, सूप में चावल-दाल, कुछ सब्जी और पांच रुपए का नोट लाकर दुर्गी के सामने रख दिया। बोली,‘‘इन्हें रख ले दुर्गी। जब तक इधर काम करोगी, मेरे यहां से बचा-खुचा ले जाया करना। ’’
दुर्गी आंसू पोंछकर सारी चीज़ों को अपनी साड़ी में रख, सामने के आंचल में खोंस लिया और नोट को आंचल के छोर में गांठ देकर बांध लिया।
एल्मा ने कहा,‘‘अच्छा दुर्गी, अब जा। और भी तो काम हैं। ’’
दुर्गी बोली,‘‘हां दीदी, मारवाड़ी टोला जाय के हई। न जायब तो गारी सुने पड़ी। ’’
एल्मा ने कहा,‘‘हां दुर्गी, जा, काम न करने पर तो गाली सुननी ही पड़ती है। अपना काम ठीक से करना चाहिए। एक हमारी जमादारिन है न, जिसके एवज में तू आती है, इतनी कामचोर और थेथर कि क्या कहें! कई दिनों तक चुप लगा जाती है और जब टोको तो दस बहाने। देखा न, पाखाना कितना सड़ रहा था। खैर, अब तू आ गई तो सब साफ हो गया। ’’
दुर्गी ने कहा,‘‘दीदी, फिन ऐसन करतई तो म्यूंसिपल्टी में रिपोट कर द। ओकर बाद सब ठीक हो जइतई। ’’
एल्मा बोली,‘अरे रिपोट कर-करके तो थक गई। कहां क्या होता-जाता है? वह बस अपनी जगह पर अड़ी है, सो अड़ी है। खैर, जब तक तू है, तब तक तो काम ठीक से चलेगा। ’’
दुर्गी ने सिर पर बालटी उठाई और हाथ में झाड़ू लेकर बाहर सड़क पर चली गई।
एल्मा वहीं बैठी रही। उसकी आंखों के सामने बीस वर्ष पहले की दुर्गी की तसवीर घूम रही थी। बीस वर्ष पहले की दुर्गी!…शायद वह बीस वर्ष की भी नहीं थी…एल्मा की समकालीन चौदह-पंद्रह साल की दुर्गी…उसकी आंखों के सामने दिखलाई देने लगी।
झन-झन-झन-झन…सांकल की आवाज।
‘‘एल्मा दीदी! एल्मा दीदी! दरवाजा खोलिए। ’’
एल्मा दौड़ जाती और दरवाजा खोल देती। दरवाजा खुलते ही दुर्गी अपने मोती-जैसे दांत दिखलाकर हंसने लगती।
एल्मा कहती,‘‘आ, अंदर आ न,’’ और दुर्गी हाथ में झाड़ू लिए इतराती-बलखाती अपनी पैजनियों को रुम-झुम बजाती अंदर चली जाती और पखाना घर की सीढ़ियों पर बैठ जाती। पीली साड़ी, सिर पर आंचल, मांग में सिंदूर और उसके ऊपर मांगटीका। हाथों में चूड़ियां और आंखों में काजल। वह आंखों-ही-आंखों में इस तरह शरमाती कि लगता कि जैसे देवबाला आ गई हो! एल्मा उसे देखती रहती और कभी उसी के पास सीढ़ियों पर बैठकर उससे बातें करती। दोनों हंस-हंसकर बातें करतीं।
तब एल्मा की मां पुकारती थी,‘‘एल्मा इधर तो आ। ’’
एल्मा झुंझलाकर उठ जाती। मां के पास पहुंचती।
पूछती,‘‘क्या है मां?’’
मां उसके कान में फुसफुसाकर कहती,‘‘अरी एल्मा, क्या आदत बना रखी है तुमने? मेहतरानी के साथ बैठकर बातें करती है!’’
एल्मा चुप रहती।
मां कहती,‘‘जा, काम कराके जल्दी से उसे वापस भेज। ’’
और तब एल्मा बोलती,‘‘मेहतरानी है तो क्या हुआ मां, मेरी ही तरह तो है बिचारी। बल्कि मुझसे भी सुंदर है, बात करने में हर्ज ही क्या?’’
एल्मा कहती-कहती चली जाती और दुर्गी के साथ गप्प लड़ाने लगती। जब काफ़ी देर हो जाती तो एल्मा कहती,‘‘चल दुर्गी, पानी देती हूं, धो पाखाना। ’’
छमाछम दुर्गी उठ जाती। साड़ी संभालतीं, आंचल संभालती और एल्मा से पानी लेकर धोने लगती।
दुर्गी कहती,‘‘एल्मा दीदी, हटिए न, पानी के छींटे पड़ेंगे। ’’
धुलाई ख़त्म हो जाती तो दुर्गी दरवाज़े के बाहर चली जाती! एल्मा देखती कि बाहर जाकर वह झाड़ू और बालटी उठाकर मचलती हुई चली जा रही है।
एल्मा सोचने लगी। बीस साल की दुर्गी और आज की दुर्गी! दोनों में कितना फ़र्क है! उम्र परिवर्तन लाती है, लेकिन जीवन की परिस्थितियां आदमी को कितनी शीघ्रता से परिवर्तित कर देती हैं। नसीब क्या से क्या कर दिखलाता है! बिचारी असमय में ही बूढ़ी लगने लगी है। उधर ऐसे कितने हैं, जिनके पास बुढ़ापा जैसे फटकता ही नहीं। हजारों दिलों को लुभानेवाली दुर्गी आज पहचानी भी नहीं जाती।
एल्मा के सामने विषमताओं की तसवीरें घूमने लगीं। जीती-जागती तस्वीरें !
हाय री दुनिया! एक ही सृष्टिकर्ता परमपिता की संतानों में इतना फर्क! कोई हिंडोले पर झूलता है और कोई सिर पर मैला की बाल्टी लेकर घर-घर डोलता है! हाय विधाता, क्या तुम्हारा यही न्याय है? और कितना घिनौना काम है यह? क्या हमारे देश से इस कार्य का अंत कभी नहीं होगा?
एल्मा की कल्पनाएं दूर-दूर दौड़ने लगीं। काश, ऐसा भी दिन आता कि इस आज़ाद भारत के कोने-कोने बिल्कुल साफ़-सुथरे हो जाते! ज़मीन के भीतर-भीतर सारी गंदगी बह जाती। सभी अपनी सफ़ाई का काम आप कर लेते! तब शायद ही कोई भंगी होता!
एल्मा की आंखों के सामने ऐसे ही भारत की तस्वीर झूलने लगी। उसने दुर्गी की संतानों को साफ़-सुथरी हालत में देखा। सारी संतानें एक साथ कंधे-से-कंधा मिला देश को ऊंचा उठा रही हैं।