कविताओं में प्रयोगवाद के प्रवर्तक कहे जानेवाले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ को ‘नई कविता’ का पथ प्रदर्शक भी माना जाता है। आइए 7 मार्च को उनके जन्मदिवस के अवसर पर जानें, उनसे जुड़ी कुछ खास बातें।
बहुमुखी प्रतिभासंपन्न साहित्यकार
7 मार्च 1911 को उत्तर पदेश के कुशीनगर में जन्में ‘अज्ञेय’ का असली नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन है। उनकी आरंभिक शिक्षा स्कूल की बजाय घर पर ही हुई है, जहां उन्हें संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी और बांग्ला भाषा के साथ साहित्य पढ़ाया गया। यदि ये कहें तो गलत नहीं होगा कि यह बचपन की शिक्षा का ही असर रहा कि हिंदी साहित्य में वे प्रतिष्ठित साहित्यकार बने। वे एक बहुमुखी प्रतिभासंपन्न कवि होने के साथ-साथ उत्कृष्ट संपादक, ललित-निबंधकार और उपन्यासकार भी थे, जिन्होंने कई यात्रा वृत्तांत, अनुवाद, आलोचनाएं, संस्मरण, डायरी, विचार-गद्य और नाटकों से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। सच पूछिए तो भाषा, शिल्प और विचारों में नए प्रयोग करनेवाले ‘अज्ञेय’ का साहित्यिक योगदान काफी व्यापक और बहुआयामी रहा है।
नई कविता आंदोलन तथा प्रयोगवाद के जनक
बचपन से ही देशभक्ति की भावना से प्रेरित ‘अज्ञेय’, अपने विश्वविद्यालय जीवन के दौरान पहली बार क्रांतिकारी गतिविधियों के संपर्क में आए थे, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1930 में मात्र 19 वर्ष की उम्र में वे पहली बार जेल गए थे। उसके बाद लगभग 6 वर्ष यानि 1930 से 1936 तक का समय उन्हें अलग-अलग जेलों में बिताने पड़े थे, जिसमें उन्होंने छायावाद के साथ मनोविज्ञान, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र और विधि, इन सभी विषयों का न सिर्फ अध्ययन किया, बल्कि कुछ प्रमुख कृतियाँ भी लिखीं। हिंदी कविता में उन्होंने प्रयोगवाद की शुरुआत की, जिससे कविता में नए विचार और अभिव्यक्तियाँ आईं। उन्होंने कविता को परंपरागत शृंगारिकता और भावुकता से निकालकर आधुनिक सोच दी।
‘अज्ञेय’ उपनाम के पीछे की रोचक कथा
गौरतलब है कि हिंदी साहित्य में ‘अज्ञेय’ के नाम से पहचाने जानेवाले ‘अज्ञेय’ को यह नाम मुंशी प्रेमचंद ने दिया था। दरअसल जेल में अपनी लिखी अपनी कहानी संग्रह ‘साढ़े सात कहानियाँ’ को प्रकाशन के लिए उन्होंने अपने मित्र जैनेंद्र को भेजी थी और जैनेंद्र ने इसे मुंशी प्रेमचंद को भेज दी। इन कहानियों में से दो कहानियों को प्रेमचंद ने प्रकाशन के लिए चुन तो लिया, लेकिन फिर बात आई कि जेल से भेजी गई इन कहानियों को उनके असली नाम से प्रकाशित कैसे किया जाए? ऐसे में उन्होंने लेखक के मूल नाम की जगह ‘अज्ञेय’ अर्थात अज्ञात नाम लिखा, जो आगे चलकर उनका उपनाम बन गया और इस नाम से उन्होंने कई कविताएं और कहानियाँ लिखीं।
उनकी अंतर्मुखता और आत्मचिंतन
‘अज्ञेय’ की रचनाओं में व्यक्ति की आंतरिक संवेदनाओं, संघर्षों और जीवन की जटिलताओं का सूक्ष्म विश्लेषण मिलता है। उन्होंने 'तारसप्तक' और 'दिनमान' जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया, जिससे नए लेखकों को मंच मिला। हालांकि सच पूछिए तो उनके साहित्यिक योगदान ने हिंदी साहित्य को आधुनिक बनाने में अहम भूमिका निभाई है। यही वजह है कि उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी हुई हैं। फिलहाल साहित्य प्रेमियों तक उनकी सभी कृतियों को पहुंचाने के लिए कृष्णदत्त पालीवाल ने ‘अज्ञेय रचनावली’ के माध्यम से 18 खंडों में उनकी सभी रचनाएं संकलित की हैं, जो किसी खूबसूरत उपहार से कम नहीं है।
उनकी प्रमुख कृतियाँ और पुरस्कार
उनकी प्रमुख कृतियों में भग्नदूत (1933), विपथगा (1937), चिंता (1942), परंपरा (1944), कोठरी की बात (1945), इत्यलम् (1946), शरणार्थी (1948), हरी घास पर क्षण भर (1949), जयदोल (1951), बावरा अहेरी (1954), इन्द्रधनुष रौंदे हुये ये (1957), अरी ओ करुणा प्रभामय (1959), आँगन के पार द्वार (1961), कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1970), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1974), महावृक्ष के नीचे (1977), नदी की बाँक पर छाया (1981), प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोयम्स (अंग्रेज़ी,1946), शेखर एक जीवनी (उपन्यास), नदी के द्वीप (1951) और अपने अपने अजनबी (1961) शामिल हैं. गौरतलब है कि उन्हें ‘आँगन के पार द्वार’ के लिए वर्ष 1964 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और ‘कितनी नावों में कितनी बार’ के लिए वर्ष 1978 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
‘अज्ञेय’ की प्रसिद्ध कविता ‘यह दीप अकेला’
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो