परवीन शाकिर का जन्म जन्म 24 नवंबर 1952 को कराची में हुआ था। लेकिन अगर उनके मूल स्थान की बात की जाए, तो उनका मूल स्थान बिहार के दरभंगा में स्थित लहरियासराय है। उनके पिता शाकिर हुसैन साक़िब विभाजन के बाद कराची में बस गए थे। उल्लेखनीय बात यह है कि परवीन ने कम उम्र से ही शायरी करने में मसरूफ़ रहने लगी थीं। खास बात उनके व्यक्तित्व और रचना की यह भी रही कि स्त्री की भावना को बेहद गहराई से महसूस करने वाली लेखिका परवीन शाकिर ने कम शब्दों में ही कई बड़ी-बड़ी बातें कह डाली हैं, अपनी रचनाओं के माध्यम से। उन्होंने अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के माध्यम से इस तरह गंभीर बातें भी चंद शब्दों में अपने चाहने वालों तक पहुंचाई है कि उनकी हर एक रचना अपने आप में मिसाल बनी हैं। वह मशहूर शायर के रूप में तो विख्यात रही ही, उन्होंने एक सशक्त और आजाद विचार रखने में भी कभी कोई कौताही नहीं की। तो आइए पढ़ें उनकी 5 लोकप्रिय रचनाएं।
ग़ज़ल
बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख़्म को हम ने कभी सिलते नहीं देखा
इक बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा
यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा
काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
किस तरह मिरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
शायरी
हुस्न के समझने के लिए
उम्र चाहिए जानाँ
दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं
ग़ज़ल
इक हुनर था कमाल था क्या था
मुझ में तेरा जमाल था क्या था
तेरे जाने पे अब के कुछ न कहा
दिल में डर था मलाल था क्या था
बर्क़ ने मुझ को कर दिया रौशन
तेरा अक्स-ए-जलाल था क्या था
हम तक आया तू बहर-ए-लुत्फ़-ओ-करम
तेरा वक़्त-ए-ज़वाल था क्या था
जिस ने तह से मुझे उछाल दिया
डूबने का ख़याल था क्या था
जिस पे दिल सारे अहद भूल गया
भूलने का सवाल था क्या था
तितलियाँ थे हम और क़ज़ा के पास
सुर्ख़ फूलों का जाल था क्या था
शायरी
आदत सी बना ली है
इस शहर के लोगों ने
अंदाज़ बदल लेना, आवाज़ बदल लेना
ग़ज़ल
हम ने ही लौटने का इरादा नहीं किया
उस ने भी भूल जाने का वा'दा नहीं किया
दुख ओढ़ते नहीं कभी जश्न-ए-तरब में हम
मल्बूस-ए-दिल को तन का लबादा नहीं किया
जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उस का ख़ुद
सर ज़ेर-ए-बार-ए-साग़र-ओ-बादा नहीं किया
कार-ए-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम
उस ने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया
आमद पे तेरी इत्र ओ चराग़ ओ सुबू न हों
इतना भी बूद-ओ-बाश को सादा नहीं किया