बशीर बद्र एक जाने-माने कवि रहे हैं। इनका जन्म 15 फरवरी 1935 को फैजाबाद (अयोध्या) में हुआ था। वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू पढ़ाते थे। वह मुख्य रूप से उर्दू भाषा में विशेष रूप से गजलें लिखते थे। उन्होंने 1972 में शिमला समझौते के दौरान ‘दुश्मनी जाम कर’ करो शीर्षक से एक दोहा भी लिखा था, जो भारत के विभाजन के इर्द-गिर्द है। 1987 के मेरठ सांप्रदायिक दंगों के दौरान न जाने कितनीं कविताओं सहित बशीर बद्र की अधिकांश अप्रकाशित साहित्यिक कृतियां नष्ट हो गईं और बाद में वे भोपाल, मध्य प्रदेश चले गए। बशीर बद्र भारतीय पॉप-संस्कृति में सबसे अधिक फेमस और उम्दा शायरों में से एक है। 2015 की फिल्म मसान में अकबर इलाहाबादी, चकबस्त, मिर्जा गालिब और दुष्यंत कुमार के कार्यों के साथ-साथ बशीर बद्र द्वारा कविता और शायरी के विभिन्न उदाहरण शामिल हैं। यहां पढ़िए बशीर बद्र की कुछ बेहद लोकप्रिय रचनाएं-
आंखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
आंखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफिर ने समुंदर नहीं देखा
बे-वक्त अगर जाऊंगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूं मेरी मंजिल पे नजर है
आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
तुम ने मिरा कांटो भरा बिस्तर नहीं देखा
यारों की मोहब्बत का यकीन कर लिया मैंने
फूलों में छुपाया हुआ खंजर नहीं देखा
महबूब का घर हो कि बुजुर्गों की जमीनें
जो छोड़ दिया फिर उसे मुड़ कर नहीं देखा
खत ऐसा लिखा है कि नगीने से जड़े हैं
वो हाथ कि जिस ने कोई जेवर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूं उस ने मुझे छू कर नहीं देखा
अगर तलाश करूं कोई मिल ही जाएगा
अगर तलाश करूं कोई मिल ही जाएगा
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझ को चाहेगा
तुम्हें जरूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आंखें हमारी कहां से लाएगा
न जाने कब तिरे दिल पर नयी- सी दस्तक हो
मकान खाली हुआ है तो कोई आएगा
मैं अपनी राह में दीवार बन के बैठा हूं
अगर वो आया तो किस रास्ते से आएगा
तुम्हारे साथ ये मौसम फरिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सताएगा
यूं ही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो
यूं ही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो
वो गजल की सच्ची किताब है उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो
अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आएगा कोई जाएगा
तुम्हें जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो
मुझे इश्तिहार-सी लगती हैं ये मोहब्बतों की कहानियां
जो कहा नहीं वो सुना करो जो सुना नहीं वो कहा करो
कभी हुस्न-ए-पर्दा-नशीं भी हो ज़रा आशिकाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूं मेरे साथ तुम भी चला करो
नहीं बे-हिजाब वो चांद सा कि नजर का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक से बड़ी देर तक न तका करो
ये खिजां की जर्द सी शाल में जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है उसे आंसुओं से हरा करो
सर से पा तक वो गुलाबों का शजर लगता है
सर से पा तक वो गुलाबों का शजर लगता है
बा-वजू हो के भी छूते हुए डर लगता है
मैं तिरे साथ सितारों से गुजर सकता हूं
कितना आसान मोहब्बत का सफर लगता है
मुझ में रहता है कोई दुश्मन-ए-जानी मेरा
खुद से तन्हाई में मिलते हुए डर लगता है
बुत भी रक्खे हैं नमाजें भी अदा होती हैं
दिल मेरा दिल नहीं अल्लाह का घर लगता है
जिंदगी तू ने मुझे कब्र से कम दी है जमीं
पांव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराब-खाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्रें बीत जाती हैं दिल को दिल बनाने में
फाख्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन सांप रखता है उस के आशियाने में
दूसरी कोई लड़की जिंदगी में आएगी
कितनी देर लगती है उस को भूल जाने में