इन दिनों हम सोशल मीडिया के इस कदर आदी हो चुके हैं कि हमारी शारीरिक अनुपस्थिति किसी भी कार्यक्रम से या पारिवारिक समारोह से घटती चली जा रही है, जबकि यह बेहद जरूरी है कि पर्व त्योहारों और शादी-ब्याह में ही सही मिलने मिलाने का सिलसिला जारी रहे। आइए जानें विस्तार से।
त्योहारों में एक दूसरे से मिलें शारीरिक रूप से
आजकल एक ही शहर में रहते हुए भी त्योहारों में लोग फोन पर ही बात कर लेना पसंद करते हैं और फिर केवल औपचारिकता वाली बातें करके फोन रख देते हैं, जबकि पहले हंसी-ठिठोली हुआ करती थी, लोगों का मिलना-जुलना हुआ करता था, लोग खाने-पीने जाते थे, एक दूसरे के साथ बैठ कर अंत्याक्षरी खेला करते थे, लेकिन अब केवल सोशल मीडिया के रील्स ही सारे मनोरंजन का साधन बनते हैं, जबकि अगर आप चाहें, तो यह बदलाव कर सकती हैं, आप त्योहारों के मौसम में इस बात की गांठ बांध लें कि चाहे, जो हो मिलने-जुलने की ये परम्परा जो चली आ रही थी, उस पर विराम नहीं लगाएंगे और मिलते रहेंगे।
बिना किसी मतलब के भी मिलें
पहले हम अपनों से मिलने के लिए किसी औपचारिकता की तलाश नहीं करते थे। हम बस जब मर्जी हो, किसी के भी घर चले जाया करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। हम बहाने भी नहीं ढूंढ पाते हैं कि मिला जाए, जबकि हमें कोई मकसद या मतलब की जरूरत नहीं, बस मिलने का दिल जी करे, इस एक मात्र कारण से ही चले जाना चाहिए, इसलिए बेहद जरूरी है कि हम इस मिलने की परम्परा को जारी रखें।
कुछ खो देने से अच्छा है सम्पर्क में रहना
कई बार हमें पता भी नहीं चलता है और हम अकेले पड़ जाते हैं या फिर हमारे बीच से हम किसी को खो देते हैं और हमें बाद में इस बात का एहसास होता है कि हम मिले नहीं, समय रहते मिल लेते, इसलिए बेहद जरूरी है कि सम्पर्क बनाये रखें और एक दूसरे से मिलते रहें, यह परम्परा आपके मानसिक स्वास्थ्य को जाहिर है कि बेहतर ही बनाने की कोशिश करते हैं।
शेयरिंग आज भी केयरिंग है
किसी के घर में हलवा बना है, किसी के घर में कुछ पकवान या स्पेशल डिश बनी हो, आपके जेहन में कुछ ऐसे नाम और ख्याल तो जरूर आ जाते होंगे कि हम इसे शेयर करके खाएंगे- खिलाएंगे, तो चलो उन्हें पड़ोस में अपने वर्मा अंकल को तो सिन्हा आंटी को कुछ दे आएं, लेकिन अब इस सोच और दौर दोनों में बदलाव आया है, हम इस बात से आलस्य करने लगते हैं कि अभी कौन परेशान हों और किसी के पास क्यों जाना है, चलो खुद में रहते हैं, जबकि यकीन मानिए, जो ख़ुशी एक दूसरे के साथ मिलती है और जो एन्जॉयमेंट मिलता है, एक दूसरे से बांट कर खाने खिलाने में, वो अकेले नहीं आता है, इसलिए जरूरी है कि यह परम्परा बनी रहे।
बनते हैं एक दूसरे के स्तंभ
हम ऐसा मान लेते हैं कि हमें एक दूसरे की जरूरत नहीं है, लेकिन हकीकत यही है कि अगर हम एक दूसरे के स्तम्भ नहीं बनते हैं, तो सुख और दुःख दोनों में ही हमें मिलने की जरूरत होती है। हमें एक दूसरे का साथ चाहिए ही होता है, इसलिए जरूरी है कि हम मिलने-मिलाने का सिलसिला न तोड़ें, एक दूसरे के साथ किसी न किसी रूप में सम्पर्क में रहें।