हम आपके कौन हैं को रिलीज हुए न जाने कितने साल बीत चुके होंगे, लेकिन आज भी फ़िल्म जब कभी आपके टीवी सेट पर आती है, आप पूरे काम छोड़ कर, पूरे परिवार के साथ उस फ़िल्म को एन्जॉय करते हैं. कभी ख़ुशी कभी गम का वह अंतिम दृश्य, जब अमिताभ बच्चन का क़िरदार, अपने बेटे राहुल से माफ़ी मांगता है और फूट-फूट कर रोता है. तब उस दौर में ऐसे कई परिवार रहे होंगे, जहां इस फ़िल्म को देखने के बाद बेटे और पिता के रिश्ते में नज़दीकियां बढ़ी होंगी. हम साथ-साथ हैं के गाने, आज भी आपके पैरेंट्स की 50 वीं सालगिरह पर ज़रूर सुनाई देते हैं. आख़िर इन फ़िल्मों ने ऐसा क्या जादू किया कि आज भी पूरे परिवार के साथ, इतने साल गुज़र जाने के बावजूद लोग इन फ़िल्मों के दीवाने हैं. दरअसल, इन फ़िल्मों ने संवेदना दी है, जो आपको आज भी कभी रुलाती है, कभी हंसाती है, और बहुत कुछ सिखाती भी है. लेकिन अफ़सोस कि वर्तमान दौर की फ़िल्मों में ऐसे पारिवारिक विषय नहीं चुने जा रहे हैं और चुने भी जा रहे हैं तो उन्हें ख़ूबसूरती से दर्शाया नहीं जा रहा है. आइए, आपको बताएं कि आख़िर क्यों ज़रूरी है कि फ़िल्मों से दादा-दादी, बच्चे, बुआ व घर के सदस्यों के किरदार गौण न हों.
ताकि बरक़रार रहे एक दूसरे से प्यार करने की आदत
मिडिल क्लास फ़िल्मों को बहुत ही सहजता से दिखाने वाले मशहूर निर्देशक आनंद एल राय का मानना है कि हम जिस तरह के तनाव के दौर से गुज़र रहे हैं, हर दिन हमारे आस-पास इतना कुछ नया हो रहा है कि हम हर दिन असहज हो जाते हैं और मायूस हो जाते हैं कि हमारे पास वो क्यों नहीं, जो उसके पास है. ऐसे में जब आप अपने घर, अपने परिवार के पास लौटते हैं तो आपका वह स्ट्रेस कम होता है और इसलिए फ़िल्मों में भी बेहद ज़रूरी है कि वे क़िरदार ग़ायब न हों. आप ख़ुद सोचें, जब घर के किसी कोने से बच्चे की धमाचौकड़ी सुनाई देती है, कहीं बुआ शिकायतों का अंबार लगा कर बैठी है, कहीं समधनें एक दूसरे को छेड़ रही हैं. पूरे घर में जब ऐसी हंसी-ठिठोली होती है, तो कितनी रौनक बनी रहती है और यही तो हमारी फ़िल्मों में भी होना चाहिए. इसलिए जब मैं अपनी फ़िल्में बनाता हूं, तो मेरी कोशिश यही होती है कि अगर कहानी में ज़रूरत है, तो ऐसे क़िरदारों को जोड़ा जाए, इससे आपको अपने ही सामाजिक ढांचे की विविधता नज़र आएगी, ज़िंदगी जीने का अपना एक नज़रिया मिलेगा. लोक संस्कृति की मौसिकी का मज़ा भी तो इन्हीं परिवारों के लोगों के अलग-अलग व्यवहार और रस से मिलता है. ऐसे में फ़िल्में हमारे ही समाज को दर्शाती है और रंग बिखेरती हैं. मेरी कोशिश हमेशा रहेगी कि ऐसे क़िरदार, फ़िल्मी स्क्रीन से ग़ायब न हों. आनंद मानते हैं कि फ़िल्मों से आप कहीं न कहीं काफ़ी प्रभावित होते हैं. अगर फ़िल्मों में परिवार जिंदा रहेंगे तो रिऐलिटी में भी आपकी एक दूसरे से प्यार करने की आदत बरक़रार रहेगी. आप गॉसिप करने की बजाय, परिवार को बोझ समझने की बजाय परिवार के साथ को एन्जॉय करेंगे.
ताकि रिश्तों में औपचारिकता न हो
सूरज बड़जात्या हमेशा पारिवारिक फ़िल्में बनाने में माहिर रहे हैं. वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि फ़िल्मों से परिवार ग़ायब हो रहे हैं, क्योंकि वास्तविकता में भी कई परिवारों में अब औपचारिकता ने जगह ले ली है. अपने ही परिवार के सदस्यों से बातचीत करने के लिए, समय लेना पड़ताहै. वक़्त के साथ सोशल मीडिया भी सबकी ज़िंदगी में दाख़िल हुआ है. लेकिन सूरज कहते हैं कि उनके लिए पारिवारिक मूल्य आज भी वहीं हैं और वे हमेशा ख़ेस रहेंगे. उनका मानना है कि उन्होंने ट्रेंड के हिसाब से चल कर मैं प्रेम की दीवानी हूं बनाई थी और वह पसंद नहीं की गई थी, इसका मतलब है कि आज भी दर्शक मुझसे यह उम्मीद करते हैं कि मैं पारिवारिक फ़िल्में दिखाऊं तो मैं दिखाता रहूंगा. सूरज साफ़ कहते हैं कि मार्केट क्रिएशन पर हावी नहीं हो सकता. इसलिए हम फ़िल्म मेकर्स को चाहिए कि वे इसे ज़िन्दा रखें.
तनाव कम करने के लिए
इन दिनों जब से ओटीटी की दुनिया ने राज करना शुरू किया है, क्राइम और थ्रिलर जॉनर की फ़िल्मों ने भी पैठ जमा ली है. ऐसे में पूरे परिवार के साथ ऐसी सीरीज़ या फ़िल्में देखना संभव नहीं हैं. कई बार आप अपनी वास्तविक ज़िंदगी में इस क़दर तनाव से ग्रसित हो जाते हैं कि फ़िल्मों में दिखाए गए कुछ दर्दनाक सीन से आप ख़ुद को रिलेट करके भी कई बार और तनाव में आ जाते हैं. इसलिए ज़िंदगी को थोड़ा रिलैक्स और पॉज़िटिव बनाने के लिए ज़रूरी है कि आज की फ़िल्मों में भी परिवार नज़र आए, ताकि आप पूरे परिवार के साथ इसे एन्जॉय कर पाएं.
पूरा परिवार साथ हो
क्या आपको याद है कि आख़िरी बार आप पूरे परिवार के साथ कौन सी फ़िल्म थिएटर में देख कर आए थे? शायद यह बात कई साल पहले की हो… अब तो घर में एक टीवी होते हुए भी, साथ में फ़िल्में नहीं देखी जातीं, क्योंकि कमरे अलग हो गए हैं. दुनिया मोबाइल में सीमित हो गई है. ऐसे में अगर कोई फ़िल्म ऐसी रिलीज होगी, जो परिवार के साथ देखी जा सके तो आप कुछ पल के लिए, कुछ घंटों के लिए सही, अपनों के साथ एक ही जगह बैठ कर, उन फ़िल्मों का मज़ा ले सकते हैं. कुछ देर के लिए ही सही, सब साथ तो आएंगे. इसलिए ज़रूरी है कि फ़िल्मों से परिवार ग़ायब न हों.
महीने में एक बार करें होम स्क्रीनिंग सबके साथ
ऋषिकेश मुखर्जी की शायद ही ऐसी कोई फ़िल्म हो, जो आप अपने पूरे परिवार के साथ नहीं देख सकते हैं. तो आपको ऐसी फ़िल्मों को एक्स्पायर होने से बचाना है, ताकि आपकी अगली पीढ़ी भी फ़ैमिली वैल्यूज़ को समझ सके. आजकल के बच्चे, घर में काम करने वाले हेल्पर्स को हीन नज़रों से देखते हैं, लेकिन अगर वे बावर्ची जैसी फ़िल्म देखेंगे तो उन्हें आपको यह समझाने में आसानी होगी कि अपने से बड़ों का सम्मान और हर किसी को समान नज़रों से देखना क्यों ज़रूरी है. तो आप यह एफ़र्ट ले सकती हैं कि हर हफ़्ते किसी एक दिन, जब सबकी छुट्टी हो, कभी नाश्ते, कभी लंच के बाद, पूरे परिवार के साथ सदाबहार पारिवारिक फ़िल्मों की स्क्रीनिंग करें और परिवार के सभी सदस्यों को इसमें शामिल होने के लिए कहें. पारिवारिक मूल्यों को बचाने के लिए और अपनी अगली जेनरेशन में इसे बढ़ाने के लिए ज़रूरी है कि ये छोटे ही सही, पर कुछ स्टेप्स लिए जाएं.
ताकि रिश्तों में आई दरारें कम हो
हो सकता है कि आपके परिवार में किसी बात को लेकर आपस में दो सदस्यों में बातचीत बंद हों तो उन्हें सूरज बड़जात्या या ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्में दिखाएं, कहीं न कहीं उन फ़िल्मों में इतनी ताक़त आज भी बरक़रार है कि उनको देख कर, आप उससे जुड़ाव महसूस करेंगे, हो सकता है कि उन फ़िल्मों का असर हो और धीरे-धीरे दूरियां कम हों. इस बात में कोई शक़ ही नहीं है कि फ़िल्में आपके इमोशन को छूती हैं ऐसे में हो सकता है कि ऐसे प्रयास से रिश्तों की दरार शायद भर ही जाए.