घाट-घाट में महके चाट की खूशबू, गली-मोहल्ले में दीवारों पर बैरागी नाचे हैं, पहनावे में जहां दिखे रेशमी साड़ी,उसे बनारस पुकारे हैं। जी हां, सुपर फास्ट ट्रेन से वाराणसी जंक्शन पर उतर कर, जब स्टेशन का नजारा देखा, तो सबसे पहले नजर पहुंची आसमान की तरफ, जहां कभी गुलाबी, कभी नीली तो कभी लाल रंग में बड़ी सी घड़ी के ऊपर गोल पहिया दिखा, जो मानों यह कह रही हो कि, संस्कृति और परंपराओं की बनारसी नगरी की धरती पर स्वागत है आपका। जी हां, बनारस की सबसे बड़ी खूबसूरती वहां की भोजपुरी भाषा में तो है ही, इसके साथ आप चाहे चार पहिया गाड़ी पकड़ें या फिर हाथ रिक्शा, बात-बात पर आपको यह सुनाई जरूर देगा कि भैया, बनारसी हैं हम।
एक शहर बनारस
काशी, बनारस, वाराणसी, शायद ही आपने कभी एक शहर के इतने सारे नाम सुने होंगे, लेकिन अक्सर वाराणसी को लेकर यह धारणा बनी हुई है कि यह एक धार्मिक शहर है, जहां पर गंगा घाट पवित्रता को महसूस कराती हैं, वहीं दूसरी तरफ जलती हुई मसान मनुष्य के जीवन की यात्रा के अंत से रूबरू कराती हैं, हालांकि वाराणसी की खूबी केवल उसके धार्मिक चिन्हों पर आधारित नहीं है, बल्कि वाराणसी उससे भी आगे बहुत कुछ है, जो कि वाराणसी जंक्शन की खूबसूरत कलाकृति से शुरू होकर वहां के मोहल्ले की ठेठ बनारसी पान की मिठास की संस्कृति में बसा है। वहां की बोली में मटका दही की मिठास घुली सी लगती है, तो वहां के पहनावे में रेशमी बुनाई की कला दिखाई देती है। आइए यह जानने की कोशिश करते हैं कि कैसे बनारस केवल घाटों के संगम के बीच धर्म से अलग अपनी एक अनोखी व्याख्या भी करती है।
बनारस की कला रेशम की बुनाई
वाराणसी को हस्तशिल्प कला का प्रमुख केंद्र माना जाता रहा है। इसी वजह से वाराणसी में रेशम की बुनाई बनने वाली 'बनारसी साड़ी' और दुपट्टा विश्व में लोकप्रिय हैं। यह भी जान लें कि बनारसी वस्त्र कला का प्राचीन ग्रंथो में कई बार उल्लेख किया गया है। इतना ही नहीं बनारस के घाट के करीब की कई ऐसी गलियां और मोहल्ले हैं, जहां पर महिला और पुरुष के आकृतियों से बनी हुई कई सारी चित्रकारी दीवारों पर जीवित सी दिखाई पड़ती हैं।
टमाटर की चाट, सांस्कृतिक खान-पान
बनारसी पान से लेकर मटका लस्सी हो या फिर कचौड़ी और चने की सब्जी के साथ सुबह का नाश्ता, बनारस के खान-पान में संस्कृति की एक स्वादिष्ट झलक हर गली में महकती रहती है। पत्तों से बनी कटोरी में बनारस खाने के स्वाद का खजाना चखने को मिलेगा, जहां पर टमाटर की चाट, छोले समोसा, बनारसी खट्टी-मिट्ठी इमली, मिट्टी के कटोरी में दही से जहां आपकी दोपहर ठंडी होगी, तो वहीं नींबू वाली चाय और मसाला टोस्ट के साथ बनारस की सांझ सुखमय दिखाई पड़ती है। रात के खाने का नजारा देखना है, तो इसके लिए आपको रेलवे स्टेशन के सामने वाली गलियों में जरूर जाना चाहिए, जहां पर हर स्वाद की थाली आपके लिए गर्मागर्म परोसी जाएगी। चूल्हे पर सेंकी रोटी के साथ बाटी-चोखा और बनारसी पालक का स्वाद थाली की शक्ल और भी रंगीन बना देता है। अगर आप बनारस यात्रा के दौरान इसकी सांस्कृतिक खान-पान से परिचित होना चाहते हैं, तो काशी चाट भंडार, लंका में बनारसी चाट, बनारस घाट पर पालक पकौड़ा, अस्सी घाट पर मटका दही और नींबू चाय का स्वाद लेने जा सकते हैं।
बनारस ने दिया पद्मविभूषण
कहते हैं बनारस की हवा में वहां के संगीत को महसूस किया जा सकता है। बनारस घराने की अपनी खुद की नृत्यकला और संगीत की परंपरा रही है। बनारस के मेले, त्योहारों में रामलीला का शानदार मंचन और पारपंरिक गीतों की खूशबू पूरे माहौल को संगीतमय कर देती है। यहां तक की संगीत वाद्य रत्न भी बनारस की देन है। तबला के शहनशाह 'पद्मविभूषण पंडित किशन महाराज', तबला वादक 'पद्म भूषण सांता प्रसाद मिश्रा' , 'पद्मश्री सितारा देवी' ने बनारस के संगीत मय रस को विदेश में ख्याति दिलाई है। यही वजह है कि वाराणसी को संगीत का सुरमई शहर कहा जाता है।
बनारस एजुकेशन हब
शिक्षा की अपनी प्राचीन परंपरा को बनारस ने आज भी उच्च दर्जे का रखा है। यही वजह है कि आज भी अपने कैंपस की महक लेने के लिए यात्रा कर छुट्टियों में जरूर विश्वविद्यालय की दहलीज पर आते हैं। उल्लेखनीय है कि बनारस में चार सबसे बड़े विश्वविद्यालय-बनारस हिंदू विश्वविद्यालय,महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज और संर्पूणान्नद संस्कृत विश्वविद्यालय मौजूद है। यही वजह है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश-पश्चिमी बिहार का एजुकेशन हब का सम्मान वाराणसी को दिया गया है। इसकी शुरुआत आजादी के आंदोलन के दौरान 10 फरवरी 1921 में हुई थी, जब महात्मा गांधी ने काशी विद्यापीठ की आधारशिला रखी थी। यहां पर शिक्षा का स्तर क्या है, यह नजारा देखने के लिए आप विश्वविद्यालय के महल रूपी गेट से ही लगा सकते हैं, जिसके परिसर के अंदर स्टूडेंट यूनियन के बैनर लगे हैं, तो वहीं रास्तों पर मौजूद लाइब्रेरी और किताबों की दुकानों की लंबी फेहरिस्त में खड़े विद्यार्थियों की लंबी कतार वाराणसी के ज्ञान का बखान करती है।
चार सौ साल पुरानी काष्ठ कला
वहीं बनारस के दिल में कला का खजाना छिपा हुआ है। खासतौर पर बनारस की काष्ठ कला विश्व में अपनी ठोस पहचान स्थापित कर चुकी है। माना जाता है कि बनारस की काष्ठ कला चार सौ साल से भी पुरानी है, वहां पर कहावत है कि यह कला तो राम राज्य से चली आ रही है। सबसे पहले यहां पर लकड़ी के खिलौने बनाने का काम शुरू हुआ, धीरे-धीरे यह सजावट के सामानों तक पहुंचा। वहीं अब काष्ट कला ने अपना व्यापार व्यापक किया है। बच्चों के खिलौने के साथ खेलने वाला लट्टू, सिंदूरदान, ऊखली, मुसल,चक्की, शतरंज की गोटी, कैरमबोर्ड की गोटी से लेकर बच्चों के पालने से लेकर बच्चों के खेलने वाले लकड़ी के खिलौनो की विदेशों में मांग है।
बनारस के अनमोल रत्न
बनारस ने भारत को कई अनमोल रत्न दिए हैं, जो कि इस शहर की परंपरा में चार चांद लगा चुके हैं। भारत के कई लेखक, कवि और संगीत की दुनिया की मिशाल बनारस की भूमि से ही जन्मे हैं। लोकप्रिय लेखक 'मुंशी प्रेमचंद्र', कहानीकार 'जयशंकर प्रसाद',बांसुरी वादक 'पंडित हरि प्रसाद चौरसिया', मशहूर ठुमरी गायिका 'गिरिजा देवी' के साथ शहनाई वादक 'उस्ताद बिस्मिल्लाह खां' बनारस की ही देन हैं।
और अंत में दिलचस्प है कि काफी समय पहले ट्रेन यात्रा के दौरान एक परिवार से मुलाकात हुई थी, उस वक्त बुजुर्ग महिला ने बातचीत के दौरान कहा था कि हम काशिका के रहने वाले हैं, हमारे दिल भी सोने के और हमारा शहर भी सोने का इसी वजह से हमारे शहर को काशिका(काशी) कहते हैं, जिसका मतलब होता है चमकता हुआ बनारस।