नाटक से संबंधित भी एक शास्त्र है, जहां नाटक से जुड़े सारे शास्त्र की पूरी जानकारी मौजूद है। इसे नाट्यशास्त्र कहते हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि नाट्य शास्त्र का जन्म उस समय हुआ, जब नाटक और उससे जुड़ी गतिविधियों को लेकर विरोध जताया जाता था। इसे सभ्यता से अलग माना जाता था। नाट्य शास्त्र को 300 ई पू भरतमुनि ने रचने के साथ इसका लेखन किया था। दिलचस्प है कि इसका जन्म 400 से 100 ईसा पूर्व के मध्य में हुआ था। आइए विस्तार से जानते हैं नाट्य शास्त्र के संबंध में।
नाट्य शास्त्र और समाज
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नाट्य शास्त्र में संगीत और नृत्य को एक साथ शामिल करने का सिद्धांत मौजूद है। देखा जाए, तो नाट्य शास्त्र दो शब्द नाट्य और शास्त्र से बना हुआ है। इसमें नाट्य का अर्थ होता है कार्य करना, प्रतिनिधित्व करना और शास्त्र का अर्थ होता है संदेश, नियम या फिर आप इसे किसी ग्रंथ से भी जोड़ सकते हैं। नाट्य शास्त्र का मानना है कि नाटक की उत्पत्ति उन संघर्षों के कारण हुई है,जो समाज में व्याप्त है। यही वजह है कि एक नाटक हमेशा समाज के संघर्ष और उसके समाधान का प्रतिनिधित्व करता आया है। नाट्य शास्त्र में सबसे पहले रस सिद्धांत की चर्चा है। रस के सबसे पहले कवि भरतमुनि ही थे। स्थाई भाव रस सिद्धांत के अंतर्गत आता है। स्थाई भाव से मतलब है कि मन में जो मनोविकार, चाह के रूप में हमेशा विद्यमान रहती है। उसे ही स्थाई भाव कहते हैं। यह रस का मूल भाव है। रस सिद्धांत की गिनती 9 मानी जाती है। इसके अंतर्गत शृंगार रस, वीर रस, रौद्र रस,भयानक रस, वीभत्स रस, करुण रस, हास्य रस, अद्भुत रस और शांत रस का नाम शामिल है।
नाट्यशास्त्र में रस सिद्धांत
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रस सिद्धांत को हिंदी के लोकप्रिय साहित्यकार नगेन्द्र द्रारा रचित एक काव्यशास्त्र है। उल्लेखनीय है कि उनको अपनी लेखनी के लिए साल 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है। इस रस का शाब्दिक अर्थ यह है कि आनंद काव्य को पढ़ने या सुनने से या फिर चिंतन करने से जिस तरह आनंद का अनुभव होता है, उसे ही रस कहा जाता है। रस सिद्धांत को भरत मुनि ने अपने तरीके से बयान भी किया है। उन्होंने इस सिद्धांत को बयान करते हुए कहा है कि न हि रसादते कश्चिदर्थ: प्रवर्तते।
ऐसे मिला था नाट्यशास्त्र का ज्ञान
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नाट्यशास्त्र के अनुसार भरतमुनि ने ब्रह्मा से नाट्यवेद की सीख ली है। उनके द्वारा ही उन्होंने अध्ययन प्राप्त किया है। नाट्यशास्त्र में हिमालय पर्वत पर मौजूद शिव क आदेश पर ताण्डव का ज्ञान भी भरतमुनि ने किया था। जानकारों का यह भी मानना है कि कश्मीर से समीप भरतमुनि का निवास माना गया है। यही वजह है कि कश्मीर में ही नाट्यशास्त्र का अध्ययन सर्वाधिक होता था। इसी वजह से कश्मीरी विद्यवानों में से ही भट्ट लोलट के साथ कई सारे विद्यवानों ने नाट्यशास्त्र की व्याख्या लिखी है। यह भी जान लें कि नाट्यशास्त्र में नाट्य के सहायक तत्वों के तौर पर अलंकार, छंदशास्त्र और संगीतशास्त्र का भी विवरण मिलता है। भरतमुनि ने न केवल नाट्यशास्त्र की रचना की है, बल्कि उन्होंने अलंकारशास्त्र के भी पहले आचार्य रहे हैं।
विदेशों में नाट्यशास्त्र
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भारत के साथ विदेशों में भी कई दशक पहले से नाट्यशास्त्र ने अपना स्थान बना लिया था। विदेशी विद्यावन विलियम जोन्स ने सन 1789 में कालिदास के लोकप्रिय नाटक ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित हुआ था। इसके बाद से ही भारतीय रंगमंच की लोकप्रियता को विदेशी रंगमंच पर स्थान मिलने लगा। साल 1826 में विदेशी विद्यवान एचए विल्सन ने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के बारे में अपनी व्याख्या से हैरान कर दिया था। कई सारे नाटकों और नाट्यशास्त्रीय ग्रंथों में भरतमुनि के जरिए बताई गई नाट्य विद्या के सूत्र ग्रंथ को लेकर ऐसी टिप्पणी की थी, जिससे भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के प्रति निराशा व्याप्त हो गई थी। नतीजा यह हुआ है कि चालीस साल तक नाट्यशास्त्र के संबंध में कोई भी बात या फिर विश्व में किसी भी प्रकार की चर्चा नहीं हुई।
नाट्य शास्त्र से जुड़ा इतिहास
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कई सालों तक नाट्यशास्त्र के पाण्डुलिपि की खोज की गई। इसके लिए कई विद्यावानों ने खोज की। इसके कुछ सालों बाद नाट्यशास्त्र की पांडुलिपि पर साल 1874 में एक बड़ा लेख भी प्रकाशित हुआ। इस लेख का नतीजा यह निकला कि नाट्यशास्त्र के प्रति लोगों की दिलचस्पी पहले से अधिक हो गयी। इसके साथ ही नाट्यशास्त्र पर कई तरह के अध्ययन और शोध भी किए जाने लगे। कई सारे अध्ययन के बाद यह पाया गया है कि नाट्य शास्त्र के आठ अध्याय हैं, जो कि प्रकाशित हो चुके हैं। नाट्य शास्त्र के अध्यायों में एक के बाद एक कई तरह के विवरण दिए गए हैं। पहले अध्याय में यह बताया गया है कि ऋषियों ने नाट्यवेद के विषयों में कई सारे प्रश्न किए गए थे। इसी पर भरतमुनि ने अपना जवाब दिया है।
नाट्यशास्त्र के अध्यायों से जुड़ी जानकारी
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नाट्यशास्त्र के दूसरे अध्याय में भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र के तीन प्रकार और साधनों पर विस्तार से बात की है। तीसरे अध्याय में उन्होंने धार्मिक क्रियाओं पर विस्तार से बात की है। चौथे अध्याय में तांडव नृत्य की उत्पत्ति पर बात की है। पांचवें अध्याय में नाट्यप्रयोग के आरंभ में प्रस्तुत किए जाने वाले प्रस्तावना आदि पर बात हुई है। छठें अध्याय में रस सम्यग रूप पर चर्चा और सातवें अध्याय में भावों पर चर्चा हुई है। आठवें अध्याय में अभिनय और आदि जरूरी चीजों पर विवरणद दिया गया है। इसी तरह नाट्यशास्त्र के हर अध्याय में नाट्य शास्त्र के हर पहलू पर बारीकी सी बात करते हुए उस पर विस्तार से बात की है।
नाट्य शास्त्र पर चर्चा
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नाट्य शास्त्र विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला पर चर्चा करता है। साहित्य निर्माण के जरूरी मामलों से लेकर, संगीत, आंदोलनों का विश्लेषण और नृत्य रूपों का विश्लेषण भी किया गया है, जो कि शरीर की कई श्रेणियों पर विचार करता है। साथ ही दर्शकों पर नाट्य शास्त्र का क्या प्रभाव होता आया है कि इस पर भी नाट्य शास्त्र में चर्चा हुई है। नाट्य शास्त्र का प्रमुख उद्देश्य दर्शकों का मनोरजंन करना है। नाट्य के जरिए दर्शक अपनी अदायकी से दर्शकों को प्रभावित करते हैं। जाहिर सी बात है कि नृत्य का नाटक से संबंध गहरा हो सकता है। नाटक मुख्य रूप से शब्दों और इशारों का प्रयोग करते हुए अपनी भावनाएं दर्शकों तक पहुंचाता है। नृत्य में भी संगीत और इशारों का प्रयोग अधिक किया गया है। नाट्य शास्त्र में कई स्थितियां बताई गई है। वर्तमान में आधुनिक भारतीय नर्तक अभी-भी नाट्य शास्त्र में निर्धारित नियमों के अनुसार ही नृत्य करते आए हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे। नाट्य शास्त्र कई शताब्दियों तक भिन्न कलाओं में एक प्रमुख पाठ बना हुआ है। इसमें भारतीय शास्त्रीय संगीत, भारतीय शास्त्रीय नृत्य की कई सारी शब्दावली और संरचना को भी परिभाषित किया गया है। नाट्यशास्त्र में बताई गई संगीत की संरचनाएं आज भी अपना प्रभाव बरकरार रखे हुए हैं। नाट्यशास्त्र की सामग्री में सौंदर्य शास्त्र, पौराणिक इतिहास और धर्म शास्त्र को भी शामिल किया गया है। यह भारत में नाट्य शास्त्र पर सबसे पुराना जीवित विश्वकोश ग्रंथ है, जिसमें विभिन्न कलाओं के सिद्धांत और अभ्यास पर खंड शामिल है।
नाट्यशास्त्र से जुड़ी अन्य जानकारी
नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने जिस तरह से नाट्य कला को स्वरूप दिया है, वो काफी व्यापक है। उनकी मौजूदगी को आद भी नाट्यशास्त्र में महसूस किया जा सकता है।भरतमुनि के द्वारा रचित नाट्य शास्त्र ने भारत का ऐसा स्वरूप दिखलाया है जहां पर काव्य, नाट्य, संगीत, नृत्य और ललित कलाओं के जरिए मानव के जीवन की अद्भुत कल्पना की गई है, जो नाट्यशास्त्र की मौजदूगी को उजागर करता है। वर्तमान में नाट्यशास्त्र में छत्तीस या फिर सैंतीस अध्याय मौजूद हैं। साथ ही नाट्य शास्त्र में 6 हजार से अधिक श्लोक भी पाए गए हैं। भरतमुनि ने इन श्लोकों के जरिए नाट्य शास्त्र का संकलन भी किया है। इन सारी बातों से यह पूरी तरह से स्पष्ट होता है कि भरतमुनि द्वारा रचित नाट्य शास्त्र अपने व्यापक विषय विस्तार के कारण पुराण काल से लेकर वर्तमान तक और मुमकिन है कि भविष्य में भी विद्वानों का मागदर्शन करता रहेगा। तभी तो नाट्य शास्त्र के किसी भी कला में महिला और पुरुष कलाकारों को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। नाट्य शास्त्र में यह साफ तौर पर कहा गया है कि एक खराब तरीके से पेश किया गया नाटक भटकर दर्शकों से दूर हो जाता है, जबकि महत्व के आधार पर पेश किया गया नाटक को अगर शानदार तरीके से प्रस्तुत किया जाए, तो वह दर्शकों के लिए सुंदर बन जाता है। नाट्य शास्त्र में यह भी कहा गया है कि एक आदर्श अभिनेता प्रशिक्षण के साथ अपने अंदर आत्म विकार को प्रोत्साहित करता है।