बंगाली समाज में विजयादशमी के दिन देवी दुर्गा के साथ अन्य महिलाओं को सिंदूर लगाने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है, जिसे सिंदूर खेला के नाम से पहचान मिली हुई है। आइए जानते हैं सिंदूर खेला और सिंदूर से जुड़ी खास बातें।
4500 साल पहले हुई थी सिंदूर खेला की शुरुआत
ऐसी मान्यता है कि दुर्गा पूजा के दौरान 10 दिनों के लिए देवी दुर्गा अपने बच्चों के साथ अपने मायके आती हैं। इनमें नौ दिनों तक देवी दुर्गा की पूजा होती है और दसवें दिन सिंदूर से श्रृंगार करते हुए उन्हें मिठाई खिलाकर उनका आशीर्वाद लिया जाता है। दशमी के दिन वे अपने पति शिव के साथ अपने घर चली जाती हैं। हालांकि दशमी के दिन पान के पत्तों से देवी दुर्गा के गालों के साथ मांग और माथे पर सिंदूर लगाने की रस्म को सिंदूर खेला के नाम से जाना जाता है, जिसमें देवी दुर्गा से आशीर्वाद पाने के बाद सभी बंगाली महिलाएं एक-दूसरे के मांग और गालों पर सिंदूर लगाती हैं। ऐसा माना जाता है कि पश्चिम बंगाल में सिंदूर खेला की शुरुआत आज से 4500 साल पहले हुई थी। देवी दुर्गा के साथ विराजमान देवी सरस्वती, देवी लक्ष्मी और उनके पुत्रों कार्तिकेय और गणेश की पूजा के बाद उन महिलाओं ने विसर्जन से पहले देवी दुर्गा का श्रृंगार किया और उसी सिंदूर को अपने माथे पर सजा लिया। उन्हें विश्वास था कि इस तरह देवी दुर्गा प्रसन होकर उन्हें सौभाग्य का वरदान देंगी।
कुंआरी कन्या, विधवा और ट्रांस जेंडर भी होते हैं शामिल
बंगाली महिलाओं के लिए ‘सिंदूर खेला’ सिर्फ रस्म नहीं, बल्कि देवी दुर्गा का आशीर्वाद है, जो उनके माथे पर सजता है। साथ ही यह दायित्व भी है, जो देवी दुर्गा उन सभी महिलाओं को देकर जाती हैं, जिन्होंने उस सिंदूर को अपने माथे पर धारण किया है। बंगाली परंपरा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि विदाई के दौरान देवी दुर्गा, अपने माथे पर लगे सिंदूर के जरिए उन तमाम विवाहित महिलाओं को अपना दायित्व सौंपते हुए कहती हैं कि जिस तरह मैं सभी की रक्षा करती हूँ, उसी तरह आज से तुम्हें भी अपने परिवार की रक्षा करनी है। आम तौर पर विजयादशमी या दशमी के दिन मनाए जानेवाले सिंदूर खेला को लेकर कुछ क्षेत्रों में अलग-अलग रिवाज हैं। कहीं महासप्तमी के दिन इस रस्म को मनाया जाता है, तो कहीं महाअष्टमी को इसे मनाते हैं। हालांकि दिन चाहे कोई भी हो, लेकिन उसका भाव और लोकप्रियता वही रहती है। हालांकि अब इस रस्म को लेकर कोलकाता में महिलाओं ने क्रांतिकारी कदम उठाते हुए इन आयोजनों में कुंआरी कन्याओं के साथ विधवाओं और ट्रांस जेंडर कम्युनिटी को भी शामिल कर लिया है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए।
काफी पुराना है सिंदूर का इतिहास
आम तौर पर भारतीय समाज में पारंपरिक सोच रखनेवाले सिंदूर को सुहाग का चिह्न मानते हैं, जिसे विवाह के दौरान पति द्वारा मांग में भरे जाने के बाद ही लगाया जा सकता है, लेकिन भारतीय ग्रंथों में इस बात का कोई ठोस सबूत अब तक नहीं मिला है। सिर्फ यही नहीं बलूचिस्तान के मेहरगढ़ में पुरातात्विक खुदाई के दौरान कुछ ऐसी मूर्तियां मिली हैं, जिनके माथे पर सिंदूर लगा था। ऐसा माना जा रहा है कि यह मूर्तियां आज से 5 हजार वर्ष पुरानी हैं। हालांकि उनके सिंदूर से इस बात का पता नहीं लगाया जा सका है कि ये सिंदूर उन्होंने सुहाग के प्रतिक के तौर पर लगाया है या मात्र श्रृंगार के तौर पर, क्योंकि हमारे भारतीय ग्रंथों के अनुसार महिलाओं के लिए बताए गए सोलह श्रृंगार में एक नाम सिंदूर का भी है। कुछ पौराणिक कहानियों और ग्रंथों में भी सिंदूर का जिक्र मिलता है, जिससे ये बात सहज ही समझी जा सकती है कि सिंदूर का इतिहास मानव जाति के इतिहास जितना ही पुराना है।
सिंदूर से जुड़ी मान्यताएं
अगर यह कहें तो गलत नहीं होगा कि जिस तरह देवी दुर्गा, महिलाओं की स्वतंत्रता और सत्ता का प्रतिक हैं, उसी तरह सिंदूर शक्ति, उल्लास और निष्कपट अभिव्यक्ति का प्रतिक है। हालांकि कुछ भारतीय ग्रंथ, सिंदूर के सम्मान को देवी लक्ष्मी से भी मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी पर देवी लक्ष्मी को पांच जगह स्थान दिया गया है, जिनमें से एक महिलाओं का मस्तक भी है। यही वजह है कि महिलाओं को मस्तक पर सदैव सिंदूर धारण करने की सलाह दी जाती है। इससे देवी लक्ष्मी प्रसन्न होकर उनके परिवार को सुख-सौभाग्य के साथ धन-संपत्ति का आशीर्वाद भी देती हैं। यही वजह है कि भारत के कुछ क्षेत्रों में नवरात्रि और दीपावली के दौरान कहीं पति अपनी पत्नी की मांग में सिंदूर लगाता है, तो कहीं धार्मिक प्रयोजनों में महिलाएं एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं। सिंदूर से जुड़ी भारतीय मान्यताएं और परंपराएं कई हैं, किंतु इन सबका सार एक ही है, और वो है सम्मान, जो इसे धारण करनेवाले से जुड़ा है।
सिंदूर में मिला पारा महिलाओं को तनावमुक्त करता है
धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं से इतर सिंदूर के कुछ वैज्ञानिक लाभ भी बताए गए हैं। सिंदूर में आम तौर पर पारा अधिक मात्रा में होता है, जिससे इसे लगाने से शीतलता मिलती है और मस्तिष्क तनावमुक्त रहता है। इसके अलावा इसे लगाने से चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पड़ती और मन शांत रहता है। इसके अलावा मांग में जहां सिंदूर लगाया जाता है, वह स्थान ब्रह्मरंध्र और अध्मि के ठीक ऊपर होता है, जो सिंदूर धारण करनेवाले को बुरे प्रभावों से भी बचाता है। शादी के बाद इसे लगाने का एक तर्क यह भी दिया जाता है कि शादी के बाद वैवाहिक जिम्मेदारियों का बोझ अचानक महिलाओं पर आ जाता है, जिसका सीधा असर उनके मस्तिष्क पर पड़ता है और वे तनावग्रस्त हो जाती हैं। हालांकि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं पर विवाह का असर इसलिए भी ज्यादा पड़ता है, क्योंकि वे अपने घर से किसी और के घर आती हैं और उनसे काफी उम्मीदें की जाती हैं। ऐसे में मांग में लगा सिंदूर उन्हें हर तरह के तनाव से मुक्त करता है। हालांकि इसमें दो राय नहीं है कि नए घर में नए लोगों के साथ नई गृहस्थी बसाना और उसमें सभी की खुशियों का ख्याल रखते हुए खुश नजर आना काफी चुनौतीपूर्ण है।
सिंदूर के औषधीय गुण
सिंदूर को कमीला, रोरी, कपीला, कमूद, रैनी और सेरिया इन सभी नामों से जाना जाता है, जो मूल रूप से 20 से 25 फिट ऊंचे वृक्ष में फली गुच्छों के रूप में लगते हैं। मटर के आकार की यह फलियां शरद ऋतु में पूरे वृक्ष को अपने अधिकार में ले लेती हैं। गौरतलब है कि फली के अंदर सरसों के आकार के दाने होते हैं, जो लाल रंग के परागों से ढंके होते हैं। हल्का सा मसलते ही यह अपना रंग छोड़ देते हैं। इसे आम तौर पर सिंदूर, रोरी या कुमकुम की तरह इस्तेमाल किया जाता है। आम तौर पर पारंपरिक सिंदूर हल्दी, फिटकरी, चूना, लाल चंदन पाउडर, केसर और अन्य हर्बल सामग्रियों से बनाई जाती है, लेकिन बाजार में मिलनेवाले सिंदूर में सीसा मिलाया जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। पारंपरिक सिंदूर का उपयोग मूल रूप से चेहरे के मेकअप बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, जिनमें हल्दी, चूना, घी और बुझा हुआ चूना, जिसे कुमकुमा भी कहते हैं, शामिल हैं। इसके अलावा प्राकृतिक सिंदूर में पारा सल्फाइड के साथ पारे के अन्य यौगिक भी होते हैं, जिसके कारण यह जहरीला होता है। ऐसे में सिंदूर का इस्तेमाल करते समय काफी सावधानी बरती जानी चाहिए।