बच्चे हों या बड़े, सभी के लिए पचने में आसान और पोषण से भरपूर खिचड़ी आपको भारतीय आहार परंपरा की भले ही एक आम डिश लगती हो, लेकिन सच तो यह है कि भारतीय संस्कृति से इसका रिश्ता काफी पुराना है। आइए मकर संक्रांति के अवसर पर जानते हैं खिचड़ी से जुड़ा भारतीय संस्कृति का इतिहास।
सामूहिकता का प्रतीक है ‘खिचड़ी’
आम तौर पर खिचड़ी, चावल के साथ किसी भी किस्म की दाल और सब्जी को मिलाकर बनाई जाती है। हालांकि भारत के कई प्रांतों में बाजरा, मकई और ज्वार के कूटे हुए अंश को भी दाल मिलाकर खिचड़ी बनाने की परंपरा है। विशेष रूप से मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी खाने की परंपरा है और इसका सिर्फ धार्मिक ही नहीं सांस्कृतिक और वैज्ञानिक महत्व भी है। इसके सांस्कृतिक महत्व की बात करें तो मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी खाने की परंपरा विशेष रूप से कृषि आधारित समाज में शुरू हुई थी, क्योंकि यह समय फसल कटाई का होता है और पहले अनाज के रूप में किसान नए चावल और दाल से खिचड़ी बनाते थे, और ये परंपरा आज भी पूरे भारत में मनाई जाती है। तब से लेकर आज तक मकर संक्रांति एक सामूहिक उत्सव के रूप में मनाई जाती है, और खिचड़ी जैसे आसान और पौष्टिक भोजन को बनाकर, इसे सबके साथ साझा किया जाता है। उत्तर प्रदेश और बिहार में आज भी पड़ोसियों के अलावा बहन-बेटियों के घर खिचड़ी स्वरूप दाल, चावल, सब्जी, चिवड़ा, गुड़, तिल गुड़ और कुरमुरे के लड्डू भेंट दिए जाते हैं।
‘खिचड़ी’ का धार्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक महत्व
धार्मिक मान्यता के अनुसार मकर संक्रांति के दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, जिसे शुभ और पवित्र माना जाता है। इस दिन दान और पूजा का विशेष महत्व होता है। ऐसे में खिचड़ी को न सिर्फ सात्विक भोजन माना जाता है, बल्कि भोग स्वरूप भगवान को भी चढ़ाया जाता है। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार में, इस दिन खिचड़ी बनाकर भगवान सूर्य और शनि को अर्पित की जाती है और सिर्फ यही नहीं मकर संक्रांति के अलावा हर शनिवार को भी खिचड़ी बनाने की परंपरा है। इसके वैज्ञानिक महत्व की बात करें तो सर्दियों के मौसम में शरीर को गरमाहट और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऐसे में चावल, दाल, घी और मसालों से बनी खिचड़ी शरीर को पोषण और गर्मी प्रदान करती है। खिचड़ी पचने में हल्की होने के साथ-साथ डाइजेशन को भी ठीक रखती है। गौरतलब है कि भारतीय संस्कृति के अनुसार कृषि समाज में शुरू हुई खिचड़ी की परंपरा कब शुरू हुई थी, इसका ठीक-ठीक समय तो नहीं बताया जा सकता, लेकिन समझने के लिए ये बात काफी होगी कि इसका इतिहास महाभारत काल से भी पुराना है।
महाभारत काल में भी रहा है ‘खिचड़ी’ का महत्व
महाभारत के अनुसार वनवास के दौरान सिमित संसाधनों में द्रौपदी ने न सिर्फ पांडवों के साथ माता कुंती के लिए खिचड़ी बनाई थी, बल्कि सबके भोजन पश्चात खिचड़ी के एक बचे हुए चावल को खाकर कृष्ण ने भूखे और क्रोधित दुर्वासा की भूख को अपनी माया से शांत कर दिया था। सिर्फ यही नहीं महाभारत काल के अंतर्गत ही कृष्ण के परम मित्र सुदामा की कहानी में भी खिचड़ी का उल्लेख मिलता है। ऐसा माना जाता है कि जब सुदामा, कृष्ण से मिलने वृंदावन से द्वारका जा रहे थे, तो उन्हें भेंट स्वरूप देने के लिए उन्होंने खिचड़ी और चावल की दो पोटली ली थी, लेकिन रास्ते में बंदरों की टोली ने खिचड़ी की पोटली उनसे छीन ली और वे सिर्फ चावल लेकर कृष्ण के पास गए। इन्हीं चावलों को खाकर कृष्ण ने सुदामा को दो लोक दान में दे दिया था। गौरतलब है कि संस्कृत के ‘खिच्चा’ शब्द से अस्तित्व में आई खिचड़ी को यदि अनेकता में एकता का प्रतीक कहें तो कतई गलत नहीं होगा। जिस तरह चावल, दाल, मसाले और विविध सब्जियों के मिलने से स्वादिष्ट ‘खिचड़ी’ बनती है, उसी तरह ये अपने स्वाद से पूरे भारत को आपस में जोड़ देती है।
सेल्यूकस और इब्न बतूता की कहानियों में भी शामिल है ‘खिचड़ी’
ईसा पूर्व 305 से 303 के बीच भारत अभियान के दौरान अपनी यात्रा का उल्लेख करते हुए यूनानी राजा सेल्यूकस ने कहा था कि भारतीय लोग दाल और चावल को मिलाकर एक व्यंजन बनाते हैं, जो काफी स्वादिष्ट होता है और उसे वे बहुत चाव से खाते हैं। इसी तरह 1350 के आस-पास भारत की यात्रा पर आए इब्न बतूता ने चावल और मूंग दाल से बनी खिचड़ी का उल्लेख ‘किश्री’ नाम से किया है। उन्होंने लिखा है, भारत के लोग मुंज (मूंग) को चावल के साथ उबालकर उसे मक्खन के साथ हर रोज नाश्ते में खाते हैं। इसे वे किश्री कहते हैं। इब्न बतूता के अलावा खिचड़ी का उल्लेख 15वीं शताब्दी में भारत की यात्रा करनेवाले एक साहसी रूसी यात्री अफानसी निकितन ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में की है। हालांकि सदियों से भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही खिचड़ी का बोलबाला भारतीय रसोईघर के अलावा मुगल रसोई और ब्रिटिश राजपरिवार में भी रहा है।
मुगल बादशाहों की भी पहली पसंद रही है ‘खिचड़ी’
ऐसा माना जाता है कि खिचड़ी को नवाबी शान मुगलों ने दी थी। ‘दाल पुलाव’ के नाम से मशहूर खिचड़ी दिल्ली के शहंशाह अकबर को बेहद पसंद थी। हालांकि बचपन में सुनी अकबर-बीरबल की दिलचस्प कहानियों में एक कहानी आपने ‘बीरबल की खिचड़ी’ भी सुनी होगी। हालांकि बीरबल ने खिचड़ी बनाई थी, या नहीं इसके तथ्य तो नहीं मिलते, लेकिन हां अकबर के एक दरबारी अबुल फजल के साथ खिचड़ी से जुड़ा एक दिलचस्प वाकया इतिहास की किताबों में जरूर दर्ज है। इसके अनुसार अबुल फजल के घर हर रोज 30 मन यानी 1200 किलो खिचड़ी बनती थी, और कोई भी उनके घर आकर 24 घंटे इसका आनंद ले सकता था। गौरतलब है कि अकबर के अलावा मुगल बादशाह जहांगीर, औरंगजेब और बहादुर शाह जफर को भी खिचड़ी बेहद पसंद थी। इनमें जहांगीर को जहां किशमिश-पिस्ते से बनी मसालेदार खिचड़ी पसंद थी, वहीं औरंगजेब को मछली और उबले अंडे से बनी आलमगिरी खिचड़ी और बहादुर शाह जफर को मूंग दाल की खिचड़ी पसंद थी। हालांकि बाद में खिचड़ी में गोश्त शामिल कर इसे ‘खिचड़ा’ नाम दे दिया गया, जो आज भी मुस्लिम समुदाय में बड़े शौक से बनाया और खाया जाता है।
‘खिचड़ी’ के साथ बाबा गोरखनाथ ने भी मनाया था उत्सव
मुगल रसोई के अलावा ब्रिटिश राज परिवार में महारानी विटोरिया को भी खिचड़ी बेहद पसंद थी, लेकिन सिर्फ चावल और मसूर दाल से बनी हुई, जिसका सूप वे अक्सर पीती थीं। माना जाता है कि भारतीय खिचड़ी से उनकी पहचान उनके ऊर्दू टीचर मुंशी अब्दुल करीम ने करवाई थी। भारतीय संस्कृति की बात करें तो नाथ संप्रदाय के जनक बाबा गोरखनाथ और खिचड़ी से जुड़ी एक कहानी का जिक्र मिलता है। कहते हैं, जब खिलजी ने भारत पर आक्रमण किया था, तो उसका मुंह-तोड़ जवाब देने के लिए बाबा गोरखनाथ के नेतृत्व में कई नाथ योगी भी युद्ध का हिस्सा बन गए थे। हालांकि दिन-रात चल रही लड़ाई में उन्हें भोजन बनाने का समय नहीं मिलता था, तो इसे देखते हुए बाबा गोरखनाथ ने लोगों को दाल-चावल और सब्जियों को साथ पकाने की सलाह दी, जिससे वे कम समय में पौष्टिक भोजन पा सकें। मकर संक्रांति के दिन खिलजी की हार का ऐलान होते ही खिचड़ी बनाकर बाबा गोरखनाथ ने न सिर्फ खुशी का इजहार करते हुए इसे आस-पास के लोगों में बंटवाया था, बल्कि इस उत्सव को भी मनाया था।