गुड़ी पड़वा मुख्य तौर पर महाराष्ट्र में हिंदू नववर्ष के तौर पर मनाया जाता है। गुड़ी पड़वा दो शब्दों से मिलकर बना है। गुड़ी शब्द का अर्थ होता है ‘विजय पताका’ और पड़वा का अर्थ होता है ‘प्रतिपदा तिथि’ से। ऐसी मान्यता है कि गुड़ी पड़वा का पर्व मनाने से घर में सुख और समृद्धि आती है और साथ ही नकारात्मक भी दूर होती है। गुड़ी पड़वा का पर्व खास तौर पर कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में मनाया जाता है। इस दिन महाराष्ट्र में नौवारी साड़ी पहनने के साथ खान-पान में पूरन पोली का खास महत्व है। आइए विस्तार से जानते हैं इस बारे में।
गुड़ी पड़वा पर नौवारी साड़ी पहनने का महत्व
महाराष्ट्र में कोई तीज-त्यौहार हो या फिर कोई खास मौका नौवारी साड़ी शादी से लेकर घर में होने वाले हर बड़े-छोटे त्योहार की रौनक होती है। नौवारी साड़ी के साथ इसे ‘काष्ठा साड़ी’ भी कहा जाता है। बता दें कि नौवारी साड़ी को धोती की तरह पहनते हैं और काष्ठ शब्द का अर्थ होता है पीछे की तरफ से बांधी जाने वाली साड़ी। इसे नौवारी साड़ी इसलिए भी कहते हैं, क्योंकि यह साड़ी आमतौर पर नौ गज के कपड़े का उपयोग करके पहनी जाती है। अगर आप महाराष्ट्र का इतिहास देखती हैं, तो रानी लक्ष्मीबाई ने भी नौवारी साड़ी के साथ युद्ध के मैदान में विजय की पताका लहराई थी। नौवारी साड़ी को न केवल वेशभूषा का एक तरीका माना जाता है, बल्कि इसे महाराष्ट्र की शान, शक्ति और साहस के साथ समानता के प्रतीक के तौर पर भी देखा जाता है। इसे एक तरह से ‘अखंड वस्त्र’ भी कहते हैं, एक ऐसा वस्त्र जिसके साथ किसी अन्य तरह के वस्त्र की आवश्यकता नहीं पड़ती है। नौवारी के पल्लू को पादार कहते हैं।
जानें नौवारी साड़ी का इतिहास
जैसा कि हम आपको पहले ही बता चुके हैं कि नौवारी साड़ी का इतिहास काफी सालों पुराना है। धोती की तरह बांधी जाने वालीं इस साड़ी को पुरुषों और महिलाओं द्वारा पहना जाता था। इसे एक तरह से युद्ध के लिए आरामदायक कपड़ा माना जाता था। ऐसे में महिलाओं और पुरुष दोनों ही धोती की तरह बांध जाने वाली साड़ी को आरामदायक मानते थे। देखा गया कि महिलाओं को भी उनके रोजमर्रा का काम करने के लिए आरामदायक कपड़े की जरूरत है, इसी के बाद पुरुषों की धोती से प्रेरणा लेते हुए नौवारी साड़ी का जन्म हुआ। उल्लेखनीय है कि महिलाएं भी युद्ध में भाग लेने के लिए नौवारी साड़ी को काफी उपयोगी मानती थी, क्योंकि नौवारी साड़ी में बिना किसी बाधा के युद्ध में शामिल होना आसान होता था। कपड़ों को लेकर युद्ध के दौरान किसी भी तरह की अड़चन नहीं आती थी। इस वजह से इसे एक तरह से युद्ध के लिए मिलिट्री यूनिफॉर्म भी कहा जाता है। उस दौरान महिलाओं को घुड़सवारी करने के साथ हथियार भी संभालने होते थे। ऐसे में नौवारी साड़ी उनके लिए काफी सहज और सहूलियत लेकर आती थी। समय के साथ नौवारी साड़ी में भी कई तरह के बदलाव आए, कॉटन के बाद सूती नौवारी साड़ी का प्रयोग अधिक होने लगा और फिर त्योहार और शादी के मौके पर सिल्क से बनी नौवारी साड़ी का उपयोग अधिक होने लगा।
नौवारी साड़ी से जुड़े रोचक तथ्य
नौवारी साड़ी को कई अलग-अलग तरीके से पहना जाता है। इसे खास तौर पर पारंपरिक मराठी साड़ी और पेशवाई मराठी साड़ी के तौर पर पहना जाता है। यह भी जान लें कि नौवारी साड़ी का इतना अधिक महत्व है कि महाराष्ट्र के लोक नृत्य लावणी के नृत्य के लिए भी नौवारी साड़ी पहनी जाती है, वहीं इसे अलग तरह से पहने का रिवाज भी है। कई महिलाएं इसे एंकल लेंथ( नीचे तक) तक पहनती हैं, तो कई महिलाएं इसे केवल घुटने के लेंथ( घुटने तक) में इस साड़ी को पहनती हैं। कोली महिलाएं नौवारी साड़ी को दो हिस्सों में पहनती हैं। एक हिस्से को कमर में बांधती हैं और वहीं दूसरे हिस्से से महिलाएं शरीर के ऊपरी हिस्से को कवर करती हैं।
पूरन पोली प्राचीन नुस्खा
केवल गुड़ी पड़वा ही नहीं, बल्कि हर खास मौके पर महाराष्ट्र में पूरन पोली जरूर बनाई जाती है। आप इसे महाराष्ट्र की खास क्वीन डिश भी कह सकती हैं। इसे एक तरह से महाराष्ट्र का सबसे प्राचीन व्यंजन माना जाता है, साथ ही इसका उल्लेख कई सारी पुरानी लिपियों में भी किया गया है। मिली जानकारी अनुसार संस्कृत लिपि ‘मानसोल्लासा’ में लिखा गया है कि 12 वीं शताब्दी में कर्नाटक पर शासन करने वाली कल्याणी चालुक्य राजा सोमेश्वर तृतीय के जरिए रचित लिपि में इसे ऐतिहासिक व्यंजन के तौर पर बताया गया है।
इतिहास के पन्नों में पूरन पोली का जिक्र
इतिहासकार केटी अचाया ने अपनी किताब ‘द स्टोरी ऑफ आवर फूड’ में भी पूरन पोली का जिक्र किया है। यह भी जान लें कि 13 वीं शताब्दी में श्री ज्ञानेश्वर के जरिए लिखी गई ‘ज्ञानेश्वरी’ में भी पूरन पोली के बारे में बताया गया है। 16 वीं शताब्दी में भाव मिश्रा द्वारा लिखी गई आयुर्वेदिक लिपि ‘भावप्रकाश’ में भी पूरन पोली के आयुर्वेदिक लाभ के बारे में बात की गई है। दिलचस्प है कि भारत के विभिन्न भागों में पूरन पोली को अलग-अलग नामों से भी लोकप्रियता हासिल हुई है। महाराष्ट्र में इसे पूरन पोली, कोंकणी में इसे पोली या फिर उबत्ती कहा जाता है। गुजराती में इसे पूरन पुरी और वेदमी, तेलुगु में बक्शम और ओलिगा, कर्नाटक में होलीगे, मलयालम में इसे पायसाबोल्ली और बोल्ली के साथ तमिल में इसे ‘उप्पिट्टू’ के नाम से जाना जाता है। उल्लेखनीय है कि पूरन पोली शब्द का प्रयोग 400 साल पहले से इतिहास के पन्नों और खान-पान में चला आ रहा है। यहां तक कि 1000 साल पुरानी लिपि ‘केकावली’ में भी पूरन पोली के स्वाद का जिक्र है। यह भी माना गया है कि मुगलों से युद्ध करने के बाद जब छत्रपति शिवाजी महाराज की जीत हुई थी, तब शिवाजी महाराज ने पहली बार गुड़ी पड़वा का त्योहार मनाया था, उसी वक्त से महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा नकारात्मकता को हटाकर सकारात्मकता के प्रवेश के तौर पर मनाया जाता है, जहां पूरन पोली के साथ गुड़ी पड़वा का मीठा स्वाद लिया जाता है।
पूरन पोली सेहत के लिए लाभदायक
आर्युवेद में पूरन पोली को सेहत के लिए लाभदायक बताया गया है। इसे गेहूं की रोटी, चना और गुड़ को मिलाकर बनाया जाता है। गुड़ और चना को प्रोटीन का अच्छा स्त्रोत माना जाता है। इसे सेहत के लिए लाभकारी और पोष्टिक भी माना जाता है। जान लें कि पूरन पोली प्रोटीन और फोलिक एसिड से युक्त होता है। इसमें भरपूर एंटीऑक्सीडेंट के साथ उच्च मात्रा में फाइबर भी होता है। शरीर को कई तरह के लाभ देने के साथ पाचन क्रिया के लिए पूरन पोली मीठे में दूसरी मिठाई की अपेक्षा एक अच्छा पर्याय माना गया है। पूरन पोली संस्कृत शब्द ‘पूरनपोलिका’ से बना हुआ है। पूरन शब्द का अर्थ होता है ऊपर तक भरना यानी कि पूरा करना। ऊपर तक भरना भोजन की दृष्टि से संपूर्ण माना जाता है। पूरन पोली में जिंक, फोलेट और कैल्शियम जैसे कई सारे खनिज और विटामिन्स होते हैं। गुड और चीनी का इस्तेमाल होने से इसे ऊर्जा का प्रमुख स्त्रोत माना जाता है। यह जान लें कि सेहत के नजरिए ये भी इस पर्व का खास महत्व है। यही वजह है कि गुड़ी पड़वा के दिन बनाए जाने वाले व्यंजन खास तौर पर सेहत के लिए सही माना गया है। चाहे वह आंध्र प्रदेश में बांटा जाने वाला प्रसाद पच्चड़ी भी है। माना जाता है कि पच्चड़ी का सेवन सेहत के लिए लाभकारी होता है।
गुड़ी पड़वा से जुड़ी रोचक जानकारी
इतिहास के पन्नों में गुड़ी पड़वा से जुड़ी कई सारी रोचक जानकारियां भी मौजूद हैं। यह माना गया है कि गुड़ी पड़वा राजा शालिवाहन की जीत का प्रतीक है, जो कि प्राचीन भारत के एक लोकप्रिय राजा सातवाहन थे। महाराष्ट्र के अलावा गुड़ी पड़वा मणिपुर में भी मनाया जाता है। इसे कश्मीर में भी एक बड़े समुदाय के द्वारा मनाया जाता है। पंजाब में गुड़ी पड़वा का त्योहार ‘बैसाखी’ के तौर पर मनाया जाता है। असम में इसे ‘बिहू’ के तौर पर और तमिलनाडु में इसे ‘पुटुहंडु’ के तौर पर मनाया जाता है। खाने में पूरन पोली के अलावा श्रीखंड का भी महत्व इस त्योहार की शोभा को बढ़ा देता है।