दुर्गा पूजा सिर्फ मां की आराधना का दिन नहीं, बल्कि सामूहिक रूप से हर्षोल्लास मनाने और एक दूसरे पर प्यार जताने का भी दिन है। खासतौर से इस पूजा की खासियत इसलिए भी है कि महिलाएं 9 दिन जिस तरह से सज-धज के तैयार होती हैं, 9 दिन 9 रंग के कपड़ों में उनकी रंग-बिरंगी जिंदगी का झरोखा मिलता रहता है। ऐसे में 9 दिनों की पूजा के बाद, दसवें दिन, यानी दशमी या विजयदशमी के लिए, पश्चिम बंगाल में जिस खूबसूरती से सिंदूर खेला किया जाता है, महिलाओं के माथे पर सजा लाल रंग, उनके विजय और सुहाग का प्रतीक होता है, आखिर क्यों मां की पूजा में सिंदूर खेला का अपना महत्व और इतिहास है। आइए इसके बारे में विस्तार से जानें। साथ ही सिंदूर को लेकर पूरे भारत के अलग-अलग प्रांत में क्या मान्यताएं हैं, यह भी बताते हैं।
पश्चिम बंगाल का सिंदूर खेला
पश्चिम बंगाल में विशेष रूप से दुर्गा पूजा के अंतिम दिन, यानी दसवें दिन मां के विसर्जन से पहले शादीशुदा महिलाएं एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं, यह माहौल पूर्ण रूप से होली वाला ही एहसास दिलाता है। इस परंपरा को लेकर कई धार्मिक मान्यताएं हैं, एक मान्यता यह है कि पिछले 450 से भी अधिक समय से पश्चिम बंगाल में यह रस्म निभाई जा रही है। सिंदूर खेला की रस्म के बाद, मां दुर्गा की विदाई की जाती है और उस वक्त भी एक खास परंपरा निभाई जाती है। सिंदूर खेला में महिलाएं खासतौर से पान के पत्तों से मां के गालों को स्पर्श किया जाता है, इसके बाद उनकी मांग को सिंदूर से भरती हैं महिलाएं। इसके बाद मां को पान और मिठाई का भोग लगाया जाता है और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। इसमें देवी बॉरन की प्रथा होती है। इस परंपरा को लेकर यह मान्यता है कि मायके से मां की अब विदाई होगी और वह अपने ससुराल जाएंगी, तो मां को विदा करते हुए जिस तरह से चीजें दी जाती हैं, वैसे ही मां दुर्गा की विदाई के समय भी उन्हें पोटली में शृंगार का सामान और खाने-पीने की चीजें रख दी जाती हैं। देवलोक पहुंचने में उन्हें कोई कष्ट न हो, इस बात की मान्यता होती है। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल के सिंदूर भी पूरे भारत में लोकप्रिय हैं। पूरे भारत में महिलाएं पश्चिम बंगाल का ही सिंदूर अपनी मांग में सजाना चाहती हैं, क्योंकि वहां यह शुद्धता के साथ मिलता है। यहां का लाल सिंदूर, जिसे कुमकुम भी कहा जाता है, पूरे भारत में महिलाएं लगाना पसंद करती हैं। शादी में भी लड़कियां अपने हाथों में सिंदूर से भरी हुई सिंदूर दानी लेकर जाती है और हर पर्व त्यौहार में उससे ही सिंदूर लगाती हैं।
बिहार और उत्तर प्रदेश में नारंगी सिंदूर
बिहार और उत्तर प्रदेश में अमूमन तो महिलाएं लाल सिंदूर ही लगाती हैं, लेकिन पर्व-त्यौहार में खासतौर से नारंगी रंग का ही सिंदूर लगाया जाता है। शादी में भी नवविवाहिता की मांग सिंदूर से भरी जाती है। यह सिंदूर मान्यताओं के अनुसार मां पार्वती का आशीर्वाद माना जाता है। बिहार में भी सिंदूर दानी साथ रखने की परंपरा है, इसे यहां सिंधौरा या सिंदौरा कह कर बुलाया जाता है और महिलाएं छठ या किसी भी त्यौहार में नाक पर से इसी सिंदूर दानी से सिंदूर लगाती हैं। कई जगहों पर गुलाबी सिंदूर भी लगाया जाता है। इसे भखरा सिंदूर भी कहा जाता है। बिहार में जो नारंगी सिंदूर लगाया जाता है, खासतौर से नवविवाहिता की जो मांग भरी जाती है, उसके पीछे की मान्यता यह है कि बिहार में हमेशा ही लड़कियों का सिंदूर दान एकदम सुबह में किया जाता है। वह समय सुबह का पौ फटने को होता है। तो इस सिंदूर की तुलना सूर्योदय के समय होने वाली उस लालिमा से की जाती है, जो नारंगी रंग की दिखाई देती है और जो यह दर्शाती हैं कि सूरज जिस तरह खुशहाली लेकर आते हैं, उसी तरह ये सिंदूर दुल्हन की जिंदगी में नया सवेरा लेकर आए। बता दें कि इनके अलावा, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश में भी खासतौर से सिंदूर लगाने की परंपरा होती है।
आयुर्वेद के अनुसार सिंदूर
आयुर्वेद की मानें, तो पारंपरिक सिंदूर चेहरे के लिए उपयोग की जाने वाली प्राकृतिक सामग्री से बनाया जाता है और सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला पारंपरिक सिंदूर हल्दी और नींबू के रस से बनाया जाता है। पहले इसे घर पर ही बना लिया जाता था। बाद में बाजार में उपलब्ध होने की वजह से लोगों ने घरों में इसे बनाना छोड़ दिया। यहां यह भी बता दें कि सिंदूर लाल चंदन पाउडर और केसर आदि से बनाया जाता है।
वैज्ञानिक महत्व भी है सिंदूर का
सिंदूर पर शोध करने वाले जानकारों का यह भी मानना है कि सिंदूर लगाने के कई वैज्ञानिक महत्व भी हैं। यह चिंता और तनाव को कम करता है। साथ ही यह एकाग्रता की शक्ति को बढ़ाता है। खासतौर से जहां पर सिंदूर लगायी जाती है, उसे पिट्यूटरी ग्लैंड कहते हैं, जो सभी इमोशंस (भावनाओं) का केंद्र है।