हरेला संस्कृति के बारे में आपको जरूर जानना चाहिए कि यह उत्तराखंड के महत्वपूर्ण पर्व में से एक माना जाता है। आइए जानते हैं इसके बारे में विस्तार से।
क्या है यह पर्व
सावन के महीने में मनाया जाने वाला यह पर्व खास मायने रखता है, इस पर्व की खास बात यह है कि काफी धूमधाम से यह पर्व मनाया जाता है। उत्तराखंड में मनाया जाने वाला यह लोकपर्व 'हरेला' सावन के आने का संकेत माना जाता है। इस पर्व को मनाने की सबसे खास बात यह है कि इसमें फसल के लहलहाने की कामना की जाती है। यह खुशहाली का प्रतीक माना जाता है। इस पर्व में लोग खूब गाना बजाना करते हैं और वृक्षारोपण करते हैं। साथ ही इस दिन खूब सारे पौधे लगाए जाते हैं। इसी दिन को लेकर एक खास मान्यता है कि इस दिन अगर कोई टूटी हुई टहनी भी रोप दे, तो उसमें जीवन आ जाता है। इसे हरियाली का प्रतीक माना जाता है। इसमें लोग बीजों के संरक्षण पर भी जोर देते हैं।
क्या है रीति-रिवाज
इस दिन के बारे में बात करें, तो यह पर्व उत्तरखंड के कुमाऊं क्षेत्र में खासतौर से मनाया जाता है। साथ ही इस दिन लोग कान के पीछे हरेले के तिनके रखते हैं, जिन्हें शुभ माना जाता है। आपको बता दें कि हरेला का मतलब हरियाली से ही है। यह बात तो जगजाहिर है उत्तराखंड कृषि पर बहुत हद तर्क निर्भर करता है और इसलिए इस पर्व को इसी आधार को मान कर बनाया जाता है। साथ ही साथ यह जानना भी इस दिन के महत्व को बढ़ा देता है कि बीजों के संरक्षण को भी इस दिन महत्व दिया जाता है और कई पूर्वज इसे मनाते हुए आ रहे हैं।
क्यों कहते हैं इसे हरेला
इस दिन की खासियत यह होती है कि इस दिन के मुख्य दिन की शुरुआत होने से ठीक 9 दिनों पहले ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती है। दरससल, 9 दिन पहले हर घर में मिट्टी या बांस की टोकरी में इसे बोया जाता है, फिर फिर इसमें एक पर परत मिट्टी की रखी जाती है, फिर दूसरे में सात अनाज जैसे गेहूं, सरसों, जौं, मक्का, मसूर, रखी जाती है। फिर इसको छाव में रखा जाता है। फिर पांचवें दिन इसकी गुड़ाई भी की जाती है। फिर 9 दिन में अनाज की बाली जाती हैं। मान्यता है कि जितनी ज्यादा बालियां, उतनी अच्छी फसल होती है।