वर्ष 1950 में पारित हुए भारतीय संविधान के निर्माण में लगभग 299 लोगों ने अपनी अहम भूमिका निभाई थी, जिनमें 15 महिलाएं थीं। इन महिलाओं ने अपनी उपस्थिति से भारतीय संविधान के जरिए एक ऐसे भारत का नवनिर्माण किया, जिसमें महिलाओं की भूमिका को भी अहमियत दी गई। आइए जानते हैं उन 15 महिलाओं के बारे में।
सरोजिनी नायडू
भारत की कोकिला कही जानेवाली सरोजिनी नायडू उन महिलाओं में से एक हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। महात्मा गांधी उन्हें प्यार से बुलबुल बुलाते थे। भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष होने के साथ-साथ वे भारतीय राज्यपाल के रूप में नियुक्त होनेवाली पहली महिला भी हैं। संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज के विषय में दिया गया इनका भाषण आज भी काफी चर्चित है। अगर ये कहें तो गलत नहीं होगा कि भारतीय पुनर्जागरण आंदोलन को प्रेरित करते हुए भारतीय महिला के जीवन को बेहतर बनाने में सरोजिनी नायडू की बहुत बड़ी भूमिका रही है।
विजयालक्ष्मी पंडित
संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा बनानेवाली पहली नेता होने के साथ-साथ ब्रिटिश काल में कैबिनेट मंत्रीपद संभालनेवाली भी विजयालक्ष्मी पंडित पहली भारतीय महिला हैं। सिर्फ यही नहीं संयुक्त राष्ट्र संगठन सम्मेलन की एकमात्र महिला प्रतिनिधि होने के साथ वर्ष 1953 में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला और पहली एशियाई अध्यक्ष बनकर उन्होंने इतिहास रच दिया था।
कमला चौधरी
महात्मा गांधी के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी कमला चौधरी ने वर्ष 1930 में गांधीजी के साथ मिलकर सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी की अहिंसक नीतियों से प्रेरित होते हुए उन्होंने ही महिलाओं को एकजुट करते हुए चरखा समितियों का गठन किया था। संविधान का मसौदा तैयार करनेवाली कमला चौधरी जीवन भर साहित्य और राजनीति के माध्यम से महिलाओं के विकास के लिए सक्रिय रहीं। साहित्य सेवा स्वरूप उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में उन्माद, पिकनी, यात्रा और बेल पत्र प्रमुख है।
लीला रॉय
सुभाष चंद्र बोस की करीबी सहयोगी होने के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बहादुर सिपाही लीला रॉय ने महिलाओं को राजनीति में शामिल होने के लिए काफी प्रेरित किया था। वर्ष 1923 के दौरान अपने स्कूली जीवन में ही इन्होने अपने दोस्तों के साथ मिलकर दीपाली संघा की स्थापना की थी, जो राजनितिक चर्चा का विषय बन गया था। उसके बाद 1926 में उन्होंने ढाका और कोलकाता में छत्री संघ नामक एक संघ की स्थापना की, जो मुख्यत: महिला छात्रों के लिए बनाया गया था। ढाका महिला सत्याग्रह संघ के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली लीला रॉय ने नमक कर विरोधी आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई थी। हालांकि संविधान सभा में अपने मुखर व्यक्तित्व से अपनी बात कहनेवाली लीला रॉय ने भारत-पाकिस्तान विभाजन के विरोध में संविधान सभा का त्याग कर दिया था।
सुचेता कृपलानी
वर्ष 1940 में महिला कॉंग्रेस पार्टी की स्थापना करनेवाली सुचेता कृपलानी ने वर्ष 1963 में उत्तर प्रदेश सरकार में पहली महिला मुख्यमंत्री के साथ भारत की भी पहली महिला मुख्यमंत्री बनकर इतिहास रच दिया था।
मालती चौधरी
रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘मीनू’ और महात्मा गांधी की ‘तूफानी’, मालती चौधरी चमकदार ऊर्जा के साथ साहस की भी मिसाल थीं। आजादी की लड़ाई के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन की सक्रिय सदस्या रहीं मालती चौधरी ने हमेशा अत्याचार और असमानता का विरोध किया। इसी के फलस्वरूप उड़ीसा में उन्होंने कमजोर समुदायों के विकास के लिए बाजिरौट छात्रावास की स्थापना की थी। वर्ष 1948 में वे संविधान सभा से एक महत्वपूर्ण सदस्या के रूप में जुड़ी थीं।
एनी मास्कारेन
त्रावणकोर में मंत्री बनी एनी मास्कारेन विधान सभा पद संभालने वाली पहली महिला थीं। संविधान निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाली एनी मास्कारेन ने उस दौरान राजनीति में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व पर चिंता जताई थी। उनका मानना था कि स्वतंत्रता संग्राम की तरह राजनीति में भी महिलाओं का योगदान बराबरी का होना चाहिए, तभी एक स्वस्थ भारत का निर्माण संभव है। संविधान सभा की बहसों के दौरान उन्होंने लोकतंत्र के सुचारू कामकाज के साथ सत्ता के केंद्रीकरण को लेकर भी सवाल उठाए थे। उन्हें यकीन था कि सत्ता का केंद्रीकरण लोकतांत्रिक संस्थानों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा।
हंसा जीवराज मेहता
हंसा जीवराज मेहता ने न सिर्फ संविधान सभा के सदस्य के रूप मे देश के संविधान को आकार दिया था, बल्कि लैंगिक समानता की वकालत करते हुए 1946 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अध्यक्ष बनने के बाद महिलाओं के अधिकारों के लिए भी प्रस्ताव दिया था। इसी के साथ 15 अगस्त, 1947 को भारत की महिलाओं की ओर से पहला राष्ट्रीय ध्वज प्रस्तुत करते हुए उन्होंने नए भारत में महिलाओं की उन्नत भूमिका को साकार किया था। उन्होंने महिलाओं के लिए आरक्षण का विरोध करते हुए कहा था, "हमने जो मांगा है वह सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय और राजनीतिक न्याय है, न कि कोटा और अलग निर्वाचन क्षेत्रों के लिए आरक्षित सीटें।" संविधान सभा के अलावा उन्होंने यूनेस्को बोर्ड के साथ उन्हें बड़ौदा में एमएस यूनिवर्सिटी की पहली कुलपति बनने का भी गौरव प्राप्त है। सिर्फ यही नहीं संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में उनकी नियुक्ति इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण था।
दाक्षायनी वेलायुतम
1946 में संविधान सभा के लिए चुनी गई दाक्षायनी वेलायुतम, केरल के पुलाया समुदाय में जन्मीं पहली और एकमात्र दलित महिला थीं। दलित होने के कारण उन्हें कोचीन और त्रावणकोर में उच्च जातियों से काफी विरोध का सामना करना पड़ा था। गांधीजी और आम्बेडकर के विचारों से प्रेरित दाक्षायनी वेलायुतम दलितों को वास्तविक सुरक्षा प्रदान करनेवाली नैतिक सुरक्षा की पैरोकार थीं। उन्होंने दलितों को एक नया जीवन ढांचा देते हुए न सिर्फ छुआछूत को अवैध और गैरकानूनी बताया था, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 17 का समर्थन भी किया था, जो छुआछूत को खत्म करने की मांग करता है। उन्हें यकीन था कि स्वतंत्र गणराज्य में न सिर्फ दलितों का विकास होगा, बल्कि उन्हें दूसरे नागरिकों की तरह सारी सुविधाएं और स्वतंत्रता भी मिलेगी।
अमृत कौर
वर्ष 1930 में महात्मा गांधी के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन का हिस्सा रहीं अमृत कौर, राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी को लेकर काफी भावुक थीं। सार्वभौमिक युवा मताधिकार की वकालत करनेवाली अमृत कौर महिलाओं को दिए जानेवाले आरक्षण में विश्वास नहीं करती थीं। उनका मानना था कि सही मायने में महिलाओं को समानता तब मिलेगी, जब वे आरक्षण की बजाय सामान्य चुनावों के माध्यम से चुनी जाएंगी। हंसा मेहता के साथ मिलकर उन्होंने संविधान के मसौदे में धर्म से जुड़े अनुच्छेद में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। स्वतंत्र भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री होने के साथ-साथ मशहूर एम्स अस्पताल की स्थापना करनेवाली भी अमृत कौर ही थीं।
अम्मू स्वामीनाथन
राजनितिक रूप से सशक्त अम्मू स्वामीनाथन एक निडर सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ जाति विरोधी कार्यकर्ता भी थीं। 1917 में एनी बेसेंट के साथ मिलकर महिला श्रमिकों के लिए उन्होंने वीमेंस इंडिया असोसिएशन की स्थापना की थी। संविधान सभा में वयस्क मताधिकारों के साथ उन्होंने सामाजिक समानता और छुआछूत को हटाने का समर्थन किया था। संविधान सभा में एक चर्चा के दौरान उन्होंने कहा था, “अक्सर विदेशी यह कहते हैं कि भारत में महिलाओं को समान अधिकार नहीं दिए जाते, लेकिन आज हमने संविधान में महिलाओं को देश के नागरिकों की तरह समान अधिकार देकर उन्हें गलत साबित करने की दिशा में कदम बढ़ा दिया है।” बचपन में बाल-विवाह का शिकार हुईं अम्मू स्वामीनाथन ने बाल-विवाह निरोधक अधिनियम (Child Marriage Restraint Act) के साथ आयु सहमति अधिनियम (Age of Consent Act) की भी वकालत की थी। सिर्फ यही नहीं संविधान निर्माण के दौरान उन्होंने हिंदू कोड बिल का समर्थन करते हुए हिन्दू धार्मिक कानूनों में सुधार के साथ लैंगिक समानता की भी मांग की थी।
दुर्गाभाई देशमुख
12 वर्ष की उम्र में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेनेवाली दुर्गाभाई देशमुख ने 1930 में मद्रास में नमक सत्याग्रह आंदोलन में भी भाग लिया था। आगे चलकर उन्होंने वर्ष 1937 में आंध्र महिला सभा की स्थापना की, जो महिला शिक्षा के साथ सामाजिक कल्याण का प्रकाश स्तंभ थी। संविधान सभा में न्यायिक मामलों पर जोर देते हुए उन्होंने मंत्रीपरिषद की सीट के लिए 35 वर्ष की उम्र को घटाकर 30 वर्ष करने की वकालत की थी। योजना आयोग में समाज सेवा करने के बाद सेंट्रल सोशियल वेलफेयर बोर्ड की अध्यक्ष भी बनीं थीं।
बेगम एजाज रसूल
बेगम एजाज रसूल संविधान सभा की न सिर्फ एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य थीं, बल्कि भारतीय संवैधानिक इतिहास की उल्लेखनीय व्यक्तित्व भी रही हैं। उन्होंने ही संविधान सभा में धर्म के आधार पर दिए जानेवाले आरक्षण का विरोध किया था। उनका मानना था कि इस तरह अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों में एक बहुत बड़ी खाई बन जाएगी, जो देश के विकास में बाधक होगी। मुस्लिम नेतृत्व के साथ धार्मिक अल्पसंख्यकों को आरक्षित सीटें छोड़ने के लिए आम सहमति बनाने में उन्होंने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। राजनीति के अलावा स्पोर्ट्स में भी उनकी काफी रूचि थी। भारत में महिला हॉकी को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। यही वजह है कि उनके प्रयासों के फलस्वरूप उनके नाम पर एक भारतीय महिला हॉकी कप रखा गया है।
पूर्णिमा बैनर्जी
अपनी समाजवादी विचारधारा के साथ संविधान सभा में पूर्णिमा बैनर्जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके अनुसार शिक्षा आजीविका के साथ सम्मानजनक रोटी कमाने का अधिकार भी है। अपने विधानसभा के शुरुआती भाषणों में कई बार उन्होंने इस बात का जिक्र किया है। उनका यह भी मानना था कि देश की एकता को ध्यान में रखते हुए सभी छात्रों के लिए एक अप्रूव्ड सिलेबस हो और इसकी जिम्मेदारी सरकार की है कि वे अपने छात्रों को इसे मुहैया करवाएं।
रेणुका रॉय
स्वतंत्र भारत में संविधान बनने से पहले ही वर्ष 1934 में रेणुका रॉय ने एक दस्तावेज के जरिए भारतीय महिलाओं को समान व्यक्तिगत कानून संहिता का समर्थन किया था। ये रेणुका रॉय ही थीं, जिन्होंने महिलाओं को उनकी पैतृक संपत्ति में भी समान अधिकार देने की वकालत की थी। ऑल इंडिया वीमेंस कॉन्फ्रेंस की अध्यक्ष रहीं रेणुका रॉय ने ही ऑल बंगाल वीमेंस युनियन और वीमेंस को-ऑर्डिनेटिंग काउंसिल की स्थापना भी की थी।
Lead Picture Courtesy: @frontline.thehindu.com