“होली में रंगों से हुड़दंग मचत है, परंपराओं की गांठों से कथाओं की खान खुलत है”। कहा जाता है कि त्यौहार हमें हमारी परंपराओं से जोड़ने का सबसे सशक्त माध्यम है होली। होली के त्यौहार की भूमिका इसमें सबसे अनूठी मानी जाती है। भारत में भले ही कई शहरों में होली का त्यौहार मनाने की वजह अलग हो, लेकिन उसके पीछे की सोच एक ही रंग में घुली हुई दिखाई देती है और वह है सच्चाई का प्रतीक। माना जाता है कि होली केवल रंगों और खान-पान का त्यौहार नहीं है, बल्कि इसके साथ कई ऐसी पौराणिक कथाएं और मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। होली के दिन आप भले ही रंगों से खुद को सराबोर कर लें, लेकिन अगर इसके पीछे की दिलचस्प कहानी से रूबरू ना हो पाएं, तो फिर होली का वह रंग आप देख नहीं पायेंगे, जो भारतीय परंपराओं की जड़ों में समाया हुआ है। आपने बचपन में होली के मौके पर अपनी दादी, नानी या फिर मां से होली से जुड़ी भिन्न कहानियां जरूर सुनी होंगी। हम भी आपको उन्हीं कहानियों की सैर पर इस लेख के जरिए लेकर जायेंगे। तो क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर होली में जितने सारे रंग होते हैं, ठीक उसी तरह इसके साथ कई सारी पौराणिक कहानियां भी जुड़ी हुई हैं। यह कथाएं बताती हैं कि कैसे होली सच्चाई और हिम्मत के साथ खुद पर विश्वास करने का रंग भरा उत्सव है। आइए जानते हैं विस्तार से।
होली एक महत्व अनेक
होली एकमात्र ऐसा त्यौहार है, जो कि धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारंपरिक दृष्टि के साथ वैज्ञानिक रूप से भी बहुत महत्व रखती है। इसके साथ लोगों की धार्मिक भावनाए तो जुड़ी हुई हैं ,लेकिन वैज्ञानिक तौर पर माना गया है कि यह त्यौहार समाज में मानसिक तौर पर स्वस्थ माहौल का संचार करता है।
तो क्या इसलिए मनाई जाती है होली…
होली को लेकर पौराणिक कथाओं की लंबी फेहरिस्त है। हर कहानी जीवन के भिन्न रंग का उत्सव मनाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि होली की सबसे ज्यादा प्रचलित कथा हिरण्यकश्यप और प्रहलाद से जुड़ी है। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नाम का एक राक्षस था, जिसके अत्याचार से उसकी पूरी प्रजा काफी दुखी रहती थी। हिरण्यकश्यप को घमंड था कि उससे बड़ा कोई दूसरा नहीं है। हिरण्यकश्यप को वरदान प्राप्त था कि उसकी मौत न किसी इंसान के जरिए होगी और न ही उसे किसी शस्त्र से मारा जा सकता है, इसके साथ न तो वह घर के अंदर, न घर के बाहर, न दिन और न रात में न धरती में उसकी मौत होगी। इस वरदान को पाने के बाद हिरण्यकश्यप अहंकारी हो गया था। हिरण्यकश्यप का बेटा प्रहलाद भगवान विष्णु का भक्त था। अपने बेटे की भक्ति हिरण्यकश्यप को मंजूर नहीं थी। पिता के कई बार मना करने के बाद भी प्रहलाद ने अपनी भक्ति नहीं छोड़ी, ऐसे में हिरण्यकश्यप ने फैसला किया कि वह अपने बेटे की हत्या कर देगा। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को आग में नहीं जलने का वरदान मिला था। हिरण्यकश्यप के कहने पर प्रहलाद को अपनी गोदी में बिठाकर होलिका आग में बैठ गई, लेकिन अंजाम यह हुआ कि होलिका जल गई और प्रहलाद अपनी भक्ति के कारण बच गया। बता दें कि इसी मान्यता के आधार पर होली से पहले की रात को होलिका दहन किया जाता है, इसे बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है। माना जाता है कि होलिका दहन से समाज में फैली बुराइयों दूर होती हैं।
मशहूर है बरसाने की लट्ठमार होली के पीछे की कहानी
होली की धूम तो वैसे देश में होती है, लेकिन सबसे अधिक जिस होली की चर्चा होती है, वो है बरसाने की होली। मथुरा, वृंदावन, और बरसाने की होली के अनेकों रंग है, इसे राधे-कृष्ण की होली भी कहा जाता है। होली के मौके पर खास तौर पर देश-विदेश से कई लोग बरसाना की होली का हिस्सा बनने के लिए आते हैं। माना जाता है कि यह होली 5000 साल पुरानी है। पौराणिक कहानियों के अनुसार, जब कृष्ण बरसाना में राधा से मिलने पहुंचे, तो राधा और उनकी सहेलियां ने कृष्ण की मस्ती से परेशान होकर लाठी से पिटाई कर दी थी, इसी कथा के आधार पर ही बरसाना में लट्ठमार होली धूमधाम से मनाई जाती है, जहां पर पुरुषों और महिलाओं के बीच लट्ठमार होली का यादगार खेल होता है।
लड्डू मार होली के पीछे ऐसी है मान्यता
बरसाने में इसी तरह से होली के मौके पर लड्डू मार होली खेली जाती है, इसके पीछे भी एक पौराणिक कहानी है। कहा जाता है कि लड्डू होली खेलना एक परंपरा का हिस्सा है, जिसे होली के दिन करना सबसे अधिक जरूर होता है। पौराणिक कथा के अनुसार राधा के पिता वृषभानुजी के होली खेलने के न्यौते को कृष्ण के पिता नंद बाबा स्वीकार करते हैं। बरसाने से होली खेलने के लिए नंद गांव पुरोहित आते थे, उनके स्वागत में थाली में लड्डू परोसे गए थे, होली का मौका देखते हुए बरसाने की गोपियों ने पुरोहितों को गुलाल लगाया, जब पुरोहितों के पास कुछ नहीं था, तो उन्होंने अपने थाली में रखे गए लड्डू को फेंक कर होली खेलना शुरू किया, तभी से मथुरा में यह लड्डू होली खेले जाने की परंपरा बरसाना और नंद गांव के बीच मनाई जाती है।
क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर क्यों फाल्गुन मास की पूर्णिमा को ही होली मनाई जाती है। इसकी वजह वजह यह है कि हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन का महीना अंतिम महीना होता है। इस महीने से गर्मी की शुरुआत होती है। दरअसल,श्रीकृष्ण ने देवकी के गर्भ से जन्म लिया। अपने बेटे को कंस से बचाने के लिए वासुदेव रात में ही कृष्ण को मथुरा लेकर जाते हैं, जब कंस को इसके बारे में पता चलता है, तो वह गोकुल में कृष्ण को मारने के लिए पूतना को भेजता है। कंस के कहने पर गोकूल में नंदबाबा के घर जाकर पूतना कृष्ण को जहरीला दूध पिलाने लगती है लेकिन पूतना की ही मौत हो जाती है, इसी दिन को फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन के तौर पर मनाया जाता है। ज्ञात हो कि इन सभी कथाओं को आधार बनाकर देश के भिन्न शहरों में होली का रंग खेला जाता है। यह पौराणिक कथाएं इस बात की गवाह मानी जाती हैं कि किस तरह जीवन के अंधकार को विश्वास, सच्चाई और अच्छाई जैसे कई सकारात्मक रंगों के साथ मिटाया जा सकता है।
पहले खेली जाती थी फूलों की होली
होली खेलने के लिए जहां आज कई तरह के रंगों का इस्तेमाल होता है, वहीं एक दौर ऐसा भी रहा है, जब फूलों की होली खेली जाती थी, खास तौर पर मथुरा के बरसाना और गोकुल में आज भी फूलों की होली खेली जाती है। पहले होली के रंग टेसू, पलाश के पत्तों और फूलों से बनाया जाता था। फिलहाल बाजार में अब कई तरह के प्राकृतिक रंग मौजूद हैं।
हर शहर की है अपनी सबसे खास होली और इसे मनाने का तरीका
आपको जानकर हैरानी होगी कि होली के इस त्यौहार को कई शहरों में कई नामों से पहचाना जाता है। ब्रज की होली को बरसाने की होली, ‘लट्ठमार होली’ के नाम से पुकारा जाता है। मथुरा और वृंदावन में पूरे 15 दिनों तक होली का पर्व होता है, जहां पर गीत-,संगीत, महाभोज के साथ होली मेला आदि का आयोजन होता है। हरियाणा में भाभी और देवर की होली काफी लोकप्रिय है। होली के दिन भाभी और देवर आदर-भाव के साथ एक-दूसरे को गुलाल लगाकर और मीठा खिलाकर होली की सुबह की शुरुआत करते हैं। महाराष्ट्र की होली को ‘रंग पंचमी’ कहा जाता है, जहां पर सबसे अधिक सूखा रंग लगाने की परंपरा है। वहीं इन सबसे अलग गोवा में अनोखी होली खेली जाती है, जहां पर जुलूस निकालकर परेड होती है और कई तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। ओडिशा और असम में महिलाएं पीले रंग के कपड़े पहन और बालों में फूल सजाकर गायन और नृत्य करती हैं। उदयपुर की शाही होली को ‘धुलंडी’ कहा जाता है, इस दौरान शाही परिवार के वंशज एक साथ मिलकर होली खेलते हैं। पंजाब की होली को ‘होला मोहल्ला’ के नाम से जाना जाता है। यहां पर गुलाल के साथ मार्शल आर्ट, घुड़सवारी और जोशीले कविताओं का रंग देखने को मिलता है और खाने के लिए बड़े लंगर का आयोजन भी होता है। बिहार और उत्तर प्रदेश में होली मिलन खूब अच्छे से किया जाता है, राजस्थान के पुष्कर में भी जम कर होली होती है, गली-गली में रंगों की बहार होती है।
गली-मोहल्ले की बचपन वाली मासूम होली
कुल मिलाकर देखा जाए तो होली को लेकर हर किसी की अपनी मान्यता और इसके जश्न का अपना तरीका है। हमारे लिए बचपन में होली का मतलब टीवी पर होली के गीत सुनना या फिर पिताजी के साथ बैठकर होली की कविताओं का आनंद लेना हुआ करता था। मां और पिताजी होली के पानी वाले गुब्बारे बनाकर हमें रंग वाली बाल्टी के साथ घर से बाहर कर देते और जब हम होली खेलकर भूख से बेहाल, घर पहुंचते तो गुजिया और उड़द दाल की कचौड़ी के साथ पूरी शाम बिता देते थे। जैसे-जैसे वक्त आगे बढ़ा, होली के लिए कई जगहों पर भव्य आयोजन किया जाने लगा। कई बड़ी सोसायटी से लेकर गली के नुक्कड़ तक होली के पुराने गीत और डीजे की धून पर दोस्तों और परिवारों के साथ रंगों का खेल खेला जाता है। देखा जाए तो, होली में रंगों का इस्तेमाल इस बात की गवाही देता है कि कैसे हम अपने जीवन में भी खुशी, प्रेम, साहस और आत्मविश्वास का रंग भर हर दिन रंगोत्सव के रंग से खुद को सराबोर कर सकते हैं, वहीं रंग में डूबे हुए कपड़े इस बात का प्रतीक हैं कि आप भी अपने जीवन के उन रंगों की छाप को कभी मत भूलिए जो आपके जीवन में उमंग और विश्वास की रोशनी लेकर आते हैं।
आप सभी को खुशियों वाली होली मुबारक !!