भारत में कई तरह से और भिन्न-भिन्न प्रांत में विभिन्न प्रकार के पर्व मनाए जाते हैं, लेकिन आपके लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि कैसे पर्यावरण को सुरक्षित रखने का संदेश देते हुए उत्तराखंड के साथ कई अन्य जगहों पर ‘हरेला पर्व’ मनाया जाता है। हरेला पर्व खासतौर पर पर्यावरण को सुरक्षित रखने का संदेश देता है। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में विशेष रूप से मनाया जाता है। आइए जानते हैं विस्तार से ‘हरेला पर्व’ के पीछे छुपी पर्यावरण के महत्व की खूबी।
अनाज उगाने की परंपरा
हरेला पर्व जुलाई महीने के मध्य में मनाया जाता है, लेकिन इसकी तैयारी 12 से 15 दिन पहले ही शुरू हो जाती है। हरेला का मतलब होता है हरियाली और इसे दिखाने के लिए सभी लोग अपने घर में 7 तरह के अनाज के बीज को बोते हैं। इसके लिए मिट्टी भी घर के पास से लाई जाती है। ज्यादातर मक्का, उड़द, तिल और धान के बीज को सबसे अधिक बोया जाता है। 12 दिन पहले से मिट्टी में लगाए गए इन पौधों की देखभाल घर की महिलाएं करती हैं, इसके साथ कई तरह के पकवान और गीत भी गाए जाते हैं। अंत में हरेला की शुभकामनाएं देते हुए परिवार के सभी लोग एक दूसरे को हरियाली से भरे इस पर्व की बधाई भी देते हैं।
ऐसे भी होती है हरेला पर्व की तैयारी
उत्तराखंड और हिमाचल में कई लोग हरेला पर्व के लिए 7 प्रकार के अनाज के बीज बोते हैं। कम से कम नौ दिनों तक मिट्टी के बर्तन में बोए गए इस बीज को लगातार पानी दिया जाता है, दसवें दिन इसे काट दिया जाता है । आपको बता दें कि 4 से 6 लंबे पौधों को हरेला किया जाता है। लंबे पौधों के पीछे यह मान्यता है कि पौधा जितना बड़ा होता है, आने वाले मौसम में फसल उतनी ही अच्छी होती है।
हिमाचल में हरियाली पर्व
उत्तराखंड के बाद हिमाचल में भी सावन के महीने में हरियाली पर्व के तौर पर मनाया जाता है। पर्यावरण से जुड़ा होने के नाते इस दिन कई तरह के पारंपरिक गीत-संगीत के साथ पौधारोपण का भी कार्यक्रम किया जाता है। हिमाचल प्रदेश के लोग इस दिन ऐसे फलदार पौधे लगाते हैं। गढ़वाल मंडल में इसे कृषि पर्व के तौर पर मनाया जाता है।
यहां पढ़ें हरियाली गीत
जी रये, जागि रये, तिष्टिये पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,
हिमाचल में हयूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रइतिहास ये,
अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो
क्या है प्रकृति से हरेला पर्व का जुड़ाव
भारत में ऐसे बहुत कम त्योहार हैं, जो कि प्रकृति से जुड़े रहने का मार्ग दिखाती हैं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि प्रकृति हमारी जननी है। दवाइयों से लेकर पानी और साफ वातावरण के साथ सुरक्षित माहौल भी पर्यावरण की देन है। कई बार ऐसा देखा गया है कि प्रकृति से खिलवाड़, प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के कारण बाढ़ और प्राकृतिक आपदा जैसे संकट हम लगातार देखते हुए आ रहे हैं। ऐसे में हरेला पर्व कई दशकों से जारी केवल एक त्योहार नहीं है, बल्कि पर्यावरण को जीवित रखने का एक अभ्यास है। इसे सभी को अपनाना चाहिए।